कोलकाताः केंद्रीय मंत्री Amit Shah रविवार को पं. बंगाल के दौरे पर हैं. उनके दौरे का यह दूसरा दिन है. इस दौरान शाह दोपहर का भोजन एक बाउल गायक के घर किया. बासुदेब दास ने Amit Shah की मेजबानी की. इस तरह से शाह ने बंगाल की संस्कृति के हृदय को छुआ. बाउल पं. बंगाल की विरासत है.
यह गान खुद में एक धर्म है और सदियों तक इस बाउल परंपरा ने लोगों को सहिष्णु बनाने, उनमें मानवता का विकास करने और जीवन का मर्म समझाने का कार्य किया है. आज उसी विरासत की चौखट पर Amit Shah पहुंचेंगे और खुद को धन्य करेंगे.
बाउल संस्कृति पर नजर
इसी बहाने बाउल संस्कृति पर एक नजर डालते हैं तो आज के आधुनिक युग के पीछे बाउल (baul) के सोने सा चमकता इतिहास नजर आएगा. हाथ में खड़ताल या एकतारा, पीले-नारंगी वस्त्र और मुख में हरि कीर्तन और ऊंची लयबद्ध आवाज में टेर. शब्दों में गुनें और छोटे में समझें तो यही है बाउल की पहचान.
कई बार इनके भजनों में निर्गुण की धारा भी सुनाई देती रही है. बंगाल में जहां बाउल गायक रहते है उस स्थान को आखरा या आखरा आश्रम कहते हैं.
ऐसे होते हैं बाउल
बाउल ऐसे गायक होते हैं, जो कभी भी अपना जीवन एक-दो दिन से ज्यादा एक स्थान पर व्यतीत नहीं करते हैं. गांव-गांव जाकर भगवान विष्णु के भजन एवं लोक गीत गाकर और भिक्षाटन आदि के जरिए जीवन यापन ही इनके हिस्से रहा है. हालांकि यह जरूरी नहीं कि वह भजन गाकर भिक्षा ही मांगे, बल्कि बाउल एक चलता-फिरता गुरु भी होता था.
स्वामी विवेकानंद ने अपने संस्मरणों में बाउल को शिक्षक बताया है. वह कहते हैं कि पं. बंगाल की बाउल परंपरा वह व्यावहारिक गुरुकुल है जो अन्जाने ही आपको अंधकार के पथ से निकाल सकता है.
यहां से हुआ बाउल का आरंभ
कहते हैं कि बाउल गायन का आरंभ बंगाल में केन्दुली से हुआ. आज यह स्थान जिला वीरभूम के अंर्तगत आता है. इसे अब बंगाल के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं कवि जयदेव केन्दुली के नाम से जाना जाता है. यहां अजय नदी के किनारे संसार प्रसिद्ध केंदुली मेला लगता है.
जयदेव मन्दिर के बगल में लगने वाला केदुली मेला (जयदेव मेला ) 14 दिन के लिए लगता है. इसमें सभी बाउल भाग लेने के लिए आते हैं. यह पौष संक्रान्ति के दिन शुरू होता है और इस महान मेले के तीन दिन प्रमुखता से बाउल गायन होते हैं.
वह बाउल गायक, जिनके मुरीद थे गुरुदेव रबीन्द्र
लालन फकीर, बांग्लादेश के प्रसिद्ध बाउल गायक हुए हैं. गुरुदेव रबींद्र भी उनके मुरीदों में से एक थे. लालन फकीर ने अपने बाउल को सिर्फ सखी-पिया और परमसत्ता के लिए ही नहीं लिखा, बल्कि उनके बाउल इतने क्रांतिकारे थे कि जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता की चूलें हिला दी थीं.
वही जमींदारों को विशुद्ध चेतावनी देते थे. उनके बाउल ने लोगों को क्रांतिकारी बना दिया. इतना के बंगाल के आस-पास के ग्रामीण आदिवासी जल-जंगल-जमीन के लिए एकजुट हो गए. मातृभूमि की लड़ाई के लिए आगे आ गए. टैगोर ने भी बाउल गीत लिखे हैं.
अमित शाह का जाना क्यों महत्वपूर्ण
सियासी कार्यक्रम से इतर बाउल गायक के घर भोज... यह फैसला विरोधियों-विपक्षियों को आश्चर्य में डाल सकता है, लेकिन भारत की संस्कृति को समझने वालों के लिए नहीं. कलाकार, शिक्षक, लोकशैली के लोग समाज के सूत्रधार होते हैं. यह एक तरीके से विभिन्न वर्गों में बंटे समाज को जोड़ने का काम करते हैं.
युगों पहले श्रीराम ने भी यही किया. वन गमन के दौरान वह निषाद राज से भी मिले, माता शबरी से भी और अगस्त्य ऋषि जैसे महान वैज्ञानिक तपस्वी से भी. खुद श्रीकृष्ण ने अर्जुन और भीम को वनवास का समय समाज के प्रत्येक वर्ग से मिलकर व्यतीत करने को कहा था. युधिष्ठिर हर एकादशी को ऋषि सत्संग करते थे.
राजनीति के अखाड़े से पहले आखरा
पं, बंगाल में बाउल संस्कृति से परिचय करना भाजपा के लिए राजनीतिक लिहाज से भी लाभकारी होगा. बाउल, पंजाब के दरवेश, सूफी और उत्तर प्रदेश के संत जैसा ही होता है. यह एक तरीके से समाज को साधने की बात है. अब देखते हैं कि पं. बंगाल के राजनीतिक अखाड़े से पहले आखरा में उतरना BJP के लिए कितना फायदेमंद साबित होता है.
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