World War 3: मुस्लिम देशों को मोहरा बनाकर लड़वाने की फिराक में चीन और अमेरिका

चीन और अमेरिका हालात-ए-जंग में हैं. दुनिया की इन दोनों महाशक्तियों के बीच कशीदगी बहुत ज्यादा बढ़ गई है. लेकिन जंग शुरु करने की हिम्मत दोनो ही नहीं कर पा रहे हैं. शायद इसीलिए हमेशा की तरह मुस्लिम दुनिया को जंग का मैदान बनाने की तैयारी हो रही है.    

Written by - Anshuman Anand | Last Updated : Oct 14, 2020, 09:45 AM IST
    • संघर्ष की तरफ बढ़ रहे हैं मुस्लिम देश
    • तुर्की और अरब में बढ़ गई तनातनी
    • अमेरिका और चीन मुस्लिम देशों के संघर्ष को हवा दे रहे हैं
World War 3: मुस्लिम देशों को मोहरा बनाकर लड़वाने की फिराक में चीन और अमेरिका

नई दिल्ली: कोरोना वायरस (Corona Virus) संक्रमण की वजह से पूरी दुनिया में तनातनी का माहौल है.  चीन (China) की करतूतों के बाद विश्व में ड्रैगन के खिलाफ गुस्से की लहर है.  अमेरिका और यूरोपीय देश (America and Europe) चीन के खिलाफ लामबंद हो चुके हैं. भारत भी उनके साथ खड़ा है. लेकिन कोई भी समझदार देश सीधे संघर्ष में उलझना नहीं चाहता. क्योंकि युद्ध में मानवीय जान और अर्थव्यवस्था दोनों की भारी हानि होती है.

इसीलिए दुनिया के दो विरोधी खेमों यानी चीन और अमेरिका ने अपनी दुश्मनी की बंदूक की मुस्लिम देशों (Muslim World) के कंधों पर रखने का फैसला किया है. 
दो धड़ों में बंटी दुनिया
पिछले दो विश्वयुद्ध के दौरान हमने देखा है कि कैसे पूरी दुनिया के देश दो धड़ों में बंट गई थी. ठीक वैसी ही स्थिति अभी भी दिखाई दे रही है. दुनिया एक बार फिर दो हिस्सों में बंटी हुई दिखाई दे रही है. 
एक तरफ अमेरिका, यूरोप और भारत जैसे संसार के सभी लोकतांत्रिक और सभ्य देश खड़े हैं. दूसरी तरफ चीन, तुर्की, पाकिस्तान, ईरान, उत्तर कोरिया जैसे शरारती ताकतें इकट्ठा हो रही हैं. ये वो देश हैं, जहां लोकतंत्र सिर्फ मजाक है. 


दोनों पक्षों में अलग अलग स्तरों पर लगातार संघर्ष चल रहा है. जुबानी रस्साकशी, कूटनीतिक दबाव, व्यापारिक प्रतिबंध जैसे हथियार पहले ही आजमाए जा चुके हैं. समुंदर में भी मोर्चाबंदी हो चुकी है. अब बच रहा है तो सिर्फ आमने-सामने का हथियारबंद संघर्ष. लेकिन सवाल यह उठता है कि गोली चलने की शुरुआत कौन करे. पहली गोली चलाने में दोनों ही पक्ष घबरा रहे हैं.
फिर मुस्लिम देश बने मोहरे
चीन और अमेरिका दोनों जानते हैं कि आपसी संघर्ष में उलझकर दोनों एक दूसरे की अर्थव्यवस्था और ताकत का नाश कर देंगे. जिसका फायदा दूसरे उठाएंगे. इसलिए वह संघर्ष का मैदान अपने इलाकों से शिफ्ट करने की तैयारी में हैं. 
चीन और अमेरिका ने अपने मोहरे तय कर लिया है. यह मोहरे हैं मुस्लिम दुनिया के 56 देश. जो कि दो मोर्चों में बंट चुके हैं. 


जिसमें एक मोर्चे की अगुवाई कर रहा है तुर्की (Turkey). जिसका साथ पाकिस्तान (Pakistan) दे रहा है. दूसरे धड़े में है सऊदी अरब (Saudi Arabia) और उसके साथी अरबी मुमालिक. जिन्हें अमेरिका के साथ साथ इजरायल (Israel) का भी सपोर्ट है. हाल ही में अरबी देशों का झुकाव इजरायल की तरफ बढ़ा है.  
पाकिस्तान ने पाला बदला
पाकिस्तान ने सऊदी अरब के साथ दशकों पुराने अपने संबंधों को ताक पर रखकर तुर्की से दोस्ती की पींगे बढ़ा दी है. ऐसे में पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सहायता देने वाला सऊदी अरब बेहद नाराज है. लेकिन पाकिस्तानी हुक्मरान इसकी परवाह नहीं कर रहे हैं.  पाकिस्तानी आवाम में भी तुर्की का साथ देने की मांग जोर पकड़ रही है.


इमरान खान खुलकर तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान के साथ खड़े दिखाई देते हैं. पाकिस्तान सऊदी अरब से अपने रिश्ते कमजोर होने के कीमत पर तुर्की और परोक्ष रूप से ईरान से अपने संबंध मजबूत कर रहा है.  मुस्लिम देशों के इस धड़े को चीन का पूरा समर्थन हासिल है. 
अरब देशों के पीछे अमेरिका और इजरायल
हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे मुस्लिम देशों ने इजरायल से समझौता किया और उसे मान्यता प्रदान की. जो मुस्लिम दुनिया में एक बड़ा बदलाव है. सऊदी अरब में अमेरिका के सैन्य अड्डे मौजूद है. मुस्लिम देशों का यह खेमा स्पष्ट रूप से अमेरिका और यूरोपीय देशों के संरक्षण में है. जो कि चीन समर्थित तुर्की के खिलाफ हैं.  
तुर्की और सऊदी अरब की दुश्मनी की ऐतिहासिक वजह 
 तुर्की और सऊदी अरब के बीच ऐतिहासिक रूप से कट्टर दुश्मनी है. एक जमाने में तुर्की के ऑटोमन एंपायर के शासकों ने सऊदी अरब के तत्कालीन शाह और वर्तमान सऊदी राजवंश के पूर्वज का सर कलम किया था. 19वीं शताब्दी तक तुर्की का यह मानना है कि सऊदी एक कबीले से ज्यादा कुछ नहीं है. वह तो पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक खनिजों की देन है कि सऊदी अरब में आधुनिकता की लहर आई. 
उधर सऊदी अरब का मानना यह है कि इस्लाम के सबसे पवित्र स्थान मक्का और मदीना का संरक्षक होने के नाते इस्लामिक दुनिया का वह सर्वोपरि देश है उसकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती. 
लेकिन तुर्की खिलाफत का दावा करता है. उसका मानना है कि आखिरी बार खलीफा की पदवी उसके देश में थी. यहां ही थी जो कि पूरी इस्लामिक दुनिया का मुखिया माना जाता था. इसलिए इस्लामिक देशों के नेतृत्व का अधिकार उसका है. 
तुर्की में ऑटोबान शासकों ने 600 साल तक इस्लामिक दुनिया पर शासन किया. उनका साम्राज्य वर्तमान रूस से भी बड़ा था और करोड़ों वर्ग किलोमीटर में था. 


तुर्की अपने इसी ऐतिहासिक साम्राज्य को पुनर्जीवित करने की इच्छा रखता है. तुर्की और पाकिस्तान की सेना मुस्लिम देशों के लिहाज से काफी मजबूत और प्रबल मानी जाती है. तुर्की तो नाटो का सदस्य भी है. उसके पास यूरोपीय संघ के सभी हथियार मौजूद है. पाकिस्तानी सेना भी इस्लामी देशों की सेना में सबसे मजबूत मानी जाती है. 
ऐसे में तुर्की और पाकिस्तान की ख्वाहिश जोर पकड़ रही है. इन दोनों को लगता है कि वह साथ मिलकर इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व सऊदी अरब के हाथ से छीन सकते हैं.  इन दोनों के पीछे खड़ा चीन भी उनकी इस महत्वकांक्षी को बढ़ावा देने में कोई भी कमी नहीं छोड़ रहा है. 
बड़े संघर्ष में बदल सकता है मुस्लिम देशों का अंतर्विरोध
मुस्लिम देशों में अमेरिकी और चीन के इन दोनों खेमों की किलेबंदी को देखकर लगता है कि मुस्लिम देशों का यह आपसी अंतर्विरोध जल्दी ही सैनिक संघर्ष में बदल सकता है. 


अजरबैजान और अर्मेनिया के बीच चल रही लड़ाई या फिर सीरिया और लेबनान जैसे देशों में चल रही जंग कभी भी अचानक बड़ा रूप ले सकती है. क्योंकि अलग-अलग मुस्लिम गठबंधनों की फौज इसमें उतर सकती है. 
 चीन और अमेरिका दोनों ने तय कर लिया है कि उनके पक्ष में गोली कौन चलाने वाला मुस्लिम देश कौन होगा. तो क्या दुनिया शांति भंग होने वाली है??

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