जेल शब्द से तो हमें भय लगता ही है, जेल के अंदर की जिंदगी के किस्से भी हमने सुने ही हैं. जेल में कानून और व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसके प्रशासक का एक रौबदार चेहरा आंखों के सामने आता है.
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क्यों न नए साल की शुरुआत एक सकारात्मक सोच के साथ की जाए. अक्सर हम अपने आसपास कुछ ऐसा होता देख रहे होते हैं, जो हमें ज्यादातर निराश ही करता है. घर की दीवारों पर टंगे कैलेंडर बदल जाते हैं , लेकिन जिंदगी का हिसाब-किताब वही का वही. हम गौर से देखें और महसूस करें तो हमें राह चलते चलते ऐसे कई लोग मिलते हैं जो इस समाज को अपनी छोटी छोटी कोशिशों से नया मानक देते हैं. मेरे एक परिचित एक ही कंपनी में पिछले दस साल से काम कर रहे हैं. उन जैसे बीसियों और लोग भी उसी कंपनी में काम करते हैं. पहले साल के पहले दिन उन्होंने एक पेड़ के साथ अपना दस साल पुराना फ़ोटो शेयर किया. दस साल में एक पौधा जो उन्होंने रोपा कल वह उसकी छाया में खड़े थे. यह बहुत सामान्य सी बात हो सकती है, लेकिन उनकी यह छोटी सी कोशिश क्या सचमुच इतनी छोटी है. क्या हम सचमुच अपने आसपास के प्रति इतने सजग रहते हैं. क्या हम हरदम आलोचना से रचना की और बढ़ते हैं?
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जेल शब्द से तो हमें भय लगता ही है, जेल में कानून और व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसके जेलर का एक रौबदार चेहरा आंखों के सामने आता है. पिछले माह जब हम मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में घूम रहे हैं तो वहां के जेलर का एक खूबसूरत किस्सा सामने आता है. महिला जेल में वहां के जेलर आरके मिहारिया ने बच्चों के टीकाकरण के लिए सार्थक पहल की. वैसे भी अपनी मां के साथ सजा भुगत रहे छोटे-छोटे बच्चों का कोई दोष समझ में नहीं आता. पर वह चार बच्चे टीकाकरण जैसी जरूरी चीज से क्यों वंचित रहें. यह कोई बड़ा ख्याल नहीं है, कोई क्रांति भी नहीं है, पर संवेदना का इतना बारीक स्तर है, वह भी एकदम हाशिए या अलग-थलग पड़ गए लोगों के लिए. हो सकता है कि यह संवेदना किसी किताब में न पढ़ाई जाए या किसी अवॉर्ड का ही हिस्सा बने, लेकिन रिश्तों की ऐसी संवेदना से ही तो हम नए साल में नया हिंदुस्तान गढ़ेंगे.
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बीते साल में रीवा जिले में घूमते हुए एक ऐसे गुरुजी से मिला जो अपने घर से ही स्कूल चला रहे हैं. 35 घरों वाले इस बगरिहा गांव के बच्चों को स्कूल के लिए पांच किमी तक जाना पड़ता था. वह भी जंगलों के रास्ते से होते हुए. सरकार ने गांव वालों की मांग पर वहां स्कूल को तो स्वीकृति दे दी, पर एक छोटी सी तकनीकी समस्या से यहां मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पा रहीं. न चाक, न ब्लैकबोर्ड, न बैठने की व्यवस्था. बीते तीन सालों में मास्टरजी रामभजन कोल सीएम हेल्पलाइन से लेकर तमाम जगहों पर दरख्वास्त दे चुके. एक सरकारी प्रायमरी स्कूल को वह घर के आंगन से ही चलाकर वह गांव के कई बच्चों के सपनों को टूटने से बचा रहे हैं. हो सकता है कभी उनकी बात सरकार के कान तक पहुंच जाए और सरकारी स्कूल को सुविधाएं मिलना शुरू हो जाए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)