बॉलीवुड जिस तरह की चीजें रचता है, उसमें ऐसी रचना की गुंजाइश नहीं होती. तीनों ‘खान’, अमिताभ बच्चन में ऐसा ‘लोहा’ नहीं है, जिस पर पांच सौ करोड़ का दांव वह भी पर्यावरण पर आधारित कथा के लिए लगाया जा सके!
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रजनीकांत भारत के संभवत: पहले ऐसे अभिनेता हैं , जिनके नाम के पहले फिल्म में सुपरस्टार लिखा जाता है. रजनीकांत के विषय, उनका सुपर ह्यूमन रवैया, नजरिया सबकुछ इस बात पर होता है कि उनके प्रशंसक इसके लिए तैयार हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि फिल्म देखने वालों के लिए नहीं बनाई जाती, बल्कि रजनीकांत के लिए बनाई जाती है, जिसे उनके चाहने वाले भी देखते हैं. शायद, इसी वजह से मैं उनकी फिल्मों के लिए कभी सिनेमा हॉल नहीं जा सका. जो देखा टेलीविजन पर ही देखा.
यह सिलसिला कुछ समय पहले ‘काला’ से टूटा. अपनी तमाम कमियों के साथ यह दलित विमर्श, राजनीति और समकालीन राजनीति पर एक उम्दा रचना थी. इसमें रंग, अलंकार और कैमरे की मदद से बहुत कुछ कहने की जगह समझने पर छोड़ दिया गया. संकेत कहे गए शब्द से अधिक खास होते हैं. ‘काला’ संकेत के संगीत से सजी-संवरी कहानी है.
‘काला’ के आधार पर 2.0 को देखने का मन बनाया. खुशी है कि यह अच्छा निर्णय रहा.
‘डियर जिंदगी’ में हम मोबाइल, गेमिंग के घातक प्रभाव पर संवाद करते रहे हैं. 2 .0 जैसी भव्य, लोकप्रिय फिल्म का इस विषय पर आना सुखद संकेत है. हम कम से कम पर्यावरण, परिंदों के लिए मनुष्य के बहाने ही सही चिंतित तो हुए! 2.0 साहसी फिल्म है, जो रजनीकांत के बिना संभव नहीं थी.
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बॉलीवुड जिस तरह की चीजें रचता है, उसमें ऐसी रचना की गुंजाइश नहीं होती. तीनों ‘खान’, अमिताभ बच्चन में ऐसा ‘लोहा’ नहीं है, जिस पर पांच सौ करोड़ का दांव वह भी पर्यावरण पर आधारित कथा के लिए लगाया जा सके!
2.0 के लिए हमें रजनीकांत, शंकर का शुक्रगुजार होना चाहिए. इसे देखते हुए कम से कम बच्चे, युवा पक्षियों, पर्यावरण पर रेडिएशन के लिए चिंतित हो रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि जिस नेटवर्क के लिए वह तड़पते रहते हैं, असल में उसकी मौजूदगी की कितनी बड़ी कीमत हमें चुकानी पड़ सकती है.
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फिल्म देखते हुए पांच बरस की बच्ची ने पिता से कहा, 'पापा! आपके मोबाइल के कारण खिड़की पर अब चिड़िया नहीं आती. आपको इतनी सी बात समझ में क्यों नहीं आती. हम पक्षीराज अंकल की बात क्यों नहीं सुनते!’
पिता उसे घूरते हुए चुप करा देते हैं. काश! हम समझ पाते कि समस्या सवाल में नहीं, हमारे लालची व्यवहार में है!
बरसों बाद ऐसी फिल्म हमारे सामने है, जिसमें कम से कम डिप्रेशन, उदासी, अकेलेपन और परिंदों की सेहत को विज्ञान से जोड़ा गया है. विज्ञान के सही, संतुलित उपयोग पर संवाद किया गया.
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मोबाइल के इतने बड़े शक्तिशाली बाजार को सीधे - सीधे फिल्म में चुनौती दी गई है. जिसके लिए अलग से इसके निर्माता, रजनीकांत को बधाई दी जानी चाहिए. रजनीकांत ने समूची टेलीकॉम इंडस्ट्री को ऐसे समय नाराज करने का हौसला दिखाया है जब वह राजनीति में उतरने के बहुत नजदीक हैं.
राजनीति में वह पर्यावरण, विज्ञान के उपयोग और सामाजिक सरोकार की इस फिल्म के मुकाबले आधी भी चिंता रख सके, तो इससे तमिलनाडु को नई दिशा मिल सकती है. हालांकि इस बारे में कुछ भी कहना बहुत जल्दबाजी होगी. लेकिन इस समय कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि इतने बड़े बजट की फिल्म को समाज की चिंता से जोड़े रखना और बाजार की नाराजगी की चिंता नहीं करना, सोचा समझा ही सही, लेकिन बड़ा जोखिम था .
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कमजोर अंत और पक्षीराज के प्रति कुछ असंवेदनशील संवाद के बाद भी 2 .0 सिनेमा की बाजार, राजनीति पर गंभीर टिप्पणी है. कितना अच्छा हो कि हम फिल्म देखने गए बच्चों के मन में पर्यावरण, परिंदों के बारे में उठ रहे सहज सवाल का ईमानदारी से जवाब दें. यह कहकर उनके सवालों से बचने की कोशिश न करें कि ‘फिल्म थी, खत्म हो गई. परेशान मत करो, मेरा मोबाइल ले लो!’
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