डियर जिंदगी : तुम आते तो अच्‍छा होता!
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डियर जिंदगी : तुम आते तो अच्‍छा होता!

जब सपनों की शहर में आपके पांव अच्‍छी तरह जम जाएं तो होता यह है कि अपनों की बातें आप तक पहले तो पहुंचती ही नहीं और पहुंच भी जाए तो अच्‍छी बात भी ‘कड़वी’ लगने लगती है.

डियर जिंदगी : तुम आते तो अच्‍छा होता!

कभी छोटे कस्‍बे, गांव से आए लोग अब शहर में जमने लगे हैं. बेहतर जीवन के उनके सपने, रोजगार की जरूरत को उनके जन्‍म स्‍थान पूरे करने में जैसे-जैसे असफल हो रहे हैं, वह नए शहरों की ओर निकल रहे हैं. वहां जाकर अपने आशियाने बनाने, बच्‍चों के लिए भविष्‍य की तलाश में अब हम अपनी ‘जड़ों’ से दूर होते जा रहे हैं. यह सब समय की जरूरत है, जीवनचक्र की नियति है.

अलग-अलग कारण से ही सही पर पलायन हमारे समय का सबसे क्रूर सच है. हम इस बात के लिए श्रापित से हैं कि बचपन की यादों से दूर जाकर ही सपने मिलने हैं. मंजिल और मुश्किल इस अर्थ में एक दूसरे के पूरक हैं कि दूसरे के बिना पहली का मिलना संभव नहीं. सिमटते गांव और बढ़ते शहर यह भारत की पुरानी कहानी है. कोई नई चीज़ नहीं! तो आज हम ‘डियर जिंदगी’ में शहरीकरण पर क्‍यों चर्चा कर रहे हैं.

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असल में हम शहर, समाज और अकेलेपन पर बात करने जा रहे हैं. यहां शहर का अर्थ नगर से न होकर उस जगह से है, जहां हम सपनों की खोज में आए हुए हैं. अपनों से दूर.

एक मिसाल से समझते हैं.

राजेश श्रीवास्‍तव का परिवार उप्र के इलाहाबाद से है. वह यहां एक निजी कंपनी में मैनेजर के पद पर काम कर रहे हैं. कोई तीस बरस पहले वह नौकरी की तलाश में दिल्‍ली आए थे. इलाहाबाद में उनका भरा-पूरा परिवार है. चार भाई, रिश्‍तेदार अलग से. दिल्‍ली आने के कुछ बरस तक तो उनका अपने शहर से नाता बना रहा, लेकिन धीरे-धीरे वह ‘दिल्‍ली’ वाले की ओर बढ़ गए. दिल्‍ली में वह हर शुभचिंतक, मित्र के लिए उपलब्‍ध थे, जबकि रातभर की दूरी पर बसा इलाहाबाद कब उन्‍हें दूर लगने लगा, इसका पता ही नहीं चला.

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इलाहाबाद में परिवार, रिश्‍तेदार, दोस्‍तों के यहां जब भी कुछ बड़ा तो ठीक छोटा-मोटा आयोजन भी होता तो उनको याद किया जाता. लेकिन युवा राजेश के पैर जैसे-जैसे दिल्‍ली में जमते गए, उनकी नजरों से उनके ‘अपने’ दूर होते गए.

आहिस्‍ता-आहिस्‍ता वह परिवार के हर सुख, दुख से दूर होते गए. जब भी बुलावा आता, वह सीधे मना तो न करते, लेकिन बाद में कह देते, समय नहीं है. जबकि दिल्‍ली के लिए उनके पास भरपूर समय था. कई बार तो यहां तक हुआ कि भाई बहुत बीमार हो गए, मां की सर्जरी हो गई. राजेश इलाहाबाद इसलिए नहीं गए, क्‍योंकि वह ‘अपने’ परिवार के साथ पहले से तय छुटटी मना रहे थे.

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घर-परिवार से माता-पिता और उनके बड़े बस यही कहते, हो तो सब अच्‍छे से गया, लेकिन राजेश, तुम आते तो अच्‍छा होता! तुम्‍हारी कमी बहुत खलती है.

संयुक्‍त परिवार से कटे बच्‍चों के भीतर अकेलापन तेजी से बढ़ रहा है. उनकी डिक्‍शनरी में परिवार का अर्थ केवल पापा-मम्‍मी और एक और भाई\बहन है. चाचा-चाची, दादा-दादी,बुआ जैसे सारे रिश्‍ते ‘अंकल-आंटी’ में सिमट गए है!

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ऐसा नहीं कि राजेश के शहर में जमने, अपने घर से कटने पर किसी ने दखल देने की कोशिश नहीं की. लेकिन जब सपनों के शहर में आपके पांव अच्‍छी तरह जम जाएं तो होता यह है कि अपनों की बातें आप तक या तो पहुंचती नहीं या अच्‍छी बातें कड़वी लगने लगती हैं.

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अब राजेश के दिल्‍ली आने के तीस बरस बाद!
उनके बच्‍चे मुंबई में बस गए हैं. राजेश का दिल्‍ली अब उनका गांव बन गया है. बच्‍चों के पास मुंबई में इतनी ‘जगह’ नहीं कि राजेश और उनकी पत्‍नी वहां उनके साथ रहें.

राजेश, उनकी जीवनसंगिनी को लगता है कि अपनो के पास इलाहबाद लौट जाएं, लेकिन वहां उनके लिए अब जगह नहीं बची. वहां के वह बच्‍चे जो कभी इनके साथ रहे नहीं, इनके लिए अपरिचत हैं. उनके मन में इनके लिए स्‍नेह का कोई फूल नहीं खिलता.

बुजुर्ग जो बचे हैं, वह इनके स्‍वागत में अब भी पलके बिछाए हैं, लेकिन जाहिर है, बहुत कुछ टूट गया है. छूट गया है.

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इसके लिए शहर, नौकरी और जिंदगी की भागमभाग को दोष देने से कुछ नहीं होगा! यह अकेले राजेश की कहानी नहीं, इसका कुछ न कुछ हिस्‍सा सबके जीवन में है!

जिसके जीवन में यह कड़वा हिस्‍सा जितना कम है, उसका जीवन उतना ही प्रिय है. यह स्‍नेह, आत्‍मीयता की कमी से उपजा संकट है, जिसके लिए केवल हमारी संकरी सोच-प्रेम की कमी दोषी है, कोई दूसरा नहीं.

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