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नई दिल्ली: 23 मार्च 1931 को महान क्रान्तिकारी भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु को ब्रिटिश सरकार द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा दी गई थी. भगत सिंह कहते थे कि बम और पिस्तौल से क्रान्ति नहीं आती, क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है. वो भारत को अंग्रेजों की बेड़ियों से आजाद देखना चाहते थे लेकिन आजादी से 16 साल 4 महीने और 23 दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई और उन्होंने भी हंसते हुए अपनी शहादत को गले लगा लिया. इसी सिलसिले में ये जानना भी जरूरी है कि भगत सिंह, महात्मा गांधी की आंखों में चुभने क्यों लगे थे?
भगत सिंह की फांसी से सिर्फ 18 दिन पहले ही महात्मा गांधी ने 5 मार्च 1931 को भारत के तत्कालीन Viceroy Lord Irwin के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसे इतिहास में Gandhi-Irwin Pact कहा गया. इस समझौते के बाद महात्मा गांधी का जमकर विरोध हुआ, क्योंकि उन पर यह आरोप लगा कि उन्होंने Lord Irwin के साथ इस समझौते में भगत सिंह की फांसी को रद्द कराने के लिए कोई दबाव नहीं बनाया. जबकि वो ऐसा कर सकते थे.
महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वर्ष 1930 में जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया था, वो कुछ ही महीनों बाद काफी मजबूत हो गया था. इस आन्दोलन के दौरान ही महात्मा गांधी ने 390 किलोमीटर की दांडी यात्रा निकाली थी और उन्हें 4 मई 1930 को गिरफ्तार कर लिया गया था.
25 जनवरी 1931 को जब महात्मा गांधी को बिना शर्त जेल से रिहा किया गया, तब वो ये बात अच्छी बात तरह समझ गए थे कि अंग्रेजी सरकार किसी भी कीमत पर उनका आंदोलन समाप्त कराना चाहती है. और इसके लिए वो उनकी सारी शर्तें भी मान लेगी. और फिर 5 मार्च 1931 को ऐसा ही हुआ.
वायसराय लॉर्ड इरविन ने गांधी-इरविन पैक्ट के तहत नमक कानून और आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए नेताओं को रिहा करने पर अपनी सहमति दी तो महात्मा गांधी अपना आंदोलन वापस लेने को राजी हो गए. लेकिन इस समझौते में यानी इस दौरान भगत सिंह की फांसी का कहीं कोई जिक्र नहीं हुआ. 1996 में आई किताब The Trial of Bhagat Singh में वकील और लेखक A.G. Noorani लिखते हैं कि महात्मा गांधी ने अपने पूरे मन से भगत सिंह की फांसी के फैसले को टालने की कोशिश नहीं की. वो चाहते तो ब्रिटिश सरकार पर बने दबाव का इस्तेमाल करके तत्कालीन वायसराय को इसके लिए राजी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. 1930 और 1931 का साल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में काफी अहम साबित हुआ.
ये वो समय था, जब देश में लोगों की ज़ुबान पर महात्मा गांधी का नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह का नाम था. लोगों को ऐसा लगने लगा था कि महात्मा गांधी देश को अंग्रेजों से आजाद तो कराना चाहते हैं लेकिन इसके लिए वो अंग्रेजों के बुरे भी नहीं बनना चाहते. जबकि भगत सिंह का मकसद बिल्कुल साफ था. वो अंग्रेजों को किसी भी कीमत पर देश से भगाना चाहते थे. और बड़ी संख्या में लोगों का प्यार और समर्थन भी उन्हें मिल रहा था.
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23 March को जब लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह को फांसी की सजा दी गई, तब इससे कुछ ही घंटे पहले महात्मा गांधी ने लॉर्ड इरविन (Lord Irwin) को एक चिट्ठी लिखी थी इसमें उन्होंने लिखा था कि ब्रिटिश सरकार को फांसी की सजा को कम सजा में बदलने पर विचार करना चाहिए. उन्होंने लिखा था कि इस पर ज्यादातर लोगों का मत सही हो या गलत लेकिन लोग फांसी की सजा को कम सजा में बदलवाना चाहते हैं. उन्होंने ये लिखा था कि अगर भगत सिंह और दूसरे क्रान्तिकारियों को फांसी की सजा दी गई तो देश में आंतरिक अशांति फैल सकती है. उन्होंने इस चिट्ठी में कहीं ये नहीं लिखा कि भगत सिंह को फांसी की सजा देना गलत होगा. उन्हें बस इस बात का डर था कि लोग इसके खिलाफ हैं और अगर ये सजा दी गई तो हिंसा जैसा माहौल बन सकता है. महात्मा गांधी ने इस चिट्ठी में बताया कि वायसराय लॉर्ड इरविन ने पिछली बैठक में अपने फैसले को बदलने से मना कर दिया था. लेकिन उन्होंने ये भी कहा था कि अगर गांधी इस पर उन्हें विचार करने के लिए कहते हैं, तो वो इस पर सोचेंगे.
महात्मा गांधी ने कभी भी दिल से भगत सिंह की फांसी को रद्द करवाने का प्रयास नहीं किया. 18 फरवरी 1931 को उन्होंने खुद अपने एक लेख में ये माना था कि कांग्रेस वर्किंग कमिटी (CWC) कभी नहीं चाहती थी कि जब गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच समझौते के लिए बातचीत शुरू हो तो इसमें भगत सिंह की फांसी को रद्द करवाने की शर्त जोड़ी जाए. महात्मा गांधी ने ये जानते हुए भी उस समय भगत सिंह का खुल कर साथ नहीं दिया कि अंग्रेजी सरकार ने उनके खिलाफ एकतरफा मुकदमा चलाया था.
भगत सिंह को फांसी की सजा ब्रिटिश पुलिस अफसर John Saunders की हत्या के लिए हुई थी. लेकिन इस मामले में अंग्रेजी सरकार मुकदमा शुरू होने से पहले ही भगत सिंह के खिलाफ अपना फैसला सुना चुकी थी. इसके लिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को एक अध्यादेश पास किया था. जिसके तहत हाई कोर्ट के तीन जजों का स्पेशल Tribunal बनाया गया जिसका मकसद था भगत सिंह को जल्दी से जल्दी फांसी की सजा देना. बड़ी बात ये थी कि इन तीनों जजों के फैसले को भारत की ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. अपील के लिए सिर्फ एक विकल्प दिया गया था जो काफी मुश्किल था. इसमें इंग्लैंड की Privy Council में ही इस फैसले को चुनौती देने की छूट थी. यानी ये विकल्प पूरी तरह दिखावटी था.
इसके अलावा जब भगत सिंह के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा था. तब उनके वकील राम कपूर ने अदालत से 457 गवाहों से सवाल पूछने की इजाजत मांगी थी. लेकिन उन्हें सिर्फ पांच लोगों से ही सवाल पूछने की मंजूरी मिली. यानी भगत सिंह के खिलाफ एकतरफा मुकदमा चला और ब्रिटिश सरकार ने न्याय के सिद्धांत का भी गला घोंट दिया. और इस तरह 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुना दी गई. लेकिन इससे भी ज्यादा हैरानी की बात ये है कि महात्मा गांधी ये सारी बातें जानते थे. उन्हें पता था कि अंग्रेजी सरकार भगत सिंह को मौत की सजा देने के लिए बेकरार है. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी भगत सिंह की फांसी रद्द करवाने के लिए कोई आन्दोलन, कोई हड़ताल नहीं की.
और ये बात उस समय के भारत के लोगों को काफी चुभ रही थी. और यही वजह है कि इस फांसी के तीन दिन बाद जब 26 मार्च 1931 को कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ, उस समय महात्मा गांधी के फैसले से नाराज लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाने शुरू कर दिए. माना जाता है कि महात्मा गांधी इस विरोध से बचने के लिए ट्रेन में भगत सिंह के पिता को अपने साथ ले गए थे. और उन्होंने इस अधिवेशन के दौरान एक प्रस्ताव में भगत सिंह के भी कुछ विचारों को शामिल करने पर अपनी सहमति दी थी, जिससे उनके खिलाफ नाराजगी कम हो सके.
यानी जनता की ताकत और उसके गुस्से ने उस ज़माने में महात्मा गांधी को भी चिंतित कर दिया था. और उन्हें लोगों के इस गुस्से से बचने के लिए भगत सिंह के पिता का सहारा लेना पड़ा था. एक और बात, जिसका इतिहास में ज्यादा अवलोकन नहीं हुआ. वो ये है कि, भगत सिंह की फांसी के बाद जब देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे थे और महात्मा गांधी के खिलाफ काफी नाराजगी थी. तब गांधी सितंबर 1931 को लंदन में होने वाली सेकेंड राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस की तरफ से शामिल होने के लिए चले गए थे. इसे तब भगत सिंह की फांसी के अपमान के तौर पर भी देखा गया. क्योंकि एक तरफ तो अंग्रेजों ने भगत सिंह को मौत की सजा दे दी और दूसरी ओर वो लंदन में महात्मा गांधी का आदर सत्कार कर रहे थे. दूसरी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस सितम्बर से दिसंबर महीने तक चली थी. जिसमें भारत को और संवैधानिक अधिकार देने पर चर्चा हुई थी.
भगत सिंह खुद भी कभी नहीं चाहते थे कि उनकी फांसी की सजा को रद्द किया जाए. देश की आजादी के लिए उन्होंने सिर्फ 23 साल की उम्र में शहादत दे दी थी. उस समय भगत सिंह सिर्फ 23 साल के थे लेकिन उनके जीवित रहने की शर्तें और सिद्धांत बिल्कुल अलग थे. एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि मैं आज एक ही शर्त पर जिंदा रह सकता हूं. मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता. मेरा नाम हिन्दुस्तान की क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है. क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है. इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता. अपनी एक और चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा. आज कल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है. मुझे अब पूरी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है. कामना है कि ये और जल्दी आ जाए. सोचिए भगत सिंह सिर्फ 23 साल के थे. लेकिन उन्हें अपनी जान से ज्यादा अपने देश की आजादी प्यारी थी.