कोरोना के बाद विकसित देशों में तबाही का दूसरा दौर, क्या भारत को मिल पाएगा फायदा?

यूरोप,अमेरिका,रूस जैसे दुनिया के शक्ति केन्द्र माने जाने वाले देश कोरोना वायरस के कारण बर्बाद हो रहे हैं. लेकिन प्रकृति इतने पर ही शांत होती नहीं दिख रही. बल्कि इन विकसित देशों पर एक और संकट मंडरा रहा है, जो कोरोना से भी ज्यादा घातक है. लेकिन भारत पर इसका असर बेहद कम रहेगा.    

Written by - Anshuman Anand | Last Updated : May 20, 2020, 07:41 PM IST
    • दुनिया के देशों पर मंडराने लगा दूसरे तरह का खतरा
    • कोरोना वायरस के बाद अंतरिक्ष से आ रहा है संकट
    • सोलर मिनिमम से दुनिया के ठंडे देशों में तबाही
    • ठंड का मौसम ज्यादा सर्द और लंबे समय तक चलेगा
    • बर्बाद हो जाएंगे दुनिया के ज्यादातर विकसित देश
    • सोलर मिनिमम से भूकंप और ज्वालामुखी फटने का भी खतरा
    • भारत जैसे गर्म देशों पर कम होगा असर
    • क्या दुनिया के शीर्ष पर भारत को पहुंचाने के लिए प्रकृति ने बनाई है योजना
कोरोना के बाद विकसित देशों में तबाही का दूसरा दौर, क्या भारत को मिल पाएगा फायदा?

नई दिल्ली: प्रकृति ने दुनिया में शक्ति का संतुलन बदलना शुरू कर दिया है. यूरोप, अमेरिका, रूस, चीन जैसे दुनिया के शक्ति के केंद्र जाने वाले देशों में पहले तो कोरोना वायरस ने लाशों का अंबार लगा दिया. उसके बाद अब अंतरिक्ष से उनपर आफत आने वाली है. 


भीषण ठंड का सामना करेगी पूरी दुनिया
अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारा सूरज एक खास प्रक्रिया से गुजर रहा है. जिसे सोलर मिनिमम कहते हैं. इस प्रक्रिया के तरह सूरज पर बनने वाले सन स्पॉट का निर्माण बंद हो गया है और सूरज का मैग्नेटिक फील्ड भी कमजोर पड़ता जा रहा है. यही कारण है कि हमारे सोलर सिस्टम में अतिरिक्त कॉस्मिक किरणों का प्रवेश हो रहा है. 


साल 2020 में पिछले पांच महीने से सूरज में कोई भी नया सन स्पॉट दिखाई नहीं दिया है. इनकी संख्या सूरज में गिरकर 76 फीसदी रह गई है. जबकि  साल 2019 में यह 77 प्रतिशत था. सन स्पॉट ही सूरज को गरम बनाए रखते हैं. इनकी कमी होने की वजह से सूरज ठंडा हो रहा है. जिसकी वजह से धरती पर भीषण ठंड का दौर लौट सकता है. 
दुनिया के विकसित देशों के जम जाने का खतरा
सोलर मिनिमम यानी सूरज के तापमान के कम होने से दुनिया के विकसित कहे जाने वाले देशों को ज्यादा खतरा है. क्योंकि वहां ठंड ज्यादा पड़ती है.

 
उदाहरण के तौर पर-
अमेरिका के न्यूयॉर्क, शिकागो और लॉस एंजिल्स जैसे देशों में सर्दियों के दौरान पारा आम समय में ही माइनस में चला जाता है. साल 2019 की सर्दियों में न्यूयॉर्क का तापमान -17 डिग्री, शिकागो का तापमान -23 डिग्री और लॉस एंजिल्स का तापमान -3 डिग्री हो गया था.


वहीं यूरोप के ज्यादातर देशों में भी सर्दियां बेहद ठंडी होती हैं. सर्दियों के दौरान लंदन का तापमान 2 से 8 डिग्री के बीच रहता है. वहीं पूरे यूरोप का तापमान 1 डिग्री से 8 डिग्री के बीच रहता है. वहीं रुस में सर्दियों का तापमान -3 से -7 डिग्री के बीच चला जाता है.  


यानी अगर सूरज का तापमान में गिरावट आती है. तो अमेरिका, यूरोप और रुस जैसे देशों में सर्दियां लंबी और जानलेवा हो जाएंगी. इन सभी देशों में कोरोना वायरस के कारण ऐसे ही तबाही मची हुई है. स्पेन, इटली, अमेरिका के बाद कोरोना की दस्तक रूस में भी शुरु हो गई है. ऐसे में कोरोना के कहर के ठीक बाद अगर इन देशों में सर्दी का सितम शुरु हो जाता है तो भारी तबाही होगी. 
ऐसे दुर्दिन देख चुका है यूरोप 
यूरोप में साल 1790 से 1830 के बीच सोलर मिनिमम तबाही मचा चुका है. उस समय तापमान इतना ज्यादा गिर गया था कि जुलाई महीने में भी बर्फबारी होती थी. टेम्स नदी पूरी तरह जमी हुई दिखाई देती थी. फसलें खराब होने से भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई थी. अनाज की कमी होने की वजह से भोजन के लिए दंगे होने लगे थे. महीनों तक सूरज दिखाई ही नहीं देता था. इस स्थिति को डाल्टन मिनिमम का नाम दिया गया था. इस बार फिर से यूरोप और अमेरिका में वैसी ही दुर्गति होने की आशंका है. 


सबसे बुरा तो ये है कि दुनिया के इन विकसित देशों के पास संभलने का भी वक्त नहीं है. क्योंकि ये सभी देश कोरोना वायरस से जूझने में लगे हुए हैं. इन हालातों में अगर तुरंत बाद ठंड का दौर शुरु हो गया तो वहां भीषण तबाही होगी. 
सोलर मिनिमम के कहर से चीन भी बचने वाला नहीं है. क्योंकि चीन का हार्बिन हेइलोंगजियांग प्रांत दुनिया का पांचवां सबसे ठंडा इलाका है. मंगोलिया से लगा हुआ चीन का एक बड़ा हिस्सा बेहद ठंडा होता है.   
कई तरह की बर्बादियां कर रही हैं दुनिया का इंतजार
सोलर मिनिमम केवल ठंड ही नहीं लाता है. बल्कि कई दूसरे तरह की प्रलय का कारण भी बनता है. दरअसल इस दौरान सूरज का मैग्नेटिक फील्ड कमजोर हो जाता है. जिसकी वजह से सौरमंडल के दूसरे हिस्सों से कॉस्मिक किरणें हमारे सोलर सिस्टम में आने लगती हैं. इनकी वजह से भूगर्भ में बदलाव आने लगते हैंं और ये दुनिया में ज्वालामुखी विस्फोट का भी कारण बन सकते हैं. 


200 साल पहले हुए सोलर मिनिमम के दौरान 10 अप्रैल 1815 को इंडोनेशिया के माउंट टंबोरा में भीषण ज्लावामुखी विस्फोट हुआ था. जिसकी वजह से उस समय 71 हजार लोग मारे गए थे. इस दौरान इतनी राख उड़ी थी कि कई हफ्तों तक आसमान में छाई रही और फसलों की बर्बादी का कारण बनी.

इस बार ज्यादा तबाही की आशंका
वैसे तो सोलर मिनिमम एक सौरमंडलीय प्रक्रिया है. यह हर 11 साल के बाद रिपीट होती है. लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि इस बार आने वाली सोलर मिनिमम की प्रक्रिया ज्यादा घातक साबित होने वाली है. क्योंकि इस बार सन स्पॉट की संख्या बेहद कम हो गई है और कॉस्मिक किरणों का प्रवेश ज्यादा हो गया है. इसके कारण इस बार का सोलर मिनिमम हर 11 साल की साधारण प्रक्रिया नहीं रह गई है. बल्कि यह 1790 से 1830 के डाल्टन मिनिमम की तरह ज्यादा घातक साबित हो सकता है. 
भारत के लिए दुनिया पर छा जाने का मौका
सोलर मिनिमम से दुनिया का हर विकसित देश प्रभावित होने वाला है. लेकिन विषुवत रेखा के पास बसे उष्णकटिबंधीय देशों पर इसका ज्यादा असर दिखाई नहीं देखा. क्योंकि धरती के बीचोबीच स्थित होने के कारण इन देशों में पहले से ही भीषण गर्मी पड़ती है. ऐसे में अगर सूरज के तापमान में कमी भी हुई तो यहां मौसम सुहावना बना रहेगा. इसमें भारत और अफ्रीका के देश शामिल हैं. 


हो सकता है कि यहां पर सर्दियों की अवधि थोड़ी ज्यादा हो जाए और गर्मियों के दौरान तापमान कम रहे. लेकिन इससे फसलों की बुवाई और जीवन चक्र पर बहुत ज्यादा असर दिखाई नहीं देगा. बल्कि मौसम और ज्यादा खुशगवार हो जाएगा. कृषि उत्पादन में वृद्धि ही होगी, कमी होने की आशंका न्यूनतम है. अगर यूरोप, अमेरिका, रूस और चीन जैसे देश सोलर मिनिमम से प्रभावित होते हैं तो उनकी जगह लेने के लिए अफ्रीका का कोई देश सामने नहीं आ सकता. ये क्षमता सिर्फ भारत में ही है. 


इसलिए सोलर मिनिमम की वजह से दुनिया के शक्ति संतुलन में होने वाले बदलाव में भारत के फायदे की स्थिति में रहने की उम्मीद है.   

 

 

 

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