डा. हेमंत कुमार
पूरी दुनिया को छोड़ कर अगर हम सिर्फ़ अपने देश भारत की ही बात करें तो शायद ही किसी घर का आंगन ऐसा होगा जहां गौरैया की चीं चीं---चूं चूं की मधुर आवाज न गूंजती रही हो। कोई घर ऐसा नहीं होगा जहां कभी गौरैया के झुंड़ आकर फ़ुदकते न रहे हों। हमारे परिवारों के बच्चों का पहला परिचय जिस पाखी से होता है वह है गौरैया। घरों की महिलाएं जिस पक्षी के लिये आंगन में अनाज के दाने बिखेरती हैं वह है गौरैया। नन्हां शिशु आंगन में जिस पक्षी को दौड़ कर छूने या पकड़ने का असफ़ल प्रयास करता है वह है गौरैया। तमाम लोकगीतों, लोककथाओं, आख्यानों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे पहले और ज्यादा मिलता है वह है गौरैया।
पर आज कहां चली जा रही हैं ये गौरैया? हमारे आंगन, घरेलू बगीचे, रोशनदान, खपरैलों के कोनों को अचानक छोड़ क्यों रही हैं गौरैया? ऐसा क्या हो गया है हमारे चारों ओर कि हमें पूरी दुनिया में “विश्व गौरैया दिवस” मनाने की जरूरत पड़ गई? हमें आज गौरैया बचाओ अभियान चलाने पड़ रहे हैं? इन सभी सवालों पर हम सभी को मंथन करने की जरूरत है।उन कारणों को खोजने की जरूरत है जिनके चलते आज हमारी सबसे प्रिय और पारिवारिक चिड़िया गौरैया हमसे दूर हो रही है।
वैसे तो हम सभी गौरैया को जानते और पहचानते हैं। फ़िर भी इस पक्षी के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी मैं यहां देना चाहूंगा। गौरैया एक घरेलू चिड़िया है। यह ज्यादातर मनुष्यों की बस्तियों के आस-पास ही अपना घोंसला बनाना पसंद करती है। शहरी इलाकों में इसकी छह प्रजातियां पाई जाती हैं। हाउस स्पैरो, स्पैनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, डेड सी स्पैरो, और ट्री स्पैरो। इनमें से हाउस स्पैरो हमारे घरों के आंगन में चहचहाती है। इसके शरीर पर छोटे छोटे पंख,पीली चोंच,पीले पैर होते हैं।लंबाई लगभग 14 से 16सेमी तक होती है। इनमें नर गौरैया का रंग थोड़ा अलग होता है। इसके सर के ऊपर, नीचे का रंग भूरा और गले चोंच और आंखों के पास काला रंग होता है। पैर भूरे होते हैं।
पूरी दुनिया भर में फ़ुदकने वाली यह चिड़िया एशिया और यूरोप के मध्य क्षेत्र में ज्यादा पाई जाती है। हमारी सभ्यता के विकास के साथ ही यह चिड़िया संसार के बाकी हिस्सों उत्तरी दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में भी पहुंच गयी। यह बहुत बुद्धिमान और संवेदनशील पक्षी है। सामाजिक पक्षी होने के कारण ही यह ज्यादातर झुंड में रहती है। जमीन पर बिखरे अनाज के दाने, छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े इसके प्रिय भोजन हैं। यह घरों के रोशनदानों, बगीचों, दुछत्ती जैसी जगहों में अपने घोंसले बनाती है।
अलग अलग नाम—हमारे देश के अलग-अलग क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है। हिन्दी बेल्ट में तो इसका प्रचलित नाम गौरैया ही है।तमिल और मलयालम में इसे “कुरुवी ”तेलुगू में “पिच्युका ” कन्नड़ में “गुब्बाच्ची ” गुजराती में “चकली ” मराठी में “चिमानी ” पंजाबी में “चिड़ी ” बांग्ला में “चराई पाखी ”उड़िया में “घर चटिया ”सिंधी में “झिरकी ” उर्दू में “चिड़िया ” और कश्मीरी में “चेर”कहा जाता है। कहीं-कहीं पर इसे गुड़रिया, गौरेलिया, खुसरा चिरई या बाम्हन चिरई भी कहा जाता है।
साहित्य में गौरैया- हमारे साहित्य में भी इस प्यारी गौरैया को बहुत स्थान मिला है। लोकगीतों में अक्सर हम सभी ने इसी चिड़िया को अपने आंगन में फ़ुदकते देखा और इसकी आत्मीयता को महसूस किया है—
“चिड़िया चुगे है दाना हो मोरे अंगनवा---मोरे अंगनवा----”
इसकी भांति-भांति की क्रियाओं को कवियों साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया है। घाघ-भड्डरी की कहावतों में तो इसके धूल-स्नान की क्रिया को प्रकृति और मौसम से जोड़ा गया है---
“कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अंडा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।”
यानि कि गौरैया जब धूल में स्नान करे तो यह मानना चाहिये कि बहुत तेज बारिश होने वाली है। आधुनिक काल के कवियों ने भी इस प्यारी चिड़िया को रेखांकित किया है। “मेरे मटमैले आंगन में, फ़ुदक रही प्यारी गौरैया” (शिवमंगल सिंह सुमन) “गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी के” (कैलाश गौतम)।
विश्व गौरैया दिवस—पिछले कुछ सालों में हमारी यह प्यारी चिड़िया हमसे पता नहीं क्यों रूठ गई है।यह अब हमारे घर, आंगन, दरवाजे पर बहुत कम आ रही है। शायद उसको भी हमारा यह प्रकृति क अधाधुंध दोहन और जहरीली गैसों से भरा माहौल पसंद नहीं आ रहा है। रूठी गौरैया को मनाने, उसे फ़िर से अपने आंगन, बगीचे में बुलाने के लिये ही शायद विश्व गौरैया दिवस मनाने की जरूरत पड़ी। दुनिया में पहली बार “विश्व गौरैया दिवस” मनाने की शुरुआत या आह्वान नेचर फ़ॉर एवर सोसायटी द्वारा बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, कार्नेल लैब्स ऑफ़ आर्निथोलोजी (यू एस ए), इकोसिस ऐक्शन फ़ाउण्डेशन (फ़्रांस) तथा वाइल्ड लाइफ़ ट्रस्ट, दुधवा लाइव इन के सहयोग से 20मार्च2010 को की गई।
क्यों रूठी गौरैया- गौरैया के आंगन से दूर होने के पीछे सबसे बड़ा कारण पेड़ पौधों का कटना और हरियाली की कमी है। बढ़ते हुये शहरीकरण और कंक्रीट के जंगल ने गौरैया के रहने की जगह छीननी शुरू कर दी है। आज लोगों के आंगन में, घरों के आस-पास ऐसे घने पेड़ पौधे नहीं हैं जिन पर यह चिड़िया अपना आशियाना बना सके। न ही हमारे घरों में रोशनदान या छतों पर ही कोई ऐसी सुरक्षित जगहें हैं। घरों की खिड़कियों में लगे कूलर, रोशनदानों की जगह विण्डो ए सी ने गौरैया के जीवन को और भी खतरे में डाल दिया है। अगर चिलचिलाती धूप से बचने या भोजन की खोज में गौरैया आपके घरों में आयेगी भी तो पंखे या कूलर से इसके कट जाने का खतरा रहेगा। कुछ समय पहले मेरी ही आंखों के सामने ही मेरे आफ़िस के कमरे में दो गौरैया पंखे से कत कर मर गई थीं।
-पहले घरों के आंगन में, बाहर दरवाजे के पास अनाज सूखने के लिये फ़ैलाये जाते थे, महिलायें भी आंगन में अनाज फ़टकती थीं, इन्हीं में से गौरैया अपना आहार खोज कर पेट भरती थी। पर बढ़ती हुयी फ़ास्ट फ़ूड कल्चर ने उसका यह अनाज और भोजन भी बंद करा दिया।
-मुझे याद है गांव में मेरी दादी घर के सामने वाले नीम के नीचे एक हंड़िया गाड़ कर उसमें पानी भर देती थीं साथ ही अनाज भी बिखेर देती थीं।पूछने पर कहतीं कि चिड़ियों के लिये है। पर अब तो शायद कुछ बिरले परिवारों में यह परम्परा बची होगी।
-इससे भी बढ़कर शहरो में मोबाइल टावरों की बढ़ती संख्या ने भी गौरैया के लिये खतरा उत्पन्न किया है। इनके रेडियेशन से गौरैयों की दिशासूचक प्रणाली और प्रजनन क्षमता दोंनों ही प्रभावित हो रहे है। नतीजतन इनकी संख्या लगातार कम हो रही है।
-शहरों में चारों ओर फ़ैला बिजली और टेलीफोन के तारों का मकड़जाल भी इनके लिये खतरा बन गया है। इन तारों से टकराकर अक्सर गौरैया अपनी जान गंवा देती हैं।
कैसे बुलायें इन्हें वापस—यह तो तय है कि अगर इसी रफ़्तार से इस घरेलू चिड़िया की संख्या में कमी आती रहेगी तो वह दिन दूर नहीं जब इसे भी हमें विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में रखना पड़ेगा, आने वाली पीढ़ी से कहना होगा कि देखो बच्चों यही वो प्यारी गौरैया है जो पहले हमारे आंगन, बगीचे में फ़ुदकती थी। इसलिये हमें इसे अपने आंगन में वापस बुलाना ही होगा। अहीं तो हम क्या जवाब देंगे आने वाली पीढ़ी को?
-अपने घर के आस-पास घने छायादार पेड़ लगायें। ताकि गौरैया या अन्य पक्षी उस पर अपना घोसला बना सकें।
-सम्भव हो तो घर के आंगन या बरामदों में मिट्टी का कोई बर्तन रखकर उसमें रोज साफ पानी डालें। जिससे यह घरेलू पक्षी अपनी प्यास बुझा सके। वहीं पर थोड़ा अनाज के दानें बिखेर दें। जिससे इसे कुछ आहार भी मिलेगा। और यह आपके यहां रोज आयेगी।
-बरामदे या किसी पेड़ पर किसी पतली छड़ी या तार से आप इसके बैठने का अड्डा भी बना सकते हैं।
-यदि आपके घर में बहुत खुली जगह नहीं है तो आप गमलों में कुछ घने पौधे लगा सकते हैं जिन पर बैठ कर चिलचिलाती धूप या बारिश से इसे कुछ राहत मिलेगी। गमलों में लगे कुछ फ़ूलों के पौधे भी इसे आकर्षित करते हैं क्योंकि इन पर बैठने वाले कीट पतंगों से भी यह अपना पेट भरती है।
20मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाने के पीछे दरअसल सोच ही यही थी कि न केवल प्यारी गौरैया बल्कि चिड़ियों तथा जीवों की अन्य विलुप्त हो रही प्रजातियों की तरफ़ लोगों का ध्यान आकर्षित किया जा सके। साथ ही इन प्रजातियों को बचाने के लिये भी आम जन को जागरूक किया जा सके। यह दिन मनाने की सार्थकता तभी होगी जब हम सभी इस प्यारी चिड़िया को फ़िर से अपने घर, आंगन और दरवाजे पर बुलाने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठायेंगे।
(लेखक वतर्मान में शैक्षिक दूरदर्शन केंद्र,लखनऊ में लेक्चरर प्रोडक्शन पद पर कार्यरत हैं)