नई दिल्लीः सनातन परंपरा में यज्ञ-हवन करते हुए सबसे पहले दीप जलाने की जरूरत बताई जाती है. हर रोज घरों में होने वाली पूजा में भी सबसे पहले आरती जलाई जाती है और पूजा के अंत में सभी आरती को नमन करते हैं. आखिर क्या है आरती का महत्व? क्यों सनातन परंपरा अग्नि के इस स्वरूप को अपनाने पर बल देती है?
दरअसल ज्योति सिर्फ रुई की बाती में लगी अग्नि ही नहीं है, बल्कि यह एक नए दिन की शुरुआत की आध्यात्मिक घोषणा है. जब सूर्य उदित होता है तब दीपक की बाती उन्हें इस बात की तसल्ली देती है कि जब रात का अंधकार था तो भी उनका स्वरूप इस ज्योति के रूप में प्रकाश मान था.
आदिम समाज से है अग्नि की मान्यता
दरअसल, आरती की परंपरा का विकसित होना, मानव इतिहास के विकास के क्रम की कहानी कहता है. अग्नि वह तत्व है जिसकी खोज मानव ने सबसे पहले की. आदिम स्वरूप में कभी किसी जंगल में पेड़ों की दो टहनियां टकराईं तो अग्नि उत्पन्न हुई, दो पत्थर घिसे गए तो आग को उत्पन्न करना सीखा गया.
फिर जब मानव ने अग्नि को उत्पन्न करना सीख लिया तब वह विकास की ओर बढ़ता चला गया. उसके सारे अंधेरे इसी अग्नि के कारण छंट गए. सामने था तो केवल प्रकाश मान भविष्य. आरती का जलाना उसी प्राचीन अग्नि को कृतज्ञता देना भी है जो आज तक के हमारे विकास की साक्षी और सहयोगी रही है.
वेदों ने गाई है अग्नि की महिमा
भारतीय समाज दुनिया के और समाजों से पहले सभ्य हो गया तो यहां की संस्कृति ने प्रकृति के स्पष्ट स्वरूप को सबसे पहले पहचाना. वेदों की ऋचाओं ने अग्नि और जल दोनों को देव माना और सबसे पहले इनकी वंदना की. ऋग्वेद की ऋचाओं में अग्नि वर्णन और इसकी आराधना के मंत्र हैं तो वहीं यजुर्वेद यज्ञकर्म पर आधारित है जो अग्नि की वृहद पूजा का स्तर है.
वृहदारण्यक उपनिषद में एक सूक्ति है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. यानी कि हे परमात्मा, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. अंधकार यानी कि रोग, अविद्या, अज्ञानता, भय और शोक के रूप में हमें चारों ओर से घेर लेने वाला शत्रु. दीपक की ज्योति हमें इन सबसे दूर करती है. नकारात्मक ऊर्जा का नाश करती है.
सृजन का प्रतीक है दीप जलाना
दीपक की ज्योति नए सृजन का भी प्रतीक है. मंत्र में कहा जाता है दीप ज्योति परं ज्योति, दीप ज्योति जनार्दनः, इस मंत्र के साथ दीप जलाकर कामना की जाती है कि हम अमुक कार्य (किसी भी कार्य का संकल्प) कर रहे हैं उसका शुभारंभ कर रहे हैं. दीप के जलते ही यह गणपति का आह्वान होता है कि वह आकर कार्य को सफल रूप से संपादित करते रहे हैं.
महाभारत में एक प्रसंग है. जब महामुनि व्यास भगवान गणेश से महाभारत लिखवा रहे थे तो इस दौरान गुफा में एक दीप भी लगातार जल रहा था. पूरे लेखन के दौरान गणपति मौन रहे और दीपक निरंतर जलता रहा. महामुनि व्यास ने कहा- मैंने इतने सारे श्लोक बोले, लेकिन आपको कभी बोलने के लिए विचलित नहीं देखा, ऐसा कैसे. तब श्रीगणेश ने पहली बार कुछ कहा और बोले,
भगवान गणेश ने बताई दीपक व अग्नि की महत्ता
यह दीपक देख रहे हैं महामुनि. पूरे लेखन के दौरान यह कई बार हवा से कांपा, कभी तेल कम होने से मंद पड़ गया, लेकिन हर अवस्था में अपने प्रकाश देने का उद्देश्य नहीं भूला. मनुष्य को सृजन की प्रेरणा दीपक से लेनी चाहिए. इसके बाद गणपित ने मौन और प्रकाश की व्याख्या की.
दीपक का जलना सूर्य व अग्नि को साक्षी मानकर उन्हीं के समान परमार्थ में लगे रहने का संकल्प भी है. देवताओं को दीप समर्पित करते समय भी ‘त्रैलोक्य तिमिरापहम्’ कहा जाता है, अर्थात दीप के समर्पण का उद्देश्य तीनों लोकों में अंधेरे का नाश करना ही है.
ईश्वरीय सत्ता भी ज्योतिस्वरूपा है
मान्यता है कि अग्नि की ऊर्जा सृष्टि में तीन रूपों में दिखाई देती है. यह ब्रह्मांड में विद्युत है. ग्रहमंडल में सूर्य है और पृथ्वी पर ज्वाला है. एक सूक्ति ‘सूर्याशं संभवो दीप:’ में कहा गया है कि दीपक की उत्पत्ति सूर्य के अंश से हुई है. इसलिए दीपक का प्रकाश इतना पवित्र है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है.
सूर्य की उत्पत्ति स्वयं परमात्मा के नेत्रों की ज्योति से हुई है. इसलिए आरती जलाते हुए यह भाव भी मन में आता है कि यह जलने वाली ज्योति महज अग्नि नहीं बल्कि परमात्मा का प्रकट होना है. यही ज्योति हमें सन्मार्ग की ओर प्रेरित करेगी. सही दिशा प्रदान करेगी.
यही वजह है कि सनातन परंपरा सुबह-शाम दीपक जलाने की परंपरा की कवायद करती है. इसी के साथ कामना करती है कि दीपक की ज्योति हर पाप को हर ले, सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे.
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