भाजपा के ‘नाथ’ अब राजनाथ

यह सत्य है कि तय मानी जा रही किसी बात का सिरे से खारिज हो जाना और दूर-दूर तक संभावना के न होते हुए भी कमान हाथ में आ जाना राजनीति में ही संभव है। भाजपा के अध्यक्ष पद के चुनाव में कुछ इसी तरह की कहानी दोहराई गई है।

आलोक कुमार राव
यह सत्य है कि तय मानी जा रही किसी बात का सिरे से खारिज हो जाना और दूर-दूर तक संभावना के न होते हुए भी कमान हाथ में आ जाना राजनीति में ही संभव है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष पद के चुनाव में कुछ इसी तरह की कहानी दोहराई गई है। अध्यक्ष पद के लगातार दूसरे कार्यकाल की देहरी पर खड़े नितिन गडकरी अचानक दौड़ से बाहर हो गए और पार्टी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह की अप्रत्याशित रूप से अध्यक्ष पद पर दूसरी बार ताजपोशी हो गई।
राजनाथ सिंह की पहचान मृदु स्वभाव वाले और सबको साथ लेकर चलने वाले नेता के रूप में रही है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह का पहला कार्यकाल (2005 से 2009 तक) औसत दर्जे का माना जाता है। उनके पहले कार्यकाल के दौरान भाजपा पहली बार दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में सत्ता में आई तो 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। बतौर अध्यक्ष राजनाथ का कार्यकाल मिला-जुला रहा है।
राजनाथ को एक बार फिर से अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई है। लेकिन 2014 में आम चुनाव और उसके पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, राजस्थान, दिल्ली सहित कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजनाथ सिंह को अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ ने साफगोई से कहा कि उनको यह पद विषम परिस्थितियों में मिला है। राजनाथ अच्छी तरह जानते हैं कि आगे की राह आसान नहीं है। विरोधियों पर हल्ला बोलने से पहले उन्हें अपना घर ठीक करना होगा और इन सबके लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और लालकृष्ण आडवाणी के बीच सेतु के रूप में उभरे राजनाथ को कम समय में कई मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा और इसके लिए उन्हें अपने प्रशासनिक एवं सांगठनिक नेतृत्व क्षमता का परिचय देना होगा। भाजपा के अंदर की खेमेबाजी पर अंकुश लगाते हुए संघ एवं पार्टी के बीच संतुलन बनाना होगा।
यह बात तय है कि राजनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद प्रांतीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पार्टी में नए समीकरण बनेंगे। पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी का धड़ा कमजोर होगा। इन सबके बीच राजनाथ को उऩ नेताओं एवं पदाधिकारियों को सामने लाना होगा जो पार्टी के लिए पूरी तरह समर्पित एवं निष्ठावान हैं। यह गौर करने वाली बात है कि भाजपा में ऐसे कई राष्ट्रीय नेता हैं जिनका कोई क्षेत्र नहीं है और कई ऐसे क्षेत्रीय नेता हैं जिनके पास कोई नेतृत्व नहीं है। कर्नाटक से लेकर राजस्थान और कमोबेश सभी राज्यों में यह गुटबाजी देखी जा सकती है। भाजपा की यह विसंगति पार्टी की एकजुटता एवं सफलता में एक बड़ी बाधा है।
अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ के लिए कर्नाटक को सहेजना सबसे बड़ी चुनौती है जहां पार्टी की अंतर्कलह एवं गुटबाजी से सरकार पर संकट आ पड़ा है। येदियुरप्पा की घर वापसी (जिसकी संभावना क्षीण नजर आती है) यदि होती है तो राजनाथ के लिए फौरी तौर पर यह एक बड़ी कामयाबी मानी जाएगी।
जानकारों का कहना है कि यूपीए-2 के कार्यकाल के दौरान महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण देश में उसके खिलाफ जो माहौल बना है उसका फायदा भाजपा नहीं उठा पाई है। भ्रष्टाचार के आरोपों पर गडकरी को दूसरा कार्यकाल न देना भाजपा का देर से ही सही, लेकिन सूझबूझ भरा कदम है क्योंकि गडकरी को नेपथ्य में भेजने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में भाजपा और आक्रामक हो सकती है। भाजपा का एक धड़ा मानता है गडकरी की वजह से भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी की मुहिम कमजोर पड़ी।
चूंकि आम चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं बचा है और यूपीए-2 चुनावी मोड में आ चुका है। ऐसे में राजनाथ को दिल्ली की ‘चौकड़ी’ को साधते हुए राजग के विस्तार की संभावना भी तलाशनी होगी। उत्तर प्रदेश से आने वाले राजनाथ सिंह का राज्य के राजपूतों में खासा असर है। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की घर वापसी का फायदा भी पार्टी को मिल सकता है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटों वाले इस राज्य में वोटों का समीकरण जातिगत आधार पर तय होता है।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सामाजिक समीकरण में सेंध लगाना भी राजनाथ के लिए चुनौती है। उत्तर प्रदेश में अपनी पूर्व की स्थिति पाने के लिए राजनाथ को एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा क्योंकि लंबे समय से सत्ता से पार्टी की दूरी और सशक्त क्षेत्रीय नेता के अभाव ने कार्यकर्ताओं के मनोबल पर असर डाला है। भाजपा अगर चाहती है कि 2014 में राजग की सरकार बने तो उसे इस राज्य में बेहतर प्रदर्शन करना होगा।
यह मानकर चला जा रहा है कि आगामी आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की भूमिका अहम होगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी से उनका सीधा सामना हो सकता है। ऐसे में विकासवादी नेता के रूप में उभरी मोदी की छवि और देश भर में बढ़ती उनकी लोकप्रियता को देखते हुए भाजपा ने उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देने का संकेत दिया है। मोदी आगामी चुनाव में भाजपा के चुनाव-प्रचार का नेतृत्व कर सकते हैं। युवाओं के बीच मोदी की लोकप्रियता और उनकी विकासवादी छवि को भाजपा आगामी आम चुनाव में भुनाना चाहेगी।
गुजरात में लगातार तीसरी बार भाजपा को सत्ता में लाने वाले मोदी का कद बढ़ा है और प्रधानमंत्री बनने की उनकी महात्वाकांक्षा भी किसी से छुपी नहीं है। भाजपा में पीएम पद के दावेदार भी कई हैं। ऐसे में पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने से भाजपा में अहं का टकराव तेज हो सकता है और मोदी के नाम पर उसके सहयोगी दल बिदक सकते हैं।
भाजपा अपने को ‘ए पार्टी विथ डिफरेंस’ होने का दावा करती है। आगामी लोकसभा चुनाव में उसे जनता को यह भरोसा देना होगा कि वह वाकई में अन्य दलों से अलग है। उसे लोगों के सामने एक नया विजन, एक नई राह और युवाओं को आकर्षित करना होगा ताकि लोगों को लगे कि भाजपा उन्हें विकल्प दे सकती है।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी राजनाथ की ताजपोश के बाद यही बात दोहरायी। उन्होंने कहा कि पार्टी को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अन्य दलों से अलग है क्योंकि विरोधी दल हमें ‘मतभेदों वाली पार्टी’ बताते हैं। उम्मीद है कि राजनाथ सिंह जिनके पास प्रशासनिक एवं सांगठनिक दोनों अऩुभव है, अपने पिछले कार्यकाल के दौरान जो चूक हुईं उन्हें नहीं दोहराते हुए पार्टी को मिशन-2014 को कामयाब बनाकर नई बुलंदियों पर पहुंचाएंगे।

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