165 साल के निचोड़ के रूप में तैयार की गई किताब का निचोड़ भी आपको पुस्तक के अंत में मिल जाता है यानि अगर आप महज़ दो पन्नो में भी पूरे विवाद को और इसके क्रोनोलॉजिकल ऑर्डर को समझना चाहते हैं तो आप वो भी कर सकते हैं.
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‘अदालत के चक्कर ‘ ये एक ऐसी कहावत है ना जिसे अनुभव करने वाले ही नहीं सुनने वाले के अंदर सिहरन भी एक सिहरन सौ दौड़ जाती है. कुछ मसले पारिवारिक होते हैं, कुछ सामाजिक लेकिन बिरले है ऐसे मसलें होंगे जो सामाजिक से ज्यादा राजनीतिक हो जाते है. जहां पेंच इतने उलझे हुए रहते हैं कि उन्हें सुलझा पाना मुश्किल हो जाता है. और जब ऐसे विवाद के साथ धर्म और आस्था का प्रश्न जुड़ जाता है तो बड़ी से बड़ी अदालत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती है.
अयोध्या विवाद भी कुछ ऐसा ही मसला है. जिसकी उलझने सुलझ ही नहीं रही हैं. जब हम कोर्ट केस की बात करते हैं तो हम लंबे समय की बात करते हैं लेकिन जब हम अयोध्या मसले की बात करते हैं तो हम बात कर रहे होंते हैं भारत के सबसे पुराने मुकदमें की. इतना पुराना कि तब आईपीसी और सीपीसी भी ठीक से पैदा नहीं हो पाए थे. भारतीय दंड संहिता 1860 में ड्राफ्ट की गई गई थी. जबकि अयोध्या विवाद कानूनी तौर पर 1853 से चल रहा है. जिसमें से निर्मोही अखाड़ा ने सबसे ज्यादा 133 साल इस केस में दिए हैं, उनके बाद हिंदु महासभा क अदालत के चक्कर काटते 68 साल गुज़र गए हैं वहीं सुन्नी वक्फ बोर्ड पिछले 57 सालों से अपना दावा प्रस्तुत कर रहा है.
करीब 165 साल पुराने इस केस में जज ही नहीं बदले बल्कि अदालतें तक बदल गई. लेकिन मसला सुलझा नहीं . ये एक ऐसा मसला है जिसकी बदौलत देश की राजनीति में भी कई अहम बदलाव हुए है. इस मसले ने 1980 के बाद देश में सबसे ज्यादा रफ्तार पकड़ी और इस तरह देश की अहम पार्टी के मेनिफेस्टों में इसे जगह मिली. भारतीय जनता पार्टी ने 2014, 2009 और 2004 के चुनावी मेनिफेस्टों मे राम मंदिर को जगह दी थी. हालांकि 1991 के बाद ही इसी मसले ने एकदम से भारतीय जनता पार्टी को अहम राष्ट्रीय पार्टी की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था.
अयोध्या मसले पर पिछले 165 सालों से चली आ रही अंतहीन अदालती कार्यवाही का कच्चा चिट्ठा हो या फिर उसके बार में लिए गए फैसलें हो. ये सब कुछ इतनी पेचीदगियों से भरा हुआ है कि आम इंसान तो छोड़िये देश के बड़े बड़े स्कॉलर और पत्रकारों को भी इसे पूरी तरह समझने में पसीना आ जाता है. लाखों पेज के इस अदालत के मामले को समझने के लिए एक जिंदगी कम पड़ जाए.
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता विराग गुप्ता की लिखी हुई किताब ‘अयोध्याज राम टेंपल इन कोर्ट’ शायद इन तमाम मुश्किलों का ही हल है. य़े किताब इतने जटिल और विशाल मुकदम को सटीक जानकारी के साथ समझा देती है. ये किताब दरअसल भारत के सबसे पुराने लंबे और विस्तृत मुकदमे का एक सार-संग्रह है. जिसे पढ़ने के बाद पाठक के मन में उठ रहे अयोध्या मसले से जुड़े तमाम प्रकार के प्रश्नों के जवाब मिल जाते हैं.
एक बार चर्चिल ने कहा था कि अगर मुझे 15 मिनिट बोलना है तो मुझे तैयारी में समय लगेगा लेकिन अगर आप चाहते हैं कि मैं घंटे भर तक बोलूं तो मैं तैयार हूं. लब्लोलुआब ये है कि किसी भी चीज का सार निकालना सबसे कठिन काम होता है. तिस पर अगर मसला कानूनी हो तो ये मुश्किलें पेचीदा हो जाती है. लेकिन इस किताब के ज़रिये जिस तरह से इस पूरे मामले को छोटे छोटे अध्याय और अदालत के फैसलों के जिस्ट के साथ प्रस्तुत किया गया है वो पाठक को एक जटिक प्रक्रिया को आसानी से समझाने में कारगर साबित होता है. 114 पेज की इस पुस्तक को 33 अध्यायों में तब्दील किया गया है . जिसमें हर एक पहलू को सटीक ढंग से रखा गया है. मसलन गर्भगृह और राम लला का जन्म स्थल अध्याय के जरिये उस 2.77 एकड़ के छोटे से टुकड़े जिसे लेकर हिंदु दावा कर रहे हैं कि वो रामलला का जन्मस्थल है वहीं मुस्लिम इसे बाबरी मस्जिद से जुड़ा हुआ हिस्सा मान कर दावेदारी प्रस्तुत कर रहे हैं उस पर इलाहाबाद हाइकोर्ट में जज की बेंच के तीनों जजों के फैसले को बड़ी ही सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत किया गया है.
जिसके जरिये मालूम चलता है कि जहां जस्टिस धर्मवीर शर्मा अपने फैसले में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के जांच और तमाम प्रकार के संदर्भों के मद्देनज़र ये फैसला देते हैं किं ये साइट रामजन्मभूमि मंदिर ही था जिसे 12 सदी में दोबारा बनाया गया था.
इसी तरह सुधीर अग्रवाल भी अपने फैसले में इसे रामजन्म भूमि के तौर पर होना बताते हैं . वहीं जस्टिस एस.यू.ख़ान इसके उलट यहा मस्जिद होने की पैरवी करते हैं.
अगले अध्याय में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट मे जो साक्ष्य मिले उसकी जानकारी मिलती है साथ ही ये पता चलता है कि किस तरह2002 में रेडियो वेव्स सर्वे औऱ 2003 में खुदाई के जरिये ए.एस.आई ने विस्तार के साथ विवादास्पद क्षेत्र की जांच की और नतीजे सामने रखे . जिसके तहत ज़मीन के अंदर मंदिर की दीवार और पिलर होने के साक्ष्य होना बताया गया था.
किताब में आगे जमीन पर केंद्र सरकार के मालिक होने से जुड़े इतिहास और विवाद के बारे में जानकारी मिलती है. जिसमें ये बताया गया है कि किस तरह 6 दिसंबर के बाद केंद्र सरकार ने एक आध्यादेश पारित करके ज़मीन को केंद्र सरकार के आधीन कर लिया था चूंकि उस दौरान उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन था इसलिए ये ज़मीन केंद्र के आधीन आगई थी.
यही नहीं मस्जिद ढहाने वाले मामले के लिए स्पेशल कोर्ट मे जो अलग से कार्यवाही चल रही किताब के ज़रिये उस पर भी रोशनी डाली गई है. इसी तरह से किस तरह से तमाम मामले के इंग्लिश अनुवाद में जो दो साल लगे क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में केवल इंग्लिश भाषा ही मान्य है . किस तरह रिकॉर्ड के ट्रांसफर में तीन साल गए और इसी तरह अलग अलग तरीकों से कैसे अदालत का वक्त जाया हुआ ये किताब उस बारे में भी सटीक जानकारी देती है.
अंत में 165 साल के निचोड़ के रूप में तैयार की गई किताब का निचोड़ भी आपको पुस्तक के अंत में मिल जाता है यानि अगर आप महज़ दो पन्नो में भी पूरे विवाद को और इसके क्रोनोलॉजिकल ऑर्डर को समझना चाहते हैं तो आप वो भी कर सकते हैं.
जो पत्रकार इस मुद्दे को समझना चाहते हैं और जो आगे इस पर रिपोर्टिंग करने वाले हैं उनके लिए ये किताब मील का पत्थर साबित हो सकती है जो उन्हें बिल्कुल सटीक जानकारी वो भी सारगर्भित तरीके से दे सकती है. इसके साथ ही अगर कोई स्कॉलर या आम आदमी भी ‘अयोध्याज राम टेंपल इन कोर्ट’ को पढ़ता है तो इसकी भाषा उसे कहीं भी अटकाएगी नहीं क्योंकि कानूनी भाषाओं से इतर किताब को बहुत ही सरलीकृत करके लिखा गया है. कुल मिलाकर 165 साल की अदालती सफर को महज़ 114 पेज और जुट के पढ़ा जाए तो 3-4 घंटो में पूरा किया जा सकता है.