नई दिल्लीः आजाद भारत में पहली बार किसी महिला का फांसी की सजा दिए जाने के बाद एक बार फिर फांसी की सजा की वैधता-अवैधता को लेकर चर्चा का दौर जारी है. जहां दुनिया भर में फांसी की सजा खत्म किए जाने की मांग उठती रही है वहीं भारत सरकार कभी भी इसके पक्ष में नहीं रही है.
अमरोहा (उत्तर प्रदेश) की शबनम को फांसी दिए जाने की सुगबुगाहट के बीच यह बहस फिर से शुरू हो चुकी है. ऐसे में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के लिखे शब्दों पर भी ध्यान देने की जरूरत है जिसका उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है.
इसके पहले एक नजर शबनम के मामले पर
अप्रैल 2008 शबनम ने अपने ही परिवार को लोगों की हत्या कर दी थी. प्रेम-प्रसंग में हुए इस हत्याकांड में प्रेमी सलीम ने उसका साथ दिया था. शबनम को निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हर किसी ने सज़ा-ए-मौत मुकर्रर की.
इसके बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी उसकी दया याचिका को ठुकरा चुके हैं. ऐसे में मथुरा जेल में शबनम को फांसी के फंदे पर लटकाए जाने की तैयारियां जोरों पर हैं. यह वजह है कि देश में मौत की सजा पर चर्चा का दौर आम है.
दया याचिकाओं पर पूर्व राष्ट्रपति के मन की बात
भारत में रेयरेस्ट ऑफ रेयर (दुर्लभ से दुर्लभतम) मामलों में मौत की सजा दिए जाने का प्रावधान है. आतंकी घटनाओं में लिप्त, देशद्रोह और दुर्दांत अपराध के मामलों में सजा-ए -मौत साक्ष्यों के आधार पर दी जाती रही है. पिछले साल दुनिया को अलविदा कहने वाले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब द प्रेसिंडेंशियल इयर्स में मौत की सजा और दया याचिका को लेकर विस्तार से चर्चा की है.
प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में दया याचिकाओं को ठुकराने और उसके कानूनी और मानवीय पहलू के बारे में चर्चा करते हुए लिखा, मुझे दया याचिकाओं को ठुकराने में किसी भी तरह का दुख नहीं हुआ.
मुझे मालूम था कि अब किसी का जीवन मेरे हाथ में है: प्रणब मुखर्जी
उन्होंने अपनी आखिरी किताब में लिखा, जिन मामलों में निचली अदालतों ने आरोपियों को मौत की सजा दी और आगे चलकर उच्च और सर्वोच्च अदालतों ने उसे बरकरार रखा था. निचली अदालत या ट्रायल कोर्ट का निर्णय इस पर निर्भर कर सकता है कि जज ने क्या देखा, लेकिन हाई कोर्ट कानूनी प्रावधानों के आधार पर निर्णय देता है.
इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय सुनाने से पहले उस मामले के हर पहलू पर गौर करता है और जब आरोपी के बाद जब सभी कानूनी प्रावधान खत्म हो जाते हैं उसके बाद वो राष्ट्रपति के सामने क्षमा याचिका दायर करता है.
जब ऐसे मामलों में राष्ट्रपति की भूमिका के आती है तब लोग मानवीय पहलुओं को उठाते हैं. मैं इस बात से अच्छी तरह वाकिफ था कि आरोपी के सामने आशा की अंतिम किरण हूं और उसका जीवन अब मेरे हाथ में है.
अधिकतम तीन सप्ताह में किया अंतिम फैसला
अपने कार्यकाल में प्रणब दा ने 30 दया याचिकाओं को खारिज किया जिसमें 40 लोगों का सजा-ए-मौत दी गई थी. डॉ अब्दुल कलाम ने मुश्किल से किसी दया याचिका पर फैसला सुनाया. जबकि प्रतिभा पाटिल ने बेहद कम दया याचिकाओं के बारे में निर्णय किए.
एक सप्ताह से ज्यादा समय तक दया याचिका की फाइल को पढ़ने में लेते थे उसके बाद निर्णय लेते थे. प्रणब मुर्खजी ने किसी भी याचिका के बारे में अंतिम निर्णय के लिए तीन सप्ताह से अधिक वक्त नहीं लिया.
दया याचिकाओं के फैसले पर नहीं आती थी नींद
साल 2000, 2004 और 2005 के मामलों में दया याचिकाओं पर प्रणब मुखर्जी ने फैसले दिए. उनका मानना था कि इन फाइलों को पेंडिंग रखने की कोई वजह ही नहीं थी. किसी भी तरह उन याचिकाओं के बारे में निर्णय तो होना था मैंने ये जिम्मा अपने कंधों पर उठा लिया.
दया याचिकाओं के बारे में निर्णय करते वक्त कई बार रातों को नींद नहीं आती थी. एक बार निर्णय करने के बाद मेरे लिए मामला पूरी तरह खत्म हो जाता था. इसके बाद उस मामले में क्या हो रहा है उस पर वो ज्यादा गौर नहीं करते थे.
दया याचिकाओं में निर्णय का मुखर्जी फॉर्मूला
मुखर्जी ने अपनी किताब में लिखा, मैं ये नहीं कहूंगा कि मेरे उत्तराधिकारी दया याचिकाओं के बारे में निर्णय के लिए मेरे पदचिन्हों पर चलें. दया याचिकाओं के बारे में निर्णय करते समय मैं मुख्य रूप से तीन पहलुओं पर गौर करता था. पहला मामले की प्रकृति में क्रूरता और बेदर्दी नज़र आती हो और मामला रेयरेस्ट और रेयर कैटेगरी का हो.
दूसरा निचली अदालत द्वारा दी गई फांसी की सजा को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने बगैर किसी असहमति के बरकरार रखा हो. यानी एक मत से सभी सजा-ए-मौत दिए जाने के पक्षधर हों.
तीसरा सरकार ने दया याचिका को नकारने के पक्ष में अपनी राय रखी हो. अगर कोई मामला इन तीन कसौटियों पर पूरी तरह खरा उतरता हो तो राष्ट्रपति को उस दया याचिकाओं को खारिज करने में कतई संकोच नहीं करना चाहिए.
मैंने बतौर राष्ट्रपति दया याचिकाओं के संबंध में फैसला करते हुए तीन मापदंडों के आधार पर अंतिम निर्णय किया.
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लॉ कमीशन ने की थी सजा-ए-मौत को खत्म करने की सिफारिश
अगस्त 2015 में लॉ कमीशन ने सरकार को सौंपी एक रिपोर्ट में आतंकवाद और देशद्रोह के मामलों को छोड़कर अन्य सभी में फांसी की सजा के प्रावधान को खत्म कर देना चाहिए. भारत सरकार ने साल 2007 और 2012 में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के खिलाफ वोट दिया था जिसमें मौत की सजा के प्रावधान को पूरी दुनिया से समाप्त किए जाने की बात कही गई थी.
शायद किसी भविष्य में ऐसा हो, लेकिन अभी फिलहाल तो इस बारे में किसी भी एक निर्णय की दिशा में कोई कदम बढ़ रहे हैं, ऐसे आसार तो बिल्कुल नहीं लग रहे हैं.
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