नई दिल्ली: भारतीय इतिहास (Indian History) की किताबों को पढ़ें तो लगता है कि मुगलों (Mughals) से बड़ा ना तो कोई राजा था और ना ही योद्धा. लेकिन यह मिथक जानबूझकर गढ़ा गया है. सच्चाई तो ये है कि मुगल कभी पूरे भारत पर कब्जा नहीं कर पाए थे. शिवाजी (Veer Shivaji) की तरह कई स्वतंत्रता सेनानियों ने इन मजहबी कट्टरपंथियों की पूरी फौज बर्बाद कर दी थी.
ऐसे ही अमर सेनानी थे लचित बोरफुकन. जिनके जन्मदिन पर आज भी 24 नवंबर को लाचित दिवस के नाम से जाना जाता है. राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) में लाचित बोरफुकन के नाम से बेस्ट कैडेट गोल्ड मेडल भी दिया जाता है, जिसे 'लाचित मेडल' कहा जाता है.
लाचित के नाम से मुगलों के प्राण कांपते थे
वीर सेनानी लाचित का जन्म साल 24 नवंबर1622 को हुआ था. बोरफुकन उनकी पदवी थी, जिसका मतलब है सेनापति. लाचित जमीन से जुड़े योद्धा थे. उनका जन्म भले ही असम में सत्तासीन अहोम राजवंश से जुड़े एक बड़े सामंत के घर हुआ था. लेकिन उन्हें अपने सामान्य सैनिकों के साथ भोजन करने या उठने बैठने में कोई परहेज नहीं था. यही वजह था कि लाचित के सिपाही उनकी एक आवाज पर जान देने के लिए तैयार रहते थे.
उनके सेनापतित्व में आहोम सैनिकों का मनोबल बेहद ऊंचा रहता था. यही कारण था कि वह मुगलों जैसे दुश्मनों के लिए साक्षात् काल साबित होते थे.
सराईघाट में साल 1671 में हुए युद्ध ने लाचित बोरफुकन का नाम अमर कर दिया. उनकी वजह से धर्मांध औरंगजेब का असम पर कब्जे का सपना हमेशा के लिए टूट गया.
बेमिसाल थी भूमिपुत्र लाचित की रणनीति
लोचित के गैरहाजिरी में साल 1662 में मुगलों ने आहोम साम्राज्य का राजधानी गुवाहाटी पर कब्जा कर लिया था. उन्होंने तत्कालीन आहोम सम्राट जयध्वज को अपमानजनक शर्तें मानने के लिए विवश कर दिया. उनकी भतीजी और बेटी को मुगल हरम का हिस्सा बना दिया गया. जिसके खिलाफ पूरे असम में क्रोध की लहर दौड़ गई. पांच ही सालों में मुगलों को असम से बाहर भगा दिया गया.
लेकिन औरंगजेब ने प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न असम को जीतने के लिए फिर से एक विशाल सेना भेजी. जिसमें 30,000 पैदल सैनिक, 15,000 तीरंदाज, 18,000 घुड़सवार, 5,000 बंदूकची और 1,000 से अधिक तोपों के अलावा युद्धपोतों का एक विशाल बेड़ा था.
इस सेना का मुकाबला करने के लिए सेनापति लोचित ने कमान संभाली. उन्होंने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई. 1669-70 के बीच मुगल सेना और आहोम सैनिकों के बीच कई झड़पें हुईं. जिसका कोई परिणाम नहीं निकला. इसके बाद सन् 1671 का साल आया. जब निर्णायक युद्ध हुआ.
बेहद कम सिपाहियों के बल पर लाचित ने जीता युद्ध
मुगलों की विशाल फौज के सामने आहोम सैनिकों की संख्या बेहद कम थी. छापामार युद्ध से तंग आकर मुगलों ने पूरी ताकत से हमला करने का फैसला किया. मुगलों ने अपने बड़े युद्धपोतों के जरिए ब्रह्मपुत्र नदी को पार करने का फैसला किया. भीषण युद्ध शुरु हो गया. दुर्भाग्य से इस निर्णायक युद्ध के पहले लाचित बीमार पड़ गए.
लाचित की अनुपस्थिति में उनके सैनिकों का मनोबल टूटता जा रहा था. जिसे देखते हुए बुखार से तपते लाचित ने अपने मनोबल का इकट्ठा किया और युद्धभूमि में उतर आए. उनके सामने आते ही गाजर मूली की तरह मारे जा रहे आहोम सैनिक शेर की तरह गरजने लगे और मुगल फौज पर करारी चोट पड़नी शुरु हो गई.
लाचित ने सिर्फ 7 छोटी नौकाओं में भरे अपने सैनिकों के साथ मुगलों की विशाल फौज पर हमला किया. जिसके बाद उनकी पूरी फौज बिखर गई. 4000 मुगल सैनिक मार डाले गए. उनकी नावें और भारी तोपें ब्रह्मपुत्र में डुबा दी गईं. जहाज नष्ट कर दिए गए. विशाल मुगल फौज तितर बितर हो गई. इस भीषण पराजय का नतीजा ये रहा कि मुगलों की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह पूर्वोत्तर की तरफ अपनी गंदी निगाहें डाल पाएं.
जरा याद करो कुर्बानी
लाचित बोरफुकन के लिए सराईघाट का युद्ध जीवन और मरण का प्रश्न था. वह बुरी तरह बीमार थे. लेकिन उन्होंने अपने सिपाहियों को अकेला नहीं छोड़ा. उनके कुशल नेतृत्व और युद्धनीति का परिणाम ये रहा कि मुगल ब्रह्मपुत्र नदी पार ही नहीं कर पाए. आहोम सेना ने ब्रह्मपुत्र के अथाह पानी के बीच मुगलों पर आगे- पीछे दोनों तरफ से हमला किया. मुग़ल सेना का कमांडर मुन्व्वर ख़ान मारा गया. औरंगजेब की कट्टरपंथी फौज कुत्ते की मौत मारी गई.
लेकिन लोचित बोरफुकन भी जीवित नहीं रहे. युद्ध के घावों से तो वह बच गए. लेकिन बीमारी की हालत में जल युद्ध के कारण उनकी सेहत बुरी तरह बिगड़ गई. जिसकी वजह से उनका देहांत हो गया.
लेकिन उनका जीवन आज भी प्रेरणा का स्रोत है. असम सरकार ने साल 2000 में लाचित बोरपुखान अवॉर्ड देना शुरु किया. उनके जन्मदिन 24 नवंबर को ‘लाचित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. असम में उनकी प्रतिमाएं लगी हुई हैं.
लेकिन लाचित बोरफुकन की वीरगाथा हमारी इतिहास की किताबों से गायब हैं. क्योंकि मुगलों को महान और अपराजेय बताने के लिए मजहबी कट्टरपंथी और वामपंथी इतिहासकारों ने उनकी बहादुरी को नजरअंदाज कर दिया.
लेकिन यह नया भारत है. यहां वामपंथी झूठ नहीं चलता. सोशल मीडिया की क्रांति के इस दौर में कुछ भी छिप नहीं सकता. लाचित बोरफुकन पर पूरे देश को गर्व रहेगा.
जय भारत - जय भारती
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