डियर जिंदगी : ‘बड़े’ बच्‍चों को भी चाहिए प्रेम
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डियर जिंदगी : ‘बड़े’ बच्‍चों को भी चाहिए प्रेम

बच्‍चा कितना ही बड़ा हो जाए, माता-पिता के लिए बच्‍चा ही है. और उसके बच्‍चा बने रहने में कोई गलती नहीं, वह बस थोड़े से स्‍नेह का स्‍पर्श ही तो मांग रहा है.

डियर जिंदगी : ‘बड़े’ बच्‍चों को भी चाहिए प्रेम

किसी उम्र के बाद बच्‍चे को प्रेम नहीं चाहिए! कब माता-पिता को यह समझ लेना चाहिए कि अब बच्‍चा बड़ा हो गया है, उसे स्‍नेह के स्‍पर्श की जरूरत नहीं है. मेरे विचार से तो ऐसी कोई उम्र है ही नहीं, जहां जाकर प्रेम के लेप की जरूरत बच्‍चे को न हो. लेकिन घर, परिवार, समाज आहिस्‍ता-आहिस्‍ता इसी ओर बढ़ रहे हैं.

बड़ा होने पर भी बच्‍चा, अपने अभिभावक के लिए बच्‍चा ही तो है. अगर आपकी उम्र चालीस बरस की है तो भी मां आपको बेटा ही तो कहेगी, उसे उतना ही लाड़, स्‍नेह बच्‍चे से होगा जितना उस मां को जिसका बच्‍चा दस बरस का है. ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि एक बच्‍चा जिसे तमाम मुश्किलों के बीच बड़ा किया गया है, उसके बड़े होते ही उस पर से स्‍नेह की छांव उठा लेने का निर्णय अच्‍छा नहीं. बड़े बच्‍चे के अंतर्मन को भी उस ‘मिठास’ की आरजू है, जो तनाव,उदासी से निपटने की संजीवनी है!

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कल झांसी, उप्र से ‘डियर जिंदगी’ के पाठक आनंद जैन ने मुझे ‘बड़े’ बच्‍चों के उनके अभिभावकों से निरंतर कम होते स्‍नेह का किस्‍सा सुनाया, जिससे आज सुबह तक यह विषय मेरे दिल-दिमाग में शोर मचाता रहा.

यह आनंद के गांव घर की बात है. वह इस पूरे परिवार से बहुत अच्‍छी तरह परिचित हैं. यहां मैं इस घटना के थोड़े विस्‍तार में इसलिए भी जाऊंगा क्‍योंकि आनंद की बात बेहद चिंता में डालने वाली है. अक्‍सर यह सब हमारे आसपास होता रहता है, लेकिन हमारी नजर उस ओर तब तक नहीं जाती, जब तक अप्रिय न घट जाए.

आनंद ने बताया कि झांसी में एक संपन्‍न परिवार के दो बेटे थे. कोई दस बरस पहले दोनों शिक्षामित्र चुने गए. इनमें से एक को बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कोई चालीस हजार के वेतन से सीधे लगभग दस हजार रूपए पर आना पड़ा. जिस बेटे को सीधे 40 हजार से दस हजार के भीतर आना पड़ा, जाहिर तौर पर उसे परेशानी हुई. क्‍योंकि उसके दो बच्‍चे थे और उनने अपने खर्चे उस बढ़ी आय के अनुपात में बढ़ा लिए थे. जिसे हम स्‍वाभाविक तौर समझ सकते हैं.

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इस बीच इन्‍होंने कुछ कर्ज मित्रों से ले लिया. जब वह उसे चुकाने में असमर्थ रहे तो उन्‍होंने पिता की ओर रुख किया. पिता का कहना था कि यह कर्ज बेटे ने निजी तौर पर लिया है, इसलिए उसे ही लौटाना होगा. तब उन्‍होंने कुछ परिवार के प्रति अपने योगदान को गिनाया. लेकिन पिता उनके तर्क से सहमत नहीं हुए.

यहां तक को सारी चीजें हमें सामान्‍य लगती हैं. जैसी कहानी घर-घर की होती है. लेकिन यहीं पर एक मोड़ है.जहां हमें रुककर थोड़ा ठहरने की जरूरत है.     

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पिता कर्ज नहीं दे सकते थे\ नहीं दे सके\ देना चाहते थे. उससे भी कहीं अधिक जरूरी है कि वह अपने बेटे को स्‍नेह भी नहीं दे रहे थे. एक बेटा बार-बार पिता के पास मन, आत्‍मा के स्‍नेहन ( लुब्रिकेशन) के लिए जाता लेकिन पिता एकदम पुराने जमाने के सांमती तेवर वाले! जिसके भीतर दुनिया के लिए प्रेम भरपूर है, लेकिन बेटे से प्रेम करना सिखाया ही नहीं गया. कौन समझाए इन ‘पुराने’ पिताजी को कि अब बच्‍चों पर तनाव बढ़ गए हैं, उन्‍हें वैसे ही लाड़ कि जरूरत है, जैसे आपके नाती, नातिन को है.

कुछ दिन बाद!

बेटा अपनी मां के पास पहुंचा उससे कहा, ‘मां, मेरे पीछे मेरे बच्‍चे और पत्‍नी का ध्‍यान रखना.’ मां ने उसकी बात को सहज चिंता समझते हुए हल्‍के से डांटा, फालतू बातें न करो, जाओ अपना काम करो. उसके बाद बेटा बाजार गया और सल्‍फास की गोलियां ले आया. वह गोलियां भीतर रखकर आया. उसके बाद वह फिर पिता के पास गया, उन्‍हें अपनी बात समझाने, मदद के लिए और शायद इससे भी बढ़कर उस प्रेम के लिए जो उसे कहीं से नहीं मिल रहा था. लेकिन पिता जो यह मान बैठे होंगे कि बेटा बड़ा हो गया, जिंदगी का खुद सामना करेगा. उसकी आंखों, मन को पढ़ने में असफल रहे.

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बेटा, पिता के पास से भीतर गया. भीतर जाते वक्‍त उसके ‘अंदर’ कुछ ऐसा टूटा कि उसने तय कि अब बस. उसने कुछ देर बात गोलियां खाकर आत्‍महत्‍या कर ली.

अब माता-पिता उन्‍हीं सब बातों को दुहरा रहे हैं, जिनका हमने ऊपर जिक्र किया है. उन्‍हें इस बात का अफसोस ताउम्र रहने वाला है कि काश! हमने उसके मन में उमड़ रही निराशा, उदासी को उसके निरंतर संकेत के बीच समझ लिया होता.

मैं केवल इस अनुरोध के साथ बात खत्‍म करूंगा कि बच्‍चा कितना ही बड़ा हो जाए, माता-पिता के लिए बच्‍चा ही है. और उसके बच्‍चा बने रहने में कोई गलती नहीं, वह बस थोड़ा से स्‍नेह का स्‍पर्श ही तो मांग रहा है.

अपने बच्‍चों के लिए स्‍नेह की इतनी कमी मत कीजिए....

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