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Qutub Minar Row: ज्ञानवापी मस्जिद, ताज महल और कुतुबमीनार को लेकर देश में तीखी बहस छिड़ी हुई है. हम बात करने जा रहे हैं कुतुबमीनार की. कुतुबमीनार पर कई सवाल उठ रहे हैं. इतिहास को नए सिरे से पढ़ा या लिखा जा सकता है या नहीं.. ये तो विवाद का विषय हो सकता है. लेकिन आंखें जो देखती हैं उसी परिप्रेक्ष्य में इतिहास की व्याख्या की जा सकती है. पुरातत्व विशेषज्ञों ने, इतिहासकारों ने अब साक्ष्यों के आधार पर कुतुबमीनार से जुड़े कुछ सवाल उठाए हैं.
कुतुबमीनार की मुगलिया पहचान को चुनौती देने वाले मानते हैं कि ये दरअसल सम्राट विक्रमादित्य के समय में बनी एक वेधशाला है. जिसे उनके दरबार के खगोल विज्ञानी आचार्य वराह मिहिर ने बनवाया था. उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम मिहिरावली पड़ा जिसे आज महरौली कहा जाता है.
कुतुबमीनार में प्रवेश करते ही कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद एकदम सामने पड़ती है. इसे भारत की सबसे पुरानी मस्जिद माना जाता है. इसके शिलालेख पर लिखा है कि इस मस्जिद को 27 मंदिरों को तोड़कर उसके मलबे से बनाया गया है. मस्जिद के शिलालेख पर लिखा है- 'मंदिरों के मलबे से बनी है इमारत'. लेकिन कुतुबमीनार बनाए जाने का इसपर कोई जिक्र नहीं है.
आप इस मस्जिद के प्रांगण में जाएंगे तो आपको जगह-जगह देवी देवताओं की मूर्तियां बनी दिख जाएंगी. मंदिर की घंटियों की आकृतियां नजर आएंगी. इन्हें देखकर साफ लगता है कि ये मंदिरों के ही अवशेष हैं. पुरातत्वविद् ये सवाल भी उठा रहे हैं कि अगर कुतुबमीनार को मुगल शासकों ने बनवाया होता तो उसका महिमामंडन भी किया होता. लेकिन ऐसा महिमामंडन कहीं नहीं मिलता. हालांकि कुतुबमीनार पर अरबी में और फारसी में कुछ आयतें लिखी हैं. सुल्तानों के नाम लिखे हैं. लेकिन ये नहीं लिखा कि इसे किसने बनवाया है. ASI के पूर्व निदेशक धर्मवीर शर्मा का ये दावा है कि ये अरबी की आयतें बाद में ऊपर से लगाई गई हैं.
इस मस्जिद के प्रांगण में लगा लौह स्तंभ चौथी शताब्दी का है. इस स्तंभ को विष्णु स्तंभ कहा जाता है. लोहे के इस खंभे पर कभी जंग नहीं लगा. जिसके बारे में आज भी रहस्य कायम है कि ऐसा कैसे संभव है. ये भी माना जाता है कि अगर आप इस लोहे के स्तंभ को बाहों से पूरा घेर लें तो आपकी मन्नत पूरी हो सकती है. हालांकि अब ये लौह स्तंभ आम लोगों के हाथ लगाने की पहुंच से दूर कर दिया गया है. इस स्तंभ पर संस्कृत में कुछ लिखा है.
कुतुबमीनार की संरचना के आधार पर इसे सूर्य स्तंभ माना जाता है. इतिहास की किताबों में आपने पढ़ा होगा कि 1193 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे बनवाना शुरु किया, फिर उनके उत्तराधिकारी अल्तमश और फिर 1368 में फिरोजशाह तुगलक ने इसे पूरा किया. लेकिन पुरातत्व विज्ञान को जानने वाले एक्सपर्ट्स के मुताबिक कुतुबमीनार दरअसल सूर्य, सौरमंडल और नक्षत्रों के विश्लेषण के लिए बनाई गई एक ऑब्ज़रवेटरी है. पांच मंज़िला इस मीनार में बनी खिड़कियां दरअसल 27 नक्षत्रों की स्टडी के लिए बनाई गई हैं. ये खिड़कियां या झरोखे नहीं बल्कि ये इस तरह से बनाए गए हैं जिससे लोग वहां बैठ सकें और खगोलविज्ञान की पढ़ाई कर सकें, सूर्य और नक्षत्र की पढ़ाई कर सकें.
दावा ये भी किया जाता है कि वर्ष में एक दिन कुतुबमीनार की छाया पृथ्वी पर नहीं पड़ती. ऐसा हर वर्ष 21 जून को दोपहर 12 बजे होता है. इस दिन सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन में प्रवेश करता है. कुतुबमीनार 25 इंच दक्षिण की ओर झुकी हुई है. आर्किटेक्चर के जानकार मानते हैं कि कर्क रेखा पर 5 डिग्री उत्तर की तरफ स्थित है. ये निर्माण विशेष रुप से सौरमंडल और नक्षत्रों की गणना के लिए किया गया. कहा यह भी जाता है कि कुतुबमीनार की सीध में खड़े होकर अगर कोई 25 इंच पीछे की ओर पीछे झुक जाए और आसमान की ओर देखे तो वो ध्रुव तारे को देख पाएगा.
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