जलवायु परिवर्तन के खतरे का अहसास इसी बात से किया जा सकता है कि 1880 से अब तक के सबसे अधिक गर्म वर्षों में सर्वाधिक 10 गर्म वर्ष 1998 से 2018 तक के रहे हैं,जिसमें 2016 अब तक सबसे अधिक गर्म वर्ष रहा है.
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पिछले कुछ दशकों में पूरे विश्व ने जलवायु परिवर्तन को एक बड़े खतरे के रूप में स्वीकार किया है. अप्राकृतिक जलवायु परिवर्तन की घटना सीधे तौर पर मानव सभ्यता के विकास से जुड़ी हुई है, जिसने औद्योगिकीकरण के बाद से निरंतर धरती की पारिस्थितिकी को असंतुलित करने का काम किया है. इसके भयानक परिणाम 19वीं शताब्दी से पहले ही दर्ज किए जाने लगे थे. ब्रिटेन के पहले वायु प्रदूषण निरीक्षक राबर्ट स्मिथ ने वर्ष 1852 में यूनाइटेड किंगडम के मैनचेस्टर में एसिड रेन की पुष्टि की थी. इसके बाद इसी साल लंदन स्मोग की वजह से सामान्य से 4000 अधिक लोगों की मृत्यु को रिकार्ड किया गया था. यहां ब्रिटेन का जिक्र इसलिए क्योंकि औद्योगिक क्रांति की शुरुआत यहीं से हुई थी और मैनचेस्टर इसका अगुआ हुआ करता था. इस तरह जहां सबसे पहले औद्योगिक गतिविधियां शुरू हुईं, वहाँ सबसे पहले इसके दुष्परिणाम सामने आने शुरू हो चुके थे.
जलवायु परिवर्तन के खतरे का अहसास इसी बात से किया जा सकता है कि 1880 से अब तक के सबसे अधिक गर्म वर्षों में सर्वाधिक 10 गर्म वर्ष 1998 से 2018 तक के रहे हैं,जिसमें 2016 अब तक सबसे अधिक गर्म वर्ष रहा है. अमेरिका के भूगर्भीय सर्वेक्षणों के अनुसार, मोंटाना ग्लेशियर राष्ट्रीय पार्क में 150 ग्लेशियर हुआ करते थे लेकिन अब सिर्फ 25 ही बचे हैं. पिछले कुछ दशकों में समुद्र के जल स्तर में सालाना 3 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हुई है और सालाना 4 प्रतिशत की रफ़्तार से ग्लेशियर पिघल रहे हैं.
उद्योगों और कृषि के जरिए मानव समुदाय जो गैसें वातावरण में छोड़ रहे हैं उससे ग्रीन हाउस गैसों की परत मोटी होती जा रही है. ये परत अधिक ऊर्जा सोख रही है और धरती का तापमान बढ़ा रही है. इसके अलावा दूसरे ग्रीनहाउस गैस जैसे हैलो कार्बन्स, CFCs, क्लोरिन और ब्रोमाईन कम्पाउंड इत्यादि वातावरण में एक साथ मिल जाते हैं और वातावरण के रेडियोएक्टिव संतुलन को बिगाड़ते हैं. अगली शताब्दी तक धरती के तापमान में 2 से 11.5 डिग्री की वृद्धि हो सकती है और समुद्री जलस्तर 0.04 मीटर से 1.4 मीटर तक बढ़ने की आशंका है. इसका प्रभाव खेती पर पड़ने लगा है और जमीन की उत्पादकता में कमी आ रही है. वन्य और जलजीवों की कई प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं तो सैकडों प्रजातियां विलुप्त के कगार पर खड़ी हैं. इस तरह से जलवायु परिवर्तन मानव सभ्यता के अस्तित्व की लड़ाई बनने जा रहा है.
पर्यावरण सुरक्षा के लिए 1985 में विएना सम्मेलन, 1987 में मांट्रियल प्रोटोकाल और 1992 के रियो-डी-जेनिरियो सम्मेलन के शुरुआती प्रयासों के बाद एक मजबूत पहल की नींव1997 में क्योटो प्रोटोकाल के रूप में पड़ी. इस प्रोटोकाल के तहत सभी 141 देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर पर 5.5% कटौती करने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किया, जो विकसित देशों के लिए बाध्यकारी और विकासशील देशों के लिए बाध्यकारी नहीं था. यह 2005 से लागू हुआ और यह लक्ष्य 2012 तक पूरा करना था लेकिन अमेरिका समेत विकसित देशों के नकारात्मक रवैये की वजह से यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका. क्योटो संधि को आगे बढ़ाने के लिए कोपनहेगन में वर्ष 2009 में सभी देशों ने धरती का तापमान 1.5 डिग्री से अधिक न बढ़ने देने के लिए कदम उठाने की बात की, लेकिन अब तक कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए कोई बड़े प्रयास नहीं किए गये.
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क संधि के तहत पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते पर वर्ष 2015 में 195 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं. इसके तहत वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को दो डिग्री सेल्सियस तक नीचे लाने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सहमति बनी थी. यही नहीं इसके बाद पूर्व औद्योगिक स्तर से वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लाने की दिशा में कारवाई तेज करने की बात हुई है और 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 56 गीगाटन तक कम करने की बात है. अगर कार्बन उत्सर्जन में कोई कटौती न की जाय तो 2030 तक उत्सर्जन की मात्रा करीब 70 गीगाटन तक हो जाएगी. इससे दुनिया भर के पर्यावरणविद और विद्वानों का चिंतित होना लाजिमी है.
वर्ष 2016 के नवंबर में लागू पेरिस समझौते के तहत एक ग्रीन क्लाइमेट फंड बनना है, जिसकी मदद से हर साल गरीब और विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर दिए जाने हैं. मोरक्को में 2016 में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में निर्णय लिया गया था कि पेरिस समझौते को लागू करने के लिए नियमावली बना ली जाएगी और इसमें पारदर्शिता बरती जायेगी. लेकिन एक बार फिर से अमेरिका के बदले सुर से वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा की लड़ाई अधर में जाती दिख रही है.
एक बड़ा मुद्दा कार्बन क्रेडिट का भी है कि विकसित देश, अविकसित और विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीदकर विकास कर रहे हैं जबकि ऐसे देश विकास में विकसित देशों से और पिछड़ते जा रहे हैं. इससे एक तरह का नया उपनिवेशवाद फैल रहा है, कार्बन क्रेडिट का उपनिवेशवाद. जिन विकसित देशों को धरती के अधिकतम दोहन के लिए उसकी कीमत अविकसित और विकासशील देशों को अदा करनी चाहिए, वे उल्टे उनसे अपने विकास का बैनामा कराने में लगे हैं. विकसित देश जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने की बजाय, इसे विकासशील, अल्पविकसित और अविकसित देशों की ओर खिसकाना चाहते हैं.
(लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)