'किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल', पढ़ें अहमद फ़राज़ के चुनिंदा शेर
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'किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल', पढ़ें अहमद फ़राज़ के चुनिंदा शेर

Poetry of the day: अहमद फ़राज़ (Ahad Faraz) ने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की. वह 1976 में पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर उसी एकेडमी के चेयरमैन भी बने.

अहमद फराज Ahmad Faraz

Poetry of the day: अहमद फ़राज़ (Ahmad Faraz) का नाम उर्दू के सबसे बड़े शायरों में गिना जाता है. उनका असली नाम सैयद अहमद शाह (Sayyed Ahmad Shah) था. उनकी पैदाइश 14 जनवरी 1931 को पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुई थी. फराज ने पाकिस्तान की पेशावर युनिवर्सिटी में फारसी और उर्दू की तालीम हासिल की. बाद में वह वहीं पढ़ाने लगे. फ़राज़ बचपन में पायलट बनना चाहते थे लेकिन उनकी माँ ने इसके लिए मना कर दिया. फिर उन्होंने शेर व शायरी शुरू की. शुरूआत में वह इंकलाबी शेर लिखते थे. इसके बाद धीरे-धीरे प्रगतिवादी शायरी को पसंद करने लगे. उन्होंने जियाउल हक के दौर में कुछ ऐसी गज़लें लिखकर मुशायरों में पढ़ीं, जिनकी वजह से उन्हें जेल में भी रहना पड़ा. इसी दौरान वह कई साल पाकिस्तान से दूर यूनाइटेड किंगडम और कनाडा में रहे.अहमद फ़राज़ ने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की. वह 1976 में पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर उसी एकेडमी के चेयरमैन भी बने. 2004 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ पुरस्कार से नवाजा. लेकिन 2006 में उन्होंने यह पुरस्कार इसलिए वापस कर दिया कि वे सरकार के फैसलों से खुश नहीं थे. उनकी शायरी के कई संग्रह प्रकाशित हुए. जिनमें खानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी और दर्द आशोब (ग़ज़ल संग्रह) और ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में (ग़ज़ल और नज़्म संग्रह) शामिल हैं. 25 अगस्त 2008 को किडनी फेल होने की वजह से उनका निधन हो गया. 

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे 
तू बहुत देर से मिला है मुझे 
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तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौसला है मुझे 
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इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ 
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ 
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आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा 
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा 
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रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ 
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ 
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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें 
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें 
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अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर 
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए 
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उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ 
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
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दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है 
जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे  
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चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का 
सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही 
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