Arctic Ice Melting: आर्कटिक में बर्फ पिघलने से मानसून में बदलाव क्यों? वजह जानने माइनस 26 डिग्री में जुटे भारतीय वैज्ञानिक
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Arctic Ice Melting: आर्कटिक में बर्फ पिघलने से मानसून में बदलाव क्यों? वजह जानने माइनस 26 डिग्री में जुटे भारतीय वैज्ञानिक

Arctic Warming: उत्तरी ध्रुव या आर्कटिक में ग्लोबल वार्मिंग के चलते तापमान सामान्य से ज्यादा हो गया है. इसके चलते बर्फ तीन-चार गुना तेजी से पिघल रही (Arctic Ice Melting) है. आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ की तेजी से कमी से भारत में मानसून (Monsoon) के उत्तरार्ध पर असर देखने को मिल रहा है.

Arctic Ice Melting: आर्कटिक में बर्फ पिघलने से मानसून में बदलाव क्यों? वजह जानने माइनस 26 डिग्री में जुटे भारतीय वैज्ञानिक

Global Warming In Arctic: आर्कटिक का बढ़ता तापमान और भारत पर बढ़ते इसके असर के रहस्य का पता लगाने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों (Indian scientists) की एक टीम माइनस 26 डिग्री तापमान में भी दिन-रात जुटे हुए हैं. इन वैज्ञानिकों ने बताया कि ऐसी जगह पर हर वक्त गोल चांद दिखता रहता है. नार्वे के स्वालबार्ड द्वीपसमूह पर बने न्यू एलेसुंड साइंस विलेज स्थित भारत के स्थायी रिसर्च स्टेशन हिमाद्री में तैनात आर्कटिक टीम के वैज्ञानिकों ने बताया कि वहां महज कुछ मिनटों की रात होती है. बाकी दिन भर सूरज उगा रहता है. आइए, जानने की कोशिश करते हैं कि भारतीय वैज्ञानिक किन रहस्यों का पता लगाने के लिए ऐसे विषम हालातों में डटे हैं?

वैश्विक औसत अनुपात के मुकाबले कई गुना तेज है आकर्टिक में ग्लोबल वार्मिंग

कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एन्वॉयरमेंट जर्नल में छपे फिनलैंड के मौसम विज्ञान संस्थान के रिसर्चर्स की स्टडी के मुताबिक पृथ्वी के अन्य हिस्सों के मुकाबले आर्कटिक का तापमान चार गुना तेजी से बढ़ रहा है. खासकर आर्कटिक के यूरेशिया हिस्से में तापमान कुछ अधिक तेजी से बढ़ रहा है. इसके अलावा रूस के उत्तर में बैरेंट्स समुद्र और नॉर्वे की ओर का तापमान भी वैश्विक औसत से सात गुना अधिक तेजी से बढ़ रहा है. अमेरिका की जियोफिजिकल यूनियन और जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स भी चेतावनी भरा संकेत दे रहे हैं कि आकर्टिक में ग्लोबल वार्मिंग का विस्तार वैश्विक औसत अनुपात के मुकाबले चार गुना अधिक दर से हो रहा है. 

आर्कटिक में काफी तेजी से बर्फ पिघलने का भारत में मानसून पर सीधा असर 

इससे पहले हुए रिसर्च और स्टडी में भी चेतावनी दी गई थी कि आर्कटिक का तापमान दो से तीन गुना तेजी से बढ़ रहा है. मुश्किल यह है कि आर्कटिक क्षेत्र तेजी से बदल रहा है और बेहतरीन अत्याधुनिक जलवायु मॉडल भी आर्कटिक में तापमान बदलाव की दर और उसकी सटीक भविष्यवाणी करने में सक्षम नहीं हैं. भारतीय वैज्ञानिक इसी रहस्य का पता लगाने के लिए नॉर्वे स्थित स्थायी रिसर्च सेंटर हिमाद्री में जुटे हुए हैं. क्योंकि आर्कटिक में काफी तेजी से बर्फ पिघलने का असर भारत के मानसून पर भी हो रहा है.

क्या-क्या स्पेशल स्टडी या रिसर्च कर रहे हैं हिमाद्री में तैनात भारतीय साइंटिस्ट

हिमाद्री में अगले कई वर्षों तक रिसर्च और स्टडी के लिए तैनात रमण रिसर्च इंस्टीट्यूट, बेंगलुरु के वैज्ञानिक डॉ. गिरीश बीएस, नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ऑशन स्टडीज, गोवा की रिसर्चर अमूल्या आर, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी के सानियर साइंटिस्ट सुरेंद्र सिंह और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मंडी के रिसर्चर प्रशांत रावत ने बताया कि सभी वैज्ञानिक अलग-अलग एक्सपर्ट हैं. ये सभी मिलकर ब्रह्मांड के पहले तारे की तरंग यानी रेडियो फ्रीक्वेंसी पकड़ने, तटीय इलाकों में बारिश के पैटर्न का पता लगाने, इलेक्ट्रीक फील्ड और एरोसोल का अध्ययन कर पोलर क्लाइमेट के बारे में सटीक जानकारी हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.

क्या है आर्कटिक का विस्तार और क्यों हो रहा है? दुनिया के लिए कितना खतरनाक

पृथ्वी की सतह के लंबे समय से गर्म होने से दुनिया भर में तापमान बढ़ रहा है. आधुनिक मानव इतिहास के औद्योगिक दौर से भी पहले से मानवीय गतिविधियों के चलते पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 फीसदी की बढ़त हो चुकी है. इस सिलसिले में पृथ्वी की सतह और हवा के तापमान समेत कुल विकिरण के अनुपात में अंतर से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं. इस भौगोलिक परिघटना को ध्रुवीय विस्तार कहा जाता है. ये सबसे ज्यादा उत्तरी अक्षांश पर देखने में आते है और इन्हें आर्कटिक एम्प्लीफिकेशंस कहते हैं. इसके लिए भी जिम्मेदार फैक्टर्स में आइस-एल्बीडो, लैप्स रेट, वाष्पीकरण और सागर के तापमान प्रमुख है. 

क्या होता है आइस एल्बीडो और लैप्स रेट?  जिसकी वजह से ध्रुवीय विस्तार

बर्फ और खासकर समुद्री बर्फ में प्रकाश के अनुपात को प्रदर्शित करने की सबसे ज्यादा क्षमता होती है. सरल शब्दों में कहें तो सूर्य के विकिरण को यह पानी और जमीन की तुलना में कहीं ज्यादा प्रतिबिंबित करते हैं. आर्कटिक के मामले में वैश्विक तापमान में वृद्धि से समुद्र की बर्फ तेजी से घट रही है. जब समुद्र की बर्फ पिघलती है, तो आर्कटिक महासागर सूर्य का अधिक विकिरण अवशोषित करता है. इससे विस्तार में बदलाव आ रहा है. लैप्स दर यानी जिस दर से ऊंचाई पर तापमान गिरता है, तापमान में वृद्धि होने से लगातार कम हो रही है. स्टडी और रिसर्च बताते हैं कि आइस एल्बीडो और लैप्स रेट की वजह से क्रमशः 40 फीसदी और 15 फीसदी ध्रुवीय विस्तार हो रहा है. 

आर्कटिक में ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने और तेजी से बर्फ पिघलने का कैसा परिणाम

आर्कटिक विस्तार में बदलाव चक्रीय आधार पर होता है. ग्रीनलैंड पर बिछी बर्फ की चादर तेजी से पिघल रही है. इस कड़ी में समुद्री बर्फ के विस्तार में सन 2000 की तुलना में काफी कमी देखी गई. यह भी देखा गया कि समुद्री बर्फ की पुरानी मोटी चादरों का स्थान  बर्फ की नई पतली चादरों ने ले लिया. ग्रीनलैंड  में गर्मी में असामान्य तापमान की वजह से बर्फ की 6 बिलियन टन चादर हर रोज पिघली. यानी महज तीन दिनों में 18 बिलियन टन बर्फ अत्यधिक तापमान की वजह से पिघल गई. बर्फ के पिघलने की यह मात्रा पश्चिमी वर्जीनिया को एक फीट पानी में डुबोने के लिए काफी थी.

दक्षिणी ध्रुव यानी अंटार्कटिका के बाद ग्रीनलैंड की बर्फ की चादरों में सबसे ज्यादा बर्फ है. इस लिहाज से समुद्र स्तर को बरकरार रखने में इसकी अहम भूमिका है. साल 2019 में समुद्र स्तर के 1.5 मीटर बढ़ने के पीछे यही एकमात्र कारण रहा था. अगर ग्रीनलैंड की बर्फ की चादरें पूरी तरह से पिघल जाएं तो समुद्र का स्तर सात मीटर ऊपर उठ सकता है. यानी प्रमुख तटीय शहर और देश इसकी चपेट में आकर अस्तित्व खो  देंगे. 

जैव विविधता, भुखमरी , तापमान में बढ़त जैसी कई दिक्कतों को न्योता

आर्कटिक महासागर और क्षेत्र के अन्य सागरों का गर्म होना, पानी का अम्लीयकरण, खारेपन के स्तर में बदलाव का सीधा असर जैव विविधता पर पड़ रहा है. इसमें समुद्र में पाई जाने वाली प्रजातियों और उन पर निर्भर प्रजातियां भी शामिल हैं. तापमान में वृद्धि से बरसात भी ज्यादा हो रही है, जिससे हिरणों के लिए काई की उपलब्धता और उस तक पहुंच प्रभावित हो रही है. इसी तरह आर्कटिक के विस्तार में बदलाव से यहां पाए जाने वाले जीव-जंतुओं के लिए भुखमरी की स्थिति आ पहुंची है. आर्कटिक में पर्माफ्रोस्ट (ऐसी जमीन जहां मिट्टी लगातार कम-से-कम दो वर्षों तक पानी जमने के तापमान यानि जीरो सेंटीग्रेड से कम तापमान पर रही हो.) बदल रहा है, जिसकी वजह से कार्बन और मिथेन का वातावरण में उत्सर्जन अधिक हो रहा है. वैश्विक तापमान में वृद्धि के लिए खासकर इन्हीं दो गैसों को प्रमुख तौर पर जिम्मेदार माना जाता है. 

आर्कटिक में आ रहे जलवायु बदलाव का भारत में मानसून पर सीधा असर

आर्कटिक में आ रहे जलवायु बदलाव का भारत में मानसून पर प्रभाव को जानने की कोशिश हाल में  बढ़ी हैं. जब हम देश में चरम गर्मी, बरसात या सर्दी वाले मौसम देखते हैं तो कारण जानने की कोशिश करते हैं. इनका असर पानी और खाद्य सुरक्षा पर भी पड़ता है. साल 2021 में भारतीय और नॉर्वे के मौसम विज्ञानियों के प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक बैरेंट्स-कारा समुद्र क्षेत्र में बर्फ की कमी से मॉनसून के उत्तरार्ध यानी सितंबर-अक्टूबर में भारी बरसात देखी गई. कम होती बर्फ और अरब सागर के बढ़ते तापमान से नमी बढ़ी और भारी बरसात का सामना कुछ इलाकों को करना पड़ा. वैश्विक मौसम संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय तटों पर समुद्री स्तर में औसत वैश्विक स्तर के मुकाबले तेजी से वृद्धि हो रही है. इसकी एक बड़ी वजह ध्रुवीय क्षेत्रों खासकर आर्कटिक में समुद्री बर्फ का तेजी से पिघलना है. ऐसे हाल में यह सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि दक्षिण के सुदूरवर्ती उष्णकटिबंधीय इलाकों के लिए भी चिंता का विषय है. 

कभी बर्फ से ढंका रहने वाला टुंड्रा अब धीरे-धीरे पेड़-पौधों से ढंकता जा रहा

हाल ही में दुनिया भर के 36 संस्थानों के 40 वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा स्डटी के दौरान आर्कटिक में बर्फ की चादर की जगह हरियाली के लक्षण देखे गए. वैज्ञानिकों द्वारा यह अध्ययन ड्रोन और उपग्रह प्रणाली जैसी नवीनतम तकनीकों की मदद से किया गया. इसमें अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम आर्कटिक में आने वाले इस परिवर्तन को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश कर रही है कि कैसे कभी बर्फ से ढंका रहने वाला टुंड्रा नामक यह विशाल क्षेत्र अब धीरे-धीरे पेड़-पौधों से ढंकता जा रहा है. 

अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित इसकी रिपोर्ट में  बताया गया है कि आर्कटिक में बर्फ समय से पहले पिघल रही है और वसंत के मौसम में पौधों पर पत्ते जल्द आ रहे हैं. साथ ही टुंड्रा वनस्पति नए क्षेत्रों में फैल रही है. पहले से बढ़ रहे पौधे अब और लंबे हो रहे हैं. साथ ही यह आंकड़ें एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में बदलती जलवायु के बारे में और ज्यादा समझने में मदद कर रहे हैं. क्योंकि पेरिस जलवायु समझौते के अंतर्गत वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया था.

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