आरसीईपी यानी समग्र संकट के व्यापार समझौते
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आरसीईपी यानी समग्र संकट के व्यापार समझौते

आरसीईपी में पहले चरण में ही 65 प्रतिशत वस्तुओं-सेवाओं पर आयात-सीमा शुल्क को “शून्य” कर दिए जाने प्रस्ताव है. शेष वस्तुओं-सेवाओं पर दूसरे चरण में ऐसी ही कार्यवाही की जायेगी.

आरसीईपी यानी समग्र संकट के व्यापार समझौते

पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार को बढ़ाने के लिए विभिन्न देशों के बीच द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौते किये जा रहे हैं. इनके तहत एक देश दूसरे देश को शुल्कों, करों या अन्य व्यापारिक नियमों में रियायतें देते हैं, ताकि व्यापार बढ़े. इसका बड़ा असर यह होता है कि विकासशील देशों और समाज पर इन समझौतों का नकारात्मक असर होता है. विश्व व्यापार संगठन का ही एक रूप से क्षेत्रीय विस्तार होने लगा है. नवंबर 2012 से 16 देशों (10 आसियान देश – ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, सिंगापुर, थाईलेंड, फिलीपींस, लाओस और विएतनाम और इनके साथ व्यापारिक सम्बन्ध रखने वाले छः अन्य बड़े देश – भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड) ने एक वृहद व्यापार-वाणिज्यिक समन्वय संधि, जिसे व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी (रीजनल काम्प्रीहेंसिव इकोनोमिक पार्टनरशिप-आरसीईपी) कहा जाता है, की दिशा में पहल शुरू की. इन 16 देशों में 350 करोड़ लोग रहते हैं और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 42 प्रतिशत हिस्सा यहां है.

इस संधि के तहत विचार किया जा रहा है कि इन 16 देशों के बीच वस्तुओं, निवेश, आर्थिक-तकनीकी सहयोग, प्रतिसपर्धा-बौद्धिक सम्पदा अधिकार और सेवाओं के व्यापार को बढ़ाने के लिए व्यापार शुल्कों (सीमा शुल्क, आयात निर्यात शुल्क) को न्यूनतम रखने के विचार को क्रियान्वित करने की कोशिश हो रही है. कहा तो यह जा रहा है कि आरसीईपी से आधुनिक, व्यापाक, उच्च गुणवत्ता के और सभी के लिए फायदेमंद व्यापार अनुबंध को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन सच्चाई यह है कि इससे असमानता, एकतरफ़ा व्यापार व्यवस्था और पूंजीवादी नियंत्रण के कारण कारपोरेट नियंत्रण को बढ़ावा मिलेगा. रोज़गार खतम होने और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने चुनौतियां और गहरी होंगी. आरसीईपी में पहले चरण में ही 65 प्रतिशत वस्तुओं-सेवाओं पर आयात-सीमा शुल्क को “शून्य” कर दिए जाने प्रस्ताव है. शेष वस्तुओं-सेवाओं पर दूसरे चरण में ऐसी ही कार्यवाही की जायेगी.

भारत का पक्ष
भारत आधिकारिक रूप से आरसीईपी को सकारात्मक और बहुत गतिमान पहल मानता है, बस उसका कहना है कि चीन, जापान सरीखे देशों के साथ व्यापार में शुल्कों को कम या खत्म करने के लिए हमें कुछ समय दिया जाना चाहिए क्योंकि इन देशों से हमारा व्यापार संतुलन सकारात्मक नहीं है. भारत के आसियन देशों, जापान और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौते (व्यापार के लिए सरल प्रक्रियाएं, विशेष और कम व्यापार शुल्क व्यवस्था आदि) हैं, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलेंड के साथ समझौते की प्रक्रिया जारी है, किन्तु चीन के साथ ऐसा नहीं हो रहा है. यह एक सच्चाई है कि भारत के लिए इस तरह के सौदे सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के लिए नकारात्मक साबित होंगे.

भारत सरकार पारदर्शी तरीके से इस विषय पर देश के भीतर हितधारकों और प्रभावित होने वाले समूहों से कोई बात नहीं कर रही है. पिछले तीन सालों की प्रक्रिया से यह नज़र आता है कि वास्तव में सरकार और व्यापारिक-औद्योगिक संगठन मिलकर अंतिम निर्णय ले लेना चाहते हैं. ऐसे में पूरी आशंका है कि पूंजीवादी हितों और बाजारवादी विकास के लिए किसानों, मजदूरों, नागरिकों, लघु और माध्यम उद्योगों, पर्यावरण और देशज प्राकृतिक संसाधनों के हितों को दाँव पर लगा दिया जाए.

सबकुछ इतना गोपनीय क्यों है?
ताकि समझौतों की शर्तों और योजनाओं के बारे में, जो कि बड़े व्यापारिक संगठनों के हित में हैं और बाज़ार को केंद्रीयकृत करती हैं, और जिनसे भारत सरकार को आयात शुल्क के रूप में मिलने वाले राजस्व का भारी नुकसान होगा, व्यापक समाज, किसान, मजदूर और नागरिक समूह कोई पहलकारी समझ न बना पाये! सभी देशों, खासकर के भारत में आम लोगों के व्यापार, रोज़गार, उत्पादन, पर्यावरण, जैव-विविधता, स्थानीय कौशल और आर्थिक स्थिति पर आरसीईपी के बहुत गहरे असर होने, परन्तु फिर भी आरसीईपी की प्रक्रिया में समाज, खेती करने वालों, सामाजिक संगठनों से लगभग नगण्य के बराबर का संवाद किया गया. भारत में वर्ष 2017 में हुई आरसीईपी बैठक के लिए वाणिज्य मंत्रालय ने दो घंटे की बैठक की, जिसमें हर सामाजिक संस्था/संगठन को पग्भाग तीन मिनिट का समय दिया गया, किन्तु बड़ी व्यपारिक समूहों से बातचीत के लिए पूरे दिन का कार्यक्रम हुआ. आरसीईपी से सम्बंधित दस्तावेज गोपनीय रखे गए हैं.

किन विषयों पर किन शर्तों के साथ समझौते आगे बढ़ रहे हैं, इसके बारे में सरकारें कोई जानकारी नहीं दे रही हैं. भारत के संविधान के मुताबिक कार्यपालिका को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापारिक-वाणिज्यिक समझौते करने के लिए अधिकृत किया गया है, किन्तु कार्यपालिका इस कर्तव्य से पूरी तरह से विमुख हुई है कि वह आरसीईपी के बारे में संसद, राजनीतिक दलों और सामाजिक संस्थाओं के साथ बातचीत करे. बात यहीं तक सीमित नहीं है भारत के सूचना के अधिकार क़ानून के तहत भी इसके बारे में जानकारी/दस्तावेज नहीं दिए जा रहे हैं.

केंद्र सरकार के राजस्व पर असर
उल्लेखनीय है कि आरसीईपी के समाज और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन भी नहीं हुए हैं. याद रखिये कि भारत सरकार के कुल राजस्व में से लगभग 17 प्रतिशत हिस्सा आयात शुल्क से अर्जित होता है. जिस तरह के द्विपक्षीय व्यापार समझौते करके शुल्कों को कम किया जा रहा है, इससे सरकार का राजस्व कम होगा, जिसकी भरपाई करने का काम जीएसटी के माध्यम से अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा कर किया जाएगा.डब्ल्यूटीओ, द्विपक्षीय व्यापार समझौतों की तरह ही आरसीईपी भी निवेश के लिए ज्यादा ज्यादा उदारिवादी नीतियां, कम कम से कम कानूनी नियंत्रण चाहती हैं. वे चाहती हैं कि बौद्धिक सम्पदा पर बाज़ार का हक हो, सेवाओं के लिए ज्यादा खुले अवसर हो और नियमन को सीमित किया जाए. इस विषय पर हमें बिन्दुवार नज़र डालने की जरूरत है.

व्यापार असुंतलन संकटकारी है
आरसीईपी के अनुसार इस वृहद क्षेत्रीय व्यापार साझेदारी अनुबंध में यह कहा जा रहा है कि जो देश वस्तु या सेवाओं का आयात कर रहा है, वह इसके लिए शुल्कों के स्तर को “शून्य” तक ले कर आयेंगे. इससे निर्यात करने वाले देश आयात करने वाले देश को ज्यादा आसानी से वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध करवा पायेंगे. जरा भारत और चीन का उदाहरण देखिये. भारत और चीन के बीच जो व्यापार होता है, उसमें भारत चीन से आयात ज्यादा करता है और निर्यात कम. जब दो देशों के बीच आयात-निर्यात बराबर मूल्य का होता है, तब इसे व्यापार संतुलन की अवस्था कहा जाता है. जो देश ज्यादा आयात करता है, वह घाटे में रहता है. मौजूदा स्थिति यह है कि व्यापार संतुलन नहीं है और यह बहुत बड़े रूप में चीन के पक्ष में है. इन दोनों देशों के बीच व्यापार से भारत 63.12 अरब डालर के व्यापार असंतुलन का सामना करता है, यानी चीन इतनी राशि की वस्तुएँ और सेवाएं भारत को ज्यादा बेंचता है. यह अंतर थोड़ा-मोड़ा नहीं है. दोनों देशों के बीच वर्ष 2017-18 में लगभग 90 अरब डालर का व्यापार हुआ.

भारत ने जून 2018 में यह विषय विश्व व्यापार संगठन में उठाया है कि एक तरफ तो भारत से अपेक्षा की जा रही है कि वह अपना बाज़ार खोले, शुल्क कम करे. दूसरी तरफ चीन भारतीय पेशेवरों को वीसा देने में आनाकानी करता है, इस पर बहुत रोक है. चीन ने अपने यहाँ सूचना तकनीक, सेवाओं, पशु उत्पाद, चावल और दवाओं के आयात (यानी भारत से चीन को सामान-सेवाएं भेजने के मामले में) पर कड़े नियमन किये हुए हैं. जिनके चलते भारत से चीन को निर्यात ही नहीं हो पाता है. इसके उलट भारत ने बाजार खोल रखा है, इससे चीन के उद्योगों और सरकार दोनों को बहुत लाभ हो रहा है.

आयात-निर्यात के संतुलन का सीधा असर देश के भीतर रोज़गार, बाज़ार और विदेशी मुद्रा के भण्डार पर पड़ता है. चीन ने बहुत बड़े पैमाने पर स्थानीय और मझोले उद्योगों को बढ़ावा दिया है, इससे वहां उत्पादन बहुत बढ़ा है. इसके साथ ही, वह इस उत्पादन को बाज़ार दिलाने के लिए भारत जैसे देशों के बाज़ार पर नीतिगत तरीके से कब्ज़ा भी जमा चुका है. दीवाली के फटाकों से लेकर, साड़ियों, कीलों, घड़ियों, जूतों, चश्मों, कैमरे, मोबाइल से लेकर हर तरह की वस्तु चीन से आकर भारत के हर बाजार में स्थान जमा चुकी है.

जून 2018 में डब्ल्यूटीओ में भारत ने अपना पक्ष दर्ज कराते हुए कहा है कि जटिल और कड़ी शर्तों के कारण चीन के राज्य नियंत्रित संस्थानों के साथ व्यापार अनुबंध करना बहुत मुश्किल होता है. वहां पर व्यापार और सेवाएं प्रदान करने के लिए गढ़ी गई पात्रताओं, अनुमतियों के लिए कड़ी शर्तों, कर व्यवस्था के कारण भारत को निर्यात के अवसर ही नहीं मिलते हैं. चीन से होने वाले कृषि उत्पादों के निर्यात के बारे में भी पारदर्शिता नहीं है. पेशेवरों को वहां केवल एक साल का वीसा दिया जाता है. चीन ने भारत में अब तक केवल 1.74 अरब डालर का ही निवेश किया है, यानी वह भारत में निवेश भी नहीं करता है.

ऐसी अवस्था में आरसीईपी का फायदा भी चीन को ही होगा क्योंकि भारत यदि आयात शुल्क-सीमा शुल्क को शून्य करता है, तो चीन की कंपनियों और उत्पादकों को फायदा होगा और भारत सरकार को करों से महरूम होना पड़ेगा. इसके उलट चूंकि चीन भारत से आयात बहुत कम करता है, इसलिए उसे बहुत कम कीमत चुकानी पड़ेगी.

भारत को गहरा आघात लगेगा
यदि आरसीईपी के तहत भारत शुल्कों में 100 प्रतिशत कटौती करता है, तो सभी देशों को फायदा होगा क्योंकि 15 में से केवल चार देश (कम्बोडिया, फिलीपींस, सिंगापुर और वियतनाम) ऐसे देश हैं, जिनके साथ व्यापार संतुलन भारत के पक्ष (इन देशों को भारत का निर्यात आयात की तुलना में 3.98 अरब डालर ज्यादा है) में है यानी भारत उन्हें निर्यात ज्यादा करता है और वहां से आयात कम. बाकी के ग्यारह देशों के साथ भारत का व्यापार संतुलन नकारात्मक है. इन देशों को भारत का आयात निर्यात की तुलना में 126.36 अरब डालर ज्यादा है.

इस संधि से चीन का व्यापार 13.52 अरब डालर, मलेशिया का 4.74 अरब डालर, कोरिया का 3.36 अरब डालर, थाईलैंड का 2.19 अरब डालर और जापान का 2.18 अरब डालर बढ़ जाएगा.देश के विकास के लिए आर्थिक संसाधनों की जरूरत पड़ती है. यदि भारत आरसीईपी को स्वीकार कर लेता है तो इसे शुल्कों में कटौती करना पड़ेगी. इससे भारत के बजट में 19.3 अरब डालर कम आयेंगे.इसके असर केवल यहीं तक सीमित नहीं है. वर्ष 2015 की स्थिति में आंकलन करने पर पता चलता है कि आरसीईपी के फलस्वरूप भारत का आयात भार 23.58 अरब डालर बढ़ जाएगा क्योंकि शुल्कों में 100 प्रतिशत कटौती से कई वस्तुएं और सेवाएं आयात करना सस्ता पड़ेगा.

हमारे न्यायिक व्यवस्था का कोई स्थान नहीं
आरसीईपी के प्रावधानों से पता चलता है कि यह केवल व्यापार संतुलन को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों (बिग कार्पोरेशंस) को यह शक्ति देगा कि उन्हें स्थानीय कानूनों के तहत स्थानीय अदालतों में चुनौती न दी जा सके. ये प्रतिष्ठान किसी भी परिस्थिति में देश की सरकारों के खिलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों में प्रकरण दर्ज करवा सकेंगे. मौजूदा स्थिति यह है कि सरकारों के खिलाफ़ 31 अरब डालर की राशि के बराबर के 50 मामले दर्ज किये जा चुके हैं. जरा सोचिये कि इंडोनेशिया सरकार ने सेमेक्स नामक बहुराष्ट्रीय कंपनी को एक स्थानीय कंपनी पर कब्ज़ा नहीं करने दिया, इसके लिए उसे 33.7 करोड़ डालर का मुआवजा चुकाना पड़ा. अब तक दर्ज मामलों में से एक तिहाई मामलों में सरकारों ने पर्यवारण क़ानून के तहत बहुत राष्ट्रीय कंपनियों को रोका है, इसलिए सरकारों के खिलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों में मामले दर्ज हुए.

राजनीतिक गैर-जवाबदेयता
जब मुक्त व्यापार समझौतों के बुरे प्रभावों के बारे में बहस तेज हुई तो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केन्द्रीय मंत्री और तत्कालीन विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता शांता कुमार की अध्यक्षता में वाणिज्य मामलों की समिति का गठन किया. इस समिति ने किसानों, किसान संगठनों से लेकर कई समूहों से बात की. इसके बाद इस स्थायी संसदीय समिति ने एकमत से तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा के मुक्त व्यापार समझौतों की प्रक्रिया रोक दी जाना चाहिए. आज उन्हें के दल की सरकार है, किन्तु यह सरकार मुक्त व्यापार समझौतों को सक्रियता से आगे बढ़ाना चाहती है. यह बात साबित करती है कि सरकारों पर कुछ खास पूंजीवादी ताकतों का जबरदस्त नियंत्रण है और राजनीति दल देश के हितों के मामले में पूरी तरह से ईमानदार नहीं हैं.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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