बच्चे असल में बच्चे नहीं होते. वह तो हमारा विस्तार हैं. हमारी समझ, सोच और संवेदना का. किसी बड़े से कुछ छिप सकता है, लेकिन उस घर के बच्चे से नहीं.
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युवा देश होने के घमंड, नारे के जयघोष के बीच हम भूल रहे हैं, वो जो 'अयुवा' हो गए हैं, उनका क्या हुआ. संयुक्त परिवार, एक दूजे से प्रेम की दुहाई देने वाले समाज में अब बुजुर्गों के लिए आशियाने वाले विज्ञापन ध्यान से पढ़़े जा रहे हैं. दो दोस्त एक-दूसरे से आसानी से कह रहे हैं कि वह पिताजी\माताजी से तंग आ गए हैं. दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता छोड़िए अब तो भोपाल, जयपुर, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में भी बुजुर्गों के लिए आश्रम, आशियानों की मांग बढ़ रही है.
क्या, इसी युवा समाज की कामना थी! असंवेदी युवा का क्या कीजिएगा. जो अपनों को छांव नहीं बख्शता, उसकी किसी भी रूप में समाज, देश, संस्था के लिए उपयोगिता पर संदेह बना रहता है.
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अपने अभिभावकों के लिए बोझ जैसी सोच हमें कहां ले जाएगी. बिना दादा-दादी के जो बच्चे बड़े हो रहे हैं, वह अपने बच्चों को दादा-दादी के साथ कैसे रख पाएंगे. यह सरल, सहज बात हम निरंतर ‘इग्नोर’ किए जा रहे हैं.
‘जैसे करनी, वैसी भरनी’ का नियम किसी दूसरे ब्रह्मांड के लिए नहीं है. यह मनुष्य के एक दूजे से प्रेम, स्नेह के बंधन से बंधा नियम है. आप जिस रास्ते चलेंगे, वहां आपके निशां बाकी रहेंगे ही. जैसे अपराधी कितना ही चतुर क्यों न हो, पुलिस के लिए कुछ सुराग छोड़ ही जाता है. ठीक वही रिश्ता पिता, बच्चे और दादा-दादी के बीच का है. आप कितना ही अपने बच्चे से अपने अभिभावकों के प्रति व्यवहार छुपा लें, उसके सबूत मिटा लें, लेकिन बच्चे सब जान जाते हैं. समझ जाते हैं.
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बच्चे असल में बच्चे नहीं होते. वह तो हमारा विस्तार हैं. हमारी समझ, सोच और संवेदना का. किसी बड़े से कुछ छिप सकता है, लेकिन उस घर के बच्चे से नहीं.
बच्चे संवेदना, भावना पढ़ने में सबसे अधिक तेज़ होते हैं. इसलिए वह समझ रहे हैं कि आप अपने बुजुर्ग माता-पिता के लिए क्या खोज, तलाश रहे हैं. आप यकीन रखिए वह आपके लिए उससे भी ‘बेहतरीन’ आश्रम खोज लाएंगे जो आपने उनके दादा-दादी के लिए तलाश किए हैं.
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अब एक सच्चा लेकिन फिल्मी नाटकीयता वाला किस्सा सुनते चलिए. नोएडा के एक लग्जरी सेक्टर में जहां जीवन को सुखमय बनाने वाली सारी सुविधाएं हैं. बेटा और बहू अपने विधुर ससुर विकास सचेदवा के लिए एक कोना तलाशने में असमर्थ हो गए.
विकास के बेटे से उनकी पत्नी ने एक दिन कह दिया, ‘अब पिताजी के साथ गुजारा मुश्किल है. हम उनके हिसाब से कब तक चलेंगे! हमारे सपनों का क्या होगा. हम तो कोशिश कर रहे हैं लेकिन वह हमारे हिसाब से कुछ एडजस्ट नहीं करते. उनके लिए कोई बढ़िया आश्रम तलाश लो. इनके दोस्त का जो आश्रम है, वहीं छोड़ आओ.’
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बेटा अगले ही शनिवार पिताजी को लेकर ऋषिकेश पहुंच गया. वहां एक अनाथालय है जो कि शक्ल बदलकर आश्रम के रूप में चलाया जाता है. वह रास्ते भर पिताजी को परेशानी गिनाता रहा. जबकि पिता मौज में रहे. उन्होंने बता दिया कि सबकुछ तुम्हारे नाम पर ही है बिल्कुल चिंता मत करो. अब जिंदगी तुम्हें देखनी है.
उसने उन्हें आश्रम के अंदर छोड़ा. तुरंत वहां से निकल गया. लेकिन तभी उसे याद आया कि कुछ जरूरी कागज पर हस्ताक्षर लेना भूल गया. तो वह उल्टे पांव लौटा.
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अंदर देखा कि पिताजी आश्रम के मैनेजर से गप्पे लड़ा रहे हैं. दोनों पुराने दोस्तों की तरह बतिया रहे हैं. उसे कुछ अजीब लगा. वहीं ठहरकर उसने थोड़ा इंतजार करने का मन बनाया. इतने में पिताजी किसी काम से अपने कमरे की ओर चले गए.
बेटे ने अंदर जाकर मैनेजर से कहा, ‘आप मेरे पिताजी को कब से जानते हैं.’ मैनेजर ने कहा, 'बहुत पुरानी पहचान है. वैसे उन्हें तब से ही जानता हूं, जब वह यहां से तुम्हें लेने आए थे. आज ठीक उसी जगह तुम उन्हें छोड़कर जा रहे हो.’
बेटे ने कई बार पूछा, आप सच कह रहे हैं! मैनेजर ने हर बार कहा, ‘सबकुछ वैसा है, बस किरदार बदल गए. वह तुम्हें बच्चा समझ लेकर गए थे. तुम उन्हें बोझ समझ छोड़े जा रहे हो!’
कहानी खत्म.
अंत में बस इतना…
अगर, माता-पिता को ‘आश्रम‘ छोड़ने जा रहे हैं तो कम से कम एक बार यह जरूर पता कर लें कि वह आपको कहां से, कैसे और किन मुश्किलों में 'लाए' थे. कैसे उन्होंने इतना काबिल बनाया कि आप आश्रम का खर्च उठा सकें!
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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