इस धारा के मुताबिक 7 साल से कम की सजा के प्रावधान वाले मामलों में पुलिस सीधे गिरफ्तार नहीं कर सकती, इसके लिए पुलिस को कारण सहित मजिस्ट्रेट की परमिशन की ज़रूरत होती है.
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हाल ही में मीडिया एक बड़े तबके में यह ख़बर छाई रही कि “अब दहेज उत्पीड़न के मामले में पति की तुरंत हो सकती है गिरफ़्तारी”. यह ख़बर 14 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एम खानविलकर की तीन सदस्यीय पीठ के उस फैसले से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के ही जस्टिस यू के गोयल और यू यू ललित के राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के 498A से जुड़े 2017 के चर्चित फैसले पर पुनर्विचार करते हुए कुछ दिशानिर्देशों को पलट दिया, लेकिन मीडिया एक बड़े हिस्से ने इस फैसले को ऐसे पेश किया, जैसे सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने उसमें कोई आमूल-चामूल बदलाव ला दिया है.
दरअसल जस्टिस यू के गोयल और यू यू ललित की पीठ ने पिछले साल राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार की याचिका पर फैसला सुनाते हुए हर जिले में “परिवार कल्याण समिति” गठित करने को कहा था, जो पुलिस या मजिस्ट्रेट के पास वैवाहिक मसलों से जुड़ी आने वाली शिकायतों पर एक महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती. साथ ही हर क्षेत्र में एक विशेष जांच अधिकारी नियुक्त करने, जमानत की प्रक्रिया एक दिन में पूरी करने, परिवारजनों को व्यक्तिगत उपस्थिति के लिए मजबूर न करने तथा वीडियो कांफ्रेसिंग से भी ट्रायल करने का निर्देश दिया था. जिन मामलों में पक्षकार समझौता चाहते हों या फिर जिला न्यायालय किसी शिकायत को अत्याचारपूर्ण अथवा दमघोटू (आप्रसिव)पाता हो तो उसे जिला न्यायालय ही बंद कर सकती थी. साथ ही गंभीर चोट और मौत के मामलों में ये दिशानिर्देश लागू नहीं होते.
उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने हर जिले में “परिवार कल्याण समिति” गठित करने और हाईकोर्ट की तरह जिला न्यायालय को समझौते की स्थिति में केस खारिज करने के दिशानिर्देश को निष्प्रभावी करते हुए कहा कि परिवार कल्याण समिति गैर-न्यायिक संस्था होगी, जो पुलिस और न्यायालय की कार्रवाई में हस्तक्षेप के साथ भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के खिलाफ है. साथ ही 498ए एक गैरजमानतीय और नॉन-कंपाउंडेबल धारा है, जिसे भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता समझौते के आधार पर जिला न्यायालय को खारिज करने का अधिकार नहीं देती है. यह अधिकार केवल उच्च न्यायालय को भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने 2012 के ज्ञान सिंह बनाम पंजाब सरकार समेत कई अन्य फैसलों में परिभाषित किया है.
उच्चतम न्यायालय ने परिवार कल्याण समिति की संकल्पना से भले असहमति जाहिर की हो लेकिन मेडिएशन सेंटर और विधिक सेवा प्राधिकरण के रूप में परिवार कल्याण समिति जैसी संस्था थानों से लेकर निचली अदालतों, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बाकायदा कार्य कर रही हैं. सुप्रीम कोर्ट का खुद का निर्देश है वैवाहिक विवादों को पहले मेडिएशन सेंटर में ज़रूर रेफर किया जाए. परिवार कल्याण समिति की संकल्पना को कोर्ट ने कानून और न्यायालय के कार्य में हस्तक्षेप माना क्योंकि उसकी जांच दोनों पक्षों की इच्छा पर निर्भर न होकर एक प्रक्रिया होती जबकि मेडिएशन दोनों पक्षों की इच्छा से ही संभव होता है. न्यायालय ने कानून और पुलिस में सिविल सोसाइटी की दखलंदाजी को सिरे से नकार दिया लेकिन यह कुछ हद पारिवारिक मामलों में जूरी की तरह कार्य करती और शायद मेडिएशन सेंटर से एक कदम आगे की राह बनाती. जिला न्यायालय को ही समझौते के आधार पर केस खारिज करने का अधिकार मिलने से लोगों को अनाहक हाईकोर्ट नहीं जाना पड़ता और न्यायपालिका के बार में कमी आती और उसका समय भी बचता.
तीन सदस्यीय पीठ ने दो सदस्यीय पीठ के गिरफ़्तारी के दिशानिर्देशों में कोई बदलाव नहीं किया है, अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार, ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, डी के बासु बनाम पश्चिम बंगाल जैसे अपने फैसलों के प्रावधानों और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के अनुसार 498ए के मामलों में पुलिस को कार्रवाई करने का निर्देश दिया है. इस धारा के मुताबिक 7 साल से कम की सजा के प्रावधान वाले मामलों में पुलिस सीधे गिरफ्तार नहीं कर सकती, इसके लिए पुलिस को कारण सहित मजिस्ट्रेट की परमिशन की ज़रूरत होती है. अर्नेश कुमार मामले में उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा है कि न्यायाधीश को भी गिरफ्तारी वारंट जारी करने से पहले, गिरफ्तारी क्यों ज़रूरी है, स्पष्ट रूप से दर्ज करना होगा. इसका पालन नहीं करने पर पुलिस अधिकारी या जांच अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है. इस तरह से जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित ने न तो सीधे गिरफ्तारी रोकने का कोई नया फैसला दिया था और न ही तीन सदस्यीय पीठ ने इस पर कोई नया आदेश जारी किया है.
तीन सदस्यीय पीठ ने एक दिन में जमानत की प्रक्रिया पर कोई सवाल नहीं उठाया बल्कि इसे और बल प्रदान करते हुए अपने फैसले में कहा कि अदालतें पतियों और उनके रिश्तेदारों की अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई को एक दिन में निपटायेँ. इसके साथ ही पीठ ने वीडियो कांफ्रेसिंग से सुनवाई के प्रावधान को निचली अदालतों के विवेकाधीन छोड़ते हुए, आरोपी को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट के लिए भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 205 और 317 के प्रावधानों के अनुसार केस की स्थिति के अनुसार आवेदन करने के विकल्प की ओर इंगित किया है. इसलिए न्यायिक खबरों को पेश करते समय उसकी मंशा और विश्लेषण बहुत ज़रूरी हो जाता है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)