याद रखिए, प्रेम, आत्मीयता और स्नेह समाज से इसलिए कम हो रहे हैं, क्योंकि इनकी चिंता में घुलने वाले तो बहुत हैं, लेकिन इन्हें दूसरों तक पहुंचाने वाले बहुत कम हैं. और जिस चीज के समर्थन में कम लोग होते हैं, वह चीज धीरे-धीरे गायब होती जाती है.
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इन दिनों जो संवाद सबसे अधिक सुनने को मिलता है, उनमें से एक यही होता है, बोरियत बढ़ती जा रही है. काम से फुरसत ही नहीं मिलती. जिस आदमी के पास कोई काम नहीं, वह भी आपको न मिलने के एक हजार कारण गिना देता है. जो अच्छे भले काम में लगे हैं, वह न जाने किस बात से भीतर-भीतर खोखले हुए जा रहे हैं. क्या है, जो हमें अंदर से कमजोर और निरंतर कमजोर बनाता जा रहा है.
अभी बहुत वक्त नहीं बीता है, उस समय को जिस पर हमारे बच्चों के बच्चे शायद यकीन न कर सकें. संयुक्त परिवार. सांझा चूल्हा. हर हफ्ते एक-दूसरे से मिलने का नियम. कोई चिंता, दुख जो भी है, उसे तब दिल में रखने की छूट नहीं थी.
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सबकुछ मानो आत्मा में हाथ डालकर बाहर निकलवा लिया जाता था. मजाल है कि मन में कुछ रह जाए. बच्चे पढ़ने में कमजोर बर्दाश्त कर लिए जाते थे, लेकिन उनका ‘सोशल’ बिहेवियर में खराब होना बर्दाश्त के बाहर की चीज थी.
एक-दूसरे के यहां पहुंचना, एक-दूसरे को टटोलते रहना. हमारे सामाजिक शिष्टाचार का अभिन्न हिस्सा था. इससे बड़ों के साथ बच्चों में भी एक प्रकार की समरसता रहती थी.
बच्चों को अपने चचरे-फुफेरे-ममेरे (कजिंन्स) भाई-बहनों के अलावा मोहल्ले, पड़ोस के बच्चों के साथ लगभग अनिवार्य रूप से मित्रता, भाईचारा रखना होता था.
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यहां इस बात को समझना जरूरी है कि तब भी सारी प्रतिष्ठित परीक्षाएं थीं. आईएएस, आईआईटी, सीए, सीएस समेत मेडिकल की तमाम परीक्षाएं तब भी वैसी ही अस्तित्व में थीं, जैसी आज हैं. तब भी कुछ बच्चे इनमें चुने जाते थे, ज्यादातर नहीं चुने जाते थे! जैसा आज है, वैसा ही तब भी था.
अंतर केवल इतना है कि बच्चों को तब केवल पढ़ाई की ओर नहीं दौड़ाया जाता था. अभिभावक इस बात के प्रति सचेत, सुचिंतित रहते थे कि उनका बच्चा सामाजिक हो. एक-दूसरे से मिले. एक-दूसरे के प्रति स्नेह, आत्मीयता, और प्रेम की घुट्टी बचपन में ही अच्छे से घोलकर पिलाई जाती थी.
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आज जिसे हम युवा पीढ़ी कह रहे हैं, उन सबकी परवरिश ऐसे ही माहौल में हुई है. जहां अकेलेपन का प्रवेश वर्जित था. जहां समस्या को दूसरे से कहना सिखाया जाता था. ऐसे माहौल में तैयार हुए युवा अपने बच्चों को कितने कठिन, विचित्र तरीकों से पाल-पोस रहे हैं.
आज माता-पिता कह रहें है कि सारी गलती स्कूल की है. स्कूल से पूछिए तो बताएंगे कि अरे! सब किया धरा तो अभिभावकों का है. उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं.
ऐसे में हमें लौटना तो पैरेंट्स के पास ही होगा. क्योंकि आखिर में बच्चा तो उनका ही है. इसलिए बच्चों को ‘बाॅनबीटा’ के साथ दूसरों से प्रेम, स्नेह और मानवता की शिक्षा थोड़ी-थोड़ी बचपन से पिलानी होगी.
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इससे हो सकता है, बच्चे का फोकस थोड़ा कम हो! लेकिन मनुष्यता के इंडेक्स में वह सही जगह होगा. इसकी सौ प्रतिशत गारंटी है. यहां सबसे जरूरी बात यह है कि हम बच्चों को प्रेम की कितनी ‘बड़ी’ गली में भेज रहे हैं. उनका दिल, दिमाग दूसरों के लिए जितना अधिक खुला होगा. उनमें आत्मीयता की भावना दूसरों के लिए उतनी ही गहरी होगी.
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याद रखिए, प्रेम, आत्मीयता और स्नेह समाज से इसलिए कम हो रहे हैं, क्योंकि इनकी चिंता में घुलने वाले तो बहुत हैं, लेकिन इन्हें दूसरों तक पहुंचाने वाले बहुत कम हैं. और जिस चीज के समर्थन में कम लोग होते हैं, वह चीज धीरे-धीरे गायब होती जााती है.
इसलिए अपने समीप, नजदीक लोगों को साथ लाने की कोशिश करें. प्रेम, आत्मीयता और स्नेह से ही रिश्तों की उदासी, तनाव और डिप्रेशन को दूर किया जा सकता है. बस, एक बार हमें इस पर यकीन तो हो जाए!
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