जोशीमठ: उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ नगर में भूधंसाव शुरू होने के कारण दरारें पड़ने से क्षतिग्रस्त हुए अपने घर को छोड़े भारती देवी को एक माह से ज्यादा का समय गुजर चुका है. करीब 75 साल की उम्र की देवी का आधा दिन अपने टूटे हुए घर के आसपास गुजरता है और आधा दिन तहसील कार्यालय में इस आशा में कटता है कि शायद सरकार की ओर से पुनर्वास को लेकर कोई सुखद खबर आ जाए. लेकिन, वह कहती है कि उनकी रातें काटे नहीं कटतीं.
कुछ इस तरह मुश्किलों में बीत रहा प्रभावितों का जीवन
कई पीढ़ियों की मेहनत से तैयार उनके सीढ़ीनुमा खेत भी भूंधसाव के चलते दरारों से पट गए हैं. सिंहधार इलाके में स्थित भारती देवी का परिवार उन आधा दर्जन परिवारों में शामिल है, जिनके मकान और खेत जनवरी में शुरू हुए भूधंसाव की जद में सबसे पहले आए. उन्होंने कहा, ‘‘दो जनवरी की रात मकान के नीचे की जमीन खिसकनी शुरू हुई और तीन जनवरी की सुबह होते-होते घर में टिके रहना मुश्किल हो गया था.
यह सबकुछ अचानक हुआ और थोडा-बहुत सामान समेट कर हमें घर के पास ही स्थित सरकारी प्राथमिक पाठशाला में शरण लेनी पड़ी. आसपास के लोगों ने भी यही किया.’’ उन्होंने बताया कि तब से वे लोग स्कूल में ही थे लेकिन अब एक फरवरी से स्कूल खुलने के बाद वे वहां से भी बेदखल कर दिए गए हैं और करीब एक किलोमीटर आगे सेना के खाली पड़े बैरक उनका नया आसरा बन गए हैं.
भारती देवी के घर से महज 10 मीटर की दूरी पर शिवलाल का मकान और खेत है, जिनमें भी दरारें ही दरारें हैं. मकान के नीचे बड़ा बोल्डर है जिस पर मकान टिका हुआ है. सेना के बैरकों में रात बिताने के बाद शिवलाल और उनकी पत्नी विश्वेश्वरी देवी अपने क्षतिग्रस्त घर और खेतों के पास आ जाते हैं. विश्वेश्वरी देवी दिन भर अपनी तीन गायों की देखरेख में लगी रहती हैं. उन्होंने कहा कि उनका जीना-मरना मवेशियों के साथ ही है और उनके मवेशियों के लिए भी आश्रयस्थल दिया जाना चाहिए. पशुपालन और खेतीबाड़ी ही इनकी आजीविका का मुख्य आधार था जिसे भूधंसाव ने नष्ट कर दिया.
विश्वेश्वरी देवी कहती हैं कि हादसे के बाद शिवलाल की दिनचर्या और मिजाज दोनों बदल गए हैं. उन्होंने कहा, ‘‘उसके खुशमिजाज पति अब गुमसुम रहते हैं. कभी तहसील तक चले जाते हैं और फिर लौटकर चुपचाप एक कोने में बैठ जाते हैं.’’ दो बेटों में से एक की कुछ समय पूर्व अचानक हुई मौत के बाद शिवलाल उसकी पत्नी और दो बच्चों के भविष्य को लेकर भी चिंतित हैं.
अपना घर होने के बावजूद राहत शिविरों में जीवन बताने को मजबूर लोग
ढाई दशक पहले सेना से सेवानिवृत्त होकर जोशीमठ में बसे पुष्कर सिंह बिष्ट भी उन लोगों में शामिल हैं जो पिछले एक महीने से राहत शिविरों में अपना जीवन बिता रहे हैं. संस्कृत विद्यालय के छात्रावास में बने अस्थायी राहत शिविर में परिवार के आठ सदस्यों के साथ एक कमरे में ठहरे पुष्कर सिंह ने बताया कि स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए दिन की शुरुआत किसी संघर्ष से कम नहीं हैं जहां उन्हें जल्दी उठकर नित्यकर्म के लिए स्नानागार और शौचालय की लंबी कतारों में लगना पड़ता है.
देवेश्वरी देवी, रजनी देवी सहित संस्कृत महाविद्यालय में रह रहे आपदा प्रभावित 26 से ज्यादा परिवारों की भी यही व्यथा है. उनका कहना है कि स्कूल खुलते ही पीड़ितों को वहां से बेदखल कर अन्य जगहों पर जाने को कहा गया और अब बदरीनाथ यात्रा शुरू होते ही उन्हें होटलों से भी बाहर किया जा सकता है. अधिकतर पीड़ित परिवारों का एक ही सवाल है कि एक महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है लकिन स्थायी पुनर्वास को लेकर कोई ठोस निर्णय अब तक नहीं आ पाया है. अधिकतर पीड़ित जोशीमठ के आसपास ही रहने की इच्छा जता रहे हैं लेकिन अनिर्णय की स्थिति के चलते चिंतित भी हैं. पुष्कर सिंह ने कहा कि जैसी तेजी जनवरी के पहले सप्ताह में दिखी थी, वैसी अब नहीं दिख रही है और मीडिया के जाते ही सरकारी अमला भी सुस्त पड़ता दिखायी दे रहा है.
नरसिंहवार्ड के 52 साल के अनिल नंबूरी का नरसिंह मंदिर के समीप तीन मंजिला पैतृक भवन है जो भूधंसाव से क्षतिग्रस्त हो गया है. नंबूरी ने कहा कि राहत के नाम पर डेढ़ लाख रुपये की धनराशि सभी कागजात जमा करवाने के बावजूद नहीं मिल पायी है. उन्होंने कहा कि परिवार के पास दूसरा मकान नहीं है. आपदा के कारण स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. सिंहधार इलाके में दरार वाले घरों से बमुश्किल 200 मीटर दूर स्थित प्राथमिक पाठशाला में आपदा से पहले 40 छात्र पढ़ा करते थे. लेकिन पहली फरवरी को स्कूल खुलने के बाद केवल 10 छात्र ही पहुंच पाये. विद्यालय की प्रधानाचार्य रेखा शाह ने कहा कि पिछले तीन दिनों से अनुपस्थित बच्चों के अभिवावकों से वह संपर्क कर रही हैं. हांलांकि, 10-12 बच्चों के अभिभावकों से संपर्क नहीं हो पाया है और संभव है कि शायद आपदा के बाद वे जोशीमठ से बाहर चले गए हों.
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