डियर जिंदगी: कितने 'नए' हैं हम!
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डियर जिंदगी: कितने 'नए' हैं हम!

नया कहने से नहीं होता, नया दिखना होता है. नया साबित करना होता है. नया पहनने की चीज नहीं है, वह नितांत आंतरिक विचार है. मन के भीतर अगर आप नहीं बदले, तो बाहर का कोई अर्थ नहीं!

डियर जिंदगी: कितने 'नए' हैं हम!

याद के कितने पर्यायवाची हैं. सब सोच लीजिए. उसके बाद दो पल ठहरिए, सोचिए कि इन शब्‍दों में कहीं, 'अतीत' आया क्‍या. अगर आया तो बहुत अच्‍छा, नहीं आया तो बस इतना कि आता तो अच्‍छा होता! यह इसलिए कि नए की बात करते समय हम अक्‍सर, अतीत से चिपके रहते हैं. अतीत से इसलिए सटे रहते हैं, क्‍योंकि हम 'याद' शहर से खुद को बाहर नहीं निकाल पाते. हम नए की योजना बनाते समय अक्‍सर पुराने के आसपास होते हैं. अगर आप नए की रचना पुराने ख्‍याल के साथ करेंगे, तो नया आएगा कहां से.

हम जो हर जन्‍मदिन पर पुराने हुए जा रहे हैं, उनको ताजगी कहां से मिलेगी. कैसे मिलेगी! इसका उपाय कहां है. इसलिए उम्र तो बढ़ती जाती है, लेकिन सोच वही रहती है. सोच, समझ में ताजगी, नयापन बहुत कम लोग हासिल कर पाते हैं!

एक सरल मिसाल से समझते हैं...

एक मित्र के यहां आज से बीस साल पहले उनकी बहन ने प्रेम विवाह कर लिया. सबकी नाराजगी मुझे नहीं अखरी, लेकिन मित्र जो खुद को आधुनिक बताने का मौका नहीं छोड़ते थे. उन्‍हें एक नौकरीपेशा, सुशिक्षि‍त लड़के से बहन की शादी पर केवल इसलिए ऐतराज था, क्‍योंकि उनकी जाति भिन्‍न थी.

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उन्‍होंने इस विवाद को बहुत बड़ा बना दिया था. आगे चलकर इस परिवार ने एक विचित्र मोड़ देखा. उनकी दूसरी बहन की शादी समाज में ही संपूर्ण रीति रिवाज से हुई, लेकिन पांच बरस बाद तलाक हो गया. क्‍योंकि लड़के ने जिंदगी का बहुत सारा हिस्‍सा मुंबई में गुजारा था, इसलिए एक छोटे शहर की लड़की के साथ उनके अनुसार तालमेल में समस्‍या आ रही थी. मित्र ने तब भी इसे सरलता से होने नहीं दिया. लेकिन अंतत: तलाक हो गया.

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अब बीस साल बाद...

उनकी बेटी ने उनके सुझाए लड़के से विवाह करने से इनकार कर दिया. इसलिए नहीं कि उसकी पसंद कुछ और है. बल्कि इसलिए क्‍योंकि उसे अधिक शिक्षित, अपने प्रोफेशन का जीवनसाथी चाहिए. मित्र खूब फैशनेबल हैं. सोशल मीडिया पर आधुनिक विचार से लदे पड़े हैं. खुद को आधुनिक कहने का शायद ही कोई मौका छोड़ते हैं. अब बेटी के विरुद्ध खड़े हैं.

उन्होंने मुझसे पूछा. मैंने कहा, 'भाई कुछ तो नई बात कहो. तुम हमेशा विरोध में ही क्‍यों खड़े रहते हो. समय बदल गया, लेकिन तुम्‍हारी सोच, नजरिया, समझ में कुछ भी नयापन नहीं आया.'

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उन्होंने कहा, 'नहीं! यह सही नहीं है. अगर ऐसा होता तो मैं बेटी को उच्‍च शिक्षा के लिए दिल्‍ली क्‍यों भेजता. उसे कभी बेटी मानकर भेदभाव नहीं किया.'

मैंने यह कहकर अपनी बात समाप्‍त की, 'आपने उसे पढ़ाया. इसमें कोई अनोखी बात नहीं. आजकल अनोखा वह है, जो बच्‍चों को न पढ़ाए. आपने उसे आजादी, सुविधा दी, जो सहज मानवीय, पिता का सरल कर्तव्‍य है. इसमें अद्भुत कुछ भी नहीं. हां, आपके पास खुद को नया होने का साबित करने का मौका तब आया जब बेटी ने आपकी पसंद से असहमति जताई. लेकिन आप उससे रूठे बैठे हैं.'

'आप कैसे नए हैं! नया कहने से नहीं होगा, नया दिखना होता है. नया साबित करना होता है. नया पहनने की चीज नहीं है, वह नितांत आंतरिक विचार है. मन के भीतर अगर आप नहीं बदले तो बाहर का कोई अर्थ नहीं!'

उनको मेरी राय आपको कैसी लगी. अपने विचार साझा कीजिएगा.

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