पर्व-त्यौहार और मन का वहम

यू तो संयुक्ता एक बहुत ही साधारण मध्यमवर्गीय लेकिन संयुक्त परिवार में पली बड़ी लड़की थी मगर उसकी सोच आम लोगों की सोच से कुछ अलग थी।

पल्लवी सक्सेना
यू तो संयुक्ता एक बहुत ही साधारण मध्यमवर्गीय लेकिन संयुक्त परिवार में पली बड़ी लड़की थी मगर उसकी सोच आम लोगों की सोच से कुछ अलग थी। जब भी घर में कोई त्यौहार होता तो उसे उस दिन पूजन करना तो बहुत अच्छा लगता था लेकिन व्रत उपवास की बातें उसे कभी रास ना आती उसे लगता त्यौहार खा पीकर मौज करने के लिए बनाये गए हैं न की यूं सारा-सारा दिन भूखा रहने के लिए खासकर स्त्रियां के लिए तो ज़रा भी नहीं, क्योंकि संयुक्त परिवार में रहने वाली स्त्रियां अधिकतर अपनी पूरी ज़िंदगी दूसरों की पसंद का ख़्याल रखने में ही गुज़ार देती है।
उसने भी हमेशा अपनी मां को यही सब करते देखा था इसलिए उसे लगता था कि कम से कम त्यौहार के बहाने ही सही उसकी मां और घर कि अन्य स्त्रियां अपने मन मर्जी का बनाकर खा सकें। मगर ऐसा होता नहीं था क्योंकि संयुक्त परिवार होने के कारण घर में बहुत नियम क़ायदे हुआ करते थे। जिसके चलते घर के सभी सदस्यों को पूरी निष्ठा से उन नियमों का पालन करना होता था जो संयुक्ता को ज़रा भी पसंद नहीं आता था। इसलिए वह अपनी मां के लाख कहने पर भी कभी कोई उपवास नहीं रखती थी। फिर भले ही उसके एवज़ में उसे कोई भी सज़ा ही क्यूं न भुगतनी पड़े जैसे सारे घर का काम करना या फिर जबरन उपवास करवाने के चक्कर में खाना न दिया जाना इत्यादि। जबकि उसकी अपनी मां बहुत ही धर्म कर्म वाली पूजा पाठ करने वाली महिला थी।
उसने बचपन से अपनी मां को पूजा पाठ करते और अपने परिवार के लिए आए दिन उपवास करते देखा था। तब भी उसके मन में यह ख़्याल कभी नहीं आया कि वह भी ऐसा कुछ करे, बल्कि उसे तो हमेशा इस बात से आपत्ति रहती थी कि लोग भगवान के नाम से इतना डरते क्यूं है कि उनके प्रकोप से बचने के लिए वर्त उपवास करते है।
उसका ऐसा मानना था कि जब सुख दुःख में भगवान की शरण ही लेनी है तो फिर उनसे डर कैसा क्यूं ना उन्हें दोस्त मानकर उनके साथ भी दोस्तों के जैसा व्यवहार किया जाए क्यूं न उनका जन्मदिन भी आम इन्सानों की तरह केक काटकर मौज मस्ती करते हुए मनाया जाए। न कि यूं सारा दिन भूखा टंगे रहकर मनाया जाए जिसमें न भगवान खुश, न ही भक्त खुश, भला ऐसे उपवास का भी क्या फायदा यह सब सोचते हुए संयुक्ता ने अपने मन ही मन यह निर्णय ले लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए वो अपने भावी जीवन में कभी कोई उपवास नहीं रखेगी, यहां तक कि करवाचौथ भी नहीं और अगर ससुराल वालों के कहने से यदि रखना भी पड़ा तो खा पीकर रखेगी, आम लोगों की तरह निराहार और निर्जला नहीं। यूं ही दिन बीत रहे थे, तभी एक दिन पास के घर में रहने वाली उसकी दूर की एक मौसी (जिनकी अभी हाल ही में कुछ साल पहले विवाह हुआ था) के घर से उनके पति के स्वर्गवास होने का समाचार आया जिसे सुनकर सभी दुःखी थे। परिवार के अन्य सदस्यों में बातें हो रही थी कि अरे बेचारी के साथ बहुत ही बुरा हुआ न जाने कौन से जन्म का बदला लिया है ईश्वर ने इस मासूम से, अभी तो कुछ साल पहले ही विवाह हुआ था इसका इतना पूजा पाठ करने वाली पतिव्रता स्त्री के साथ ही ऐसा करना था भगवान को वगैरा-वगैरा।

संयुक्ता भी पास ही खड़ी यह सब सुन रही थी। यह सब सुनकर उसका विश्वास और भी अटल हो गया कि इन सब उपवास से कुछ नहीं होता होना वही है जो भाग्य में लिखा है वह ज़माना और था जब सावित्री और सत्यवान जैसे पति पत्नी हुआ करते थे मगर आज तो हालात कुछ और ही हैं ऐसे में भला केवल एक स्त्री ही क्यूं अपने पति की दीर्घायु की कामना करने लिए व्रत रखे। यदि ऐसा ही है तो पति को भी तो पत्नी के लिए ऐसा ही कोई उपवास करना चाहिए मगर पति के लिए तो ऐसा कोई व्र त्यौहार बना ही नहीं है। ना ही ऐसी कोई पहचान ही बनी है की जिस से यह पता चल सके की वह विवाहित है। जब उनके लिए कोई नियम नहीं है तो मैं भी क्यूं करुँ, मैं भी आज से ऐसा कुछ नहीं करूंगी जिस से यह प्रतीत हो कि मैं विवाहित हूँ और ना ऐसा कोई व्रत रखूंगी। यह सब सोचते-सोचते उसने अपने मन की यह बात अपने ही घर की एक बुज़ुर्ग महिला से कही, यह सोचकर कि शायद इनका अनुभव उस के मन की इस उथलपुथल का कोई हल निकल सके।
पहले तो उस महिला को संयुक्ता की बात सुनकर थोड़ा अचंभा हुआ। किन्तु उसकी आयु को देखते हुए उन्होंने उसके इन सवालों के जवाब में केवल इतना ही कहा कि बेटा यह पूजा-पाठ कोई दिखावे के चीज़े नहीं है, ना ही हम इन्हें दिखावा करने के लिए करते हैं। बल्कि यह तो हमारे धर्म की पहचान है बाक़ी रही व्रत और उपवास की बात तो वह तो हमारे मन की श्रद्धा पर अधिक निर्भर करता है। क्योंकि हमारे धर्म ग्रन्थों में भगवान ने कभी भी कही भी यह नहीं कहा है कि हे मनुष्य तुम मुझे प्रसन्न करना चाहते हो, तो निर्जल एवं निराहार रहकर मेरी भक्ति करो। यह तो स्वयं हमारे ऋषि मुनि द्वारा बनाए गये कुछ नियम है ताकि जीवन के कुछ दिन सादगी के साथ भी व्यतीत किए जा सके और उपवास के बहाने प्रभु भक्ति में लीन रहा जा सके और जहां तक विवाहित दिखने की बात है, तो यह भी इस पुरुष प्रधान समाज के बनाए नियमों में से एक हैं।
मगर यह एक ऐसा नियम है जिसके पालन करने से नारी के श्रंगार में वृद्धि होती है और अब तो यह भारतीय नारी की पहचान का एक रूप भी है। तो मेरा ऐसा मानना है कि श्रंगार हमेशा से नारी जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है बस उसके प्रारूप विभिन्न संस्कृति में विभिन्न हैं। तो यदि हमारी संस्कृति में इसे स्त्रियों के सुहाग चिन्ह से जोड़कर देखा जाता है और यदि उससे किसी को कोई नुक़सान नहीं पहुंचता तो उसका पालन कर लेने में भी कोई बुराई नहीं है। बाक़ी तो बेटा सबकी अपनी मर्जी है और अपनी सोच जिसको जो ठीक लगे वो करना चाहिए। बस किसी पर इन नियमों का पालन करने का दबाव नहीं होना चाहिए जो अफ़सोस हमारे समाज में जरूरत से ज्यादा ही है।

संयुक्ता उस बुज़ुर्ग महिला की बातों को बहुत ध्यान से सुन रही थी। उस महिला की बातों ने सन्युंक्ता के दिल पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा था जिसने उसे यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि वह अपने भावी जीवन में कौन सा तरीक़ा अपनायेगी कि उसके बच्चे उसके माध्यम से सही चीज़े सीखते हुए उसे सम्मान की दृष्टि से देख सकें। तब उसने यह निर्णय लिया कि वो अपनी संस्कृति का पूरा मान सम्मान रखते हुए सभी व्रत त्यौहार करेगी मगर बिना किसी बंधन के, बिना किसी दबाव के, बिना किसी आशंका के कि यदि कभी कुछ नियम क़ायदे के विरुद्ध भी हो गया तो मन में कोई शंका नहीं लायेगी कि हाय राम ऐसा हो गया अब क्या होगा। फिर चाहे वो करवाचौथ जैसा अहम व्रत और त्यौहार ही क्यूँ न हो वह उतना ही करेगी जितना उसमें करने की क्षमता होगी, जबरन नियम के कारण अपने आप को कष्ट में नहीं डालेगी क्योंकि भगवान माँ के भाव अर्थात श्रद्धा देखते हैं अपने इस निर्णय के साथ उसने अपना पहला करवाचौथ पानी पीकर और फलाहार खाकर पूरी श्रद्धा के साथ रखा और आज भी रख रही है और आज उसका परिवार एक सुखी एवं समृद्दि परिवार है।

अन्तः इस कहानी का निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान की भक्ति में शारीरिक कष्ट नहीं मन के भावों की अहमियत ज्यादा मायने रखती है क्योंकि भगवान के लिए सच्ची श्रद्धा के दो फूल ही काफी होते हैं। इसलिए उतना ही किजिये जितना आप अपने समर्थ और क्षमता के अनुसार कर सकते हैं। वह भी बिना किसी वहम के क्योंकि जब आप इंसान होकर अपने अपनों की छोटी-मोटी गलतियों को नज़र अंदाज़ करके उन्हें माफ कर सकते हैं तो वह तो भगवान है वह भला आपसे हुई भूल को क्यूं ना माफ करेंगे।

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