नई दिल्लीः जनवरी की उस सर्द रात को कई साल बीत गए हैं. उंगलियों पर गिनते चलें तो तकरीबन 31 साल. 19 जनवरी 1990 की उस रात वादी शहजादी कश्मीर घाटी चिल्ला कलां (कश्मीरी मौसम के सबसे सर्द 40 दिन) की चपेट में थी. आम दिन होते तो मजाल क्या कि आधी रात को परिंदे भी अपने घोसले से निकलने की हिमाकत करते, लेकिन उस रात घाटी में दहशत और आतंक ने मिलकर वो आग लगाई कि आदम की कई नस्लों तक उसकी तपिश बरकरार रहेगी. रातों-रात कश्मीरी पंडितों से उनके आंगन छूट गए, वे अपने घर द्वार से दूर कर दिए गए, उनकी महिलाएं अपनी इज्जत-आबरू से भी गईं और मिला क्या? सालों साल न्याय के नाम पर मजाक, क्रूर मजाक.
19 जनवरी इसी क्रूर मजाक को याद करने का दिन है. यह वही दिन है कि जब तारीखें भी उहापोह में थीं कि वह आगे बढ़ें या यहीं थम जाएं, लेकिन 19-20 जनवरी 1990 की रात को कश्मीरी पंडित बड़ी संख्या में बढ़े चले जा रहे थे. यह दिन लगभग 7,00,000 समुदाय सदस्यों में से प्रत्येक के दर्द को बयां करता है, जिन्होंने घाटी में आतंकवाद के अत्याचार का सामना किया.
क्या हुआ था उस रात?
घाटी में उस रात सबकुछ सामान्य नहीं था. हालांकि हालात बीते एक-दो साल से लगातार बिगड़ रहे थे, लेकिन एक शाम लोगों ने घरों के आगे, दुकानों पर और भी कई कई जगहों पर पर्चे चिपके देखे, लिखा था कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले जाएं. साफ धमकी दी गई थी, नहीं गए तो मारे जाओगे. इससे छह महीने पहले करीब 14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया. हत्यारे पकड़ में नहीं आए. ये कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी. इसके बाद संपत्ति हड़पने, मार देने-काट देने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो इसके साथ लूट-चोरी और दुष्कर्म तो आम हो गया.
ये सारी घटनाएं सिलसिलेवार तरीके से कश्मीरियों के अंदर डर बैठाने के लिए की जा रही थीं. नतीजा कि कश्मीरियत सिर्फ मुसलमानों की रह गई और पंडितों की कश्मीरियत भुला दी गई. अपने ही घर से बेघर कर दिए गए कश्मीरी पंडित देश के विभिन्न हिस्सों में गए, पहले तो अधिकांश जम्मू पहुंचे, कुछ पंजाब और बहुत बड़ा समूह देश की राजधानी दिल्ली पहुंचा. कश्मीरी पंडित जितने कदम लोकतंत्र के मंदिर की ओर बढ़ते गए, न्याय के साथ होने वाले मजाक का दायरा बढ़ता गया.
उनके सीने में आज तक यह कचोटता है कि तीन दशक बीत गए, सरकारें आईं-गईं, लेकिन उनके हिस्से का वाजिब फैसला कभी नहीं हो पाया. अगर आप सिर्फ पलायन के लिए न्याय की बात कह रहे हैं तो आप अधूरा न्याय मांग रहे हैं. क्योंकि न्याय तो चाहिए, हर एक खून के कतरे पर जो बहा, हर उस चीख पर जो दबा दी गई, न्याय चाहिए हर उस बदन को जिसके कपड़े चीथड़ों में तब्दील किए गए और हर उस हाथ को जिसकी कमाई रोजी लूट ली गई. न्याय उन तमाम आंखों को भी चाहिए जिनमें ममता, प्रेम और भावनाओं के कई आंसू सूख गए.
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हर संस्थान रहे विफल
ऐसा नहीं है कि न्याय की कभी कोशिश नहीं की गई, लेकिन वह कोशिश कभी पूरी नहीं की गई. वह बस राजनीतिक हित साधने की कोशिश रही. 1995 में, भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने अपने पूर्ण आयोग के फैसले में भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम. एम. वेंकटचलैया की अगुवाई में आतंकवादियों द्वारा नरसंहार के एक कृत्य के रूप में कश्मीरी पंडितों की व्यवस्थित जातीय सफाई आयोजित की. होना तो यह था कि इससे सरकार नरसंहार या जातीय सफाई की जांच के लिए एक जांच आयोग का गठन करने के लिए प्रेरित होती, लेकिन सरकार बहादुर ऐसा कोई समझ हासिल करने में नाकाम रहे.
आलम यह है कि अब 31 साल होने को आए हैं और कश्मीरी पंडित उच्चस्तरीय जांच आयोग की नियुक्ति की मांग कर रहे हैं, लेकिन केंद्र या राज्य की किसी भी सरकार के एजेंडे में ऐसा कुछ दिख ही नहीं रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने 24 जुलाई, 2017 को जम्मू-कश्मीर में 1990 और 2000 के दशक के शुरुआती दिनों में सैकड़ों पंडितों की हत्या की जांच की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 27 साल से अधिक समय बीत चुका है. कोई भी सार्थक उद्देश्य सामने नहीं आएगा क्योंकि देरी की वजह से सबूत उपलब्ध होने की संभावना नहीं है. न्याय के नाम पर इससे बड़ा और क्रूर मजाक क्या होगा.
कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय अब महज शब्दों में रह गया है. यह बस एक खूबसूरत शब्द है जो संविधान की प्रस्तावना में चार चांद जड़ देता है और राजनेताओं के शपथ ग्रहण की पंक्तियों का लालित्य बढ़ाता है. यह कभी किसी संस्थागत तरीके हासिल होगा, न्याय को लेकर ऐसी कोई उम्मीद कश्मीरी पंडितों में नहीं बची है. धर्म और जातीयता के घिनौने आधार पर एक समुदाय निशाना बनाया गया, लेकिन मानव अधिकारों का दंभ भरने वाले तमाम संगठन मौन रहे.
19 जनवरी इन्हीं विफलताओं की बरसी मनाने का दिन है. यह Law And Order को कमजोर मान लेने का दिन है क्योंकि 1989 के बाद से कश्मीर में समुदाय के खिलाफ सैकड़ों हत्याओं, दुष्कर्म, अपहरण, आगजनी और लूट की घटनाओं के लिए शायद ही कोई FIR दर्ज की गई हो. यह राजनीति को मृत मान लेने का दिन है क्योंकि अब्दुल्ला हों, मुफ्ती या अन्य, किसी ने कभी भी कश्मीर के अल्पसंख्यक, कश्मीरी पंडितों का मामला नहीं उठाया.
यह बहुसंख्यकों के मौका परस्त हो जाने की याद का भी दिन है कि कैसे वे आज तक इस मामले को लेकर शून्य स्तर का ही ज्ञान रखते हैं. 19 जनवरी उस दुखभरी याद का भी दिन है, जब मानव अधिकार पहले मर गए... कश्मीरी पंडित तो आज भी मर रहे हैं, न्याय की आस में घुट-घुट कर.
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