जानें कितना गौरवशाली था पाली का इतिहास, पढ़िए महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा से लेकर स्वाभिमानी ब्राह्मणों की कहानी..
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जानें कितना गौरवशाली था पाली का इतिहास, पढ़िए महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा से लेकर स्वाभिमानी ब्राह्मणों की कहानी..

Pali History: पाली का इतिहास न सिर्फ गौरवशाली था, बल्कि संपन्न भी था. लेकिन मुगलों ने इसे कई बार उजाड़ा पर ये शहर हर बार बसा. आखिर कितना गौरवशाली है पाली का इतिहास, इसकी गर्त में कौन से किस्से छिपे हुए हैं. ये सब पढ़ने के लिए यहां रुकें..

 

फाइल फोटो,

Pali History: पाली राजस्थान का एक जिला है, जो जालौर और नागौर के पास स्थित है. इस जिले में कुल 9 तहसील है (मारवाड़ , बाली , पाली, सोजत, रायपुर, सुमेरपुर, देसूरी, रोहत और जैतारण), पाली शहर का नाम यह इसलिए रखा गया क्योंकि यह पालीवाल ब्राह्मणों का निवास स्थान हुआ करता था. कुछ समय पहले इसे “पालिका” और गुर्जर प्रदेश के नाम से भी जाना जाता था. यह जिला समुद्र तल से 214 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. रणकपुर ,व सोमनाथ मंदिर  जैसे मंदिरों को देखकर यह अंदाजा लगाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं था कि पाली एक समृद्ध शहर था, इसीलिए यह मुगलों की लूट-पाट में सबसे पहले शामिल हुआ.   

पाली की अनोखी विशेषताएं
यह शहर तीन बार उजड़ा तो था परंतु खास बात यह है कि तीनों ही बार फिर से बस गया.
पांचों पांडव पुत्र भी अपने अज्ञातवास के समय पाली के बाली इलाके में छिपे थे.
शूरवीर महाराणा प्रताप का जन्म भी यहीं हुआ था. पाली उनका ननिहाल था.
पाली कपड़ों की रंगाई और छपाई के लिए बहुत प्रसिद्ध है इसीलिए इसे कपड़ा नगरी भी कहा जाता है.
पाली जिला सामान बेचने और खरीदने के लिए एक मुख्य स्थान हुआ करता था, क्योंकि चीन और मध्य पूर्व जैसी दूर की जमीनों से माल यहां लाया जाता था और बेचा भी जाता था.

पाली का इतिहास 
पाली की स्थापना सन 120 ईसवीं में राजा कनिष्क ने जैतारण और रोहट पर विजय प्राप्त कर की थी.7 वीं शताब्दी के अंत तक पूरे राजस्थान के हिस्से और पाली पर चालुक्य के राजा हर्षवर्धन का राज था. 11 वीं सदी में पाली पर गुहिल राजवंश का राज था जो की एक राजपूत जात थी.

12 वीं सदी में यह नाडोल राज्य में सम्मिलित हो गया. नाडोल कस्बा चौहान वंश की राजधानी था. तब पृथ्वीराज चौहान का राज हुआ करता था.
पाली पर हमेशा से ही राजपूतों का राज़ होने के कारण इसकी प्रगति कभी नहीं रुकी. परंतु पृथ्वीराज की मोहम्मद गोरी से हार के बाद राजपूत सत्ता बिखरने लगी। पाली का गोदवाड़ क्षेत्र भी मेवाड़ के तत्कालीन राजा महाराणा कुंभा के अधीन हो गया.

16 वीं और 17 वीं शताब्दी में पाली मारवाड़ राज्य के राठौड़ वंश के अधीन था. परंतु अब पाली के लगभग सारे ही आसपास के राजपूताना शासकों पर मुगलों ने हमला करना शुरू कर दिया था. राजपूत यूं तो मुगलों से काफी ज्यादा शक्तिशाली थे परंतु आपसी बैर के चलते किसी ने भी एक दूसरे की मदद नहीं की. शायद इसी वजह का मुगलों ने फायदा उठाया.

1619 तक तो पाली और आसपास के इलाकों में शांति बनी रही. इसका कारण था उदय सिंह का मुगल सेना के साथ वैवाहिक गठजोड़. उदय सिंह जोधपुर के राजा चंद्रसेन के भाई थे, उन्होंने बहुत सालों तक मुगल सेना के साथ काम किया. राजा सूर सिंह ने भी उदय सिंह की आज्ञा का पालन कुछ समय तक तो किया और तब तक सभी जगह शांति बनी रही.

गिरि की लड़ाई में (जो जैतारण के पास हैं) शेरशाह सूरी को राजपूतों द्वारा हराया गया था और गोदवाड़ में महाराणा प्रताप का अकबर की सेना के साथ युद्ध हुआ। धीरे-धीरे राजस्थान पर मुगलों का शासन होने लगा था.

मारवाड़ के वीर दुर्गादास राठौड़ ने भी मारवाड़ को औरंगजेब के कब्जे से छुड़ाने का प्रयास किया, आखिर में जाकर महाराजा विजय सिंह इस कार्य में समर्थ हुए और पाली का पुनर्वास किया.

पालीवाल ब्राह्मणों की कहानी
पाली जिले को अपने दोनों ही नाम यहाँ रहती इस जाति की वजह से ही मिले थे. परंतु मुगलों के खुलेआम कत्ल करने की वजह से उन्हें यह शहर छोड़कर जाना पड़ा. फिरोज शाह की नजर पाली पर उसी साल पड़ गई जब वे 1347 में दिल्ली के सम्राट बने थे. इसका कारण अवश्य ही पाली की समृद्धि और प्रगति रही होगी. फ़िरोजशाह जब फ़िरोजशाह जब लाख कोशिशों के बाद भी असफल होता रहा तो उसने पाली के एकमात्र साफ पानी के स्रोत यानी की “लोहड़ी तालाब” में जानवरों को मार कर डाल दिया जिसके कारण यह पूरा तालाब दूषित होकर सूख गया.

आसनाथ जी शाही ने भी बहुत कोशिश की पाली को बचाने की परंतु वह भी वीरगति को प्राप्त हो गए.
अंत में जब कोई और मार्ग नहीं बचा था तब पालीवाल के ब्राह्मणों ने ही स्वाभिमानी हो कर युद्ध करने का निर्णय लिया. परंतु वह भी असफल रहे और मारे गए. जो भी पालीवाल ब्राह्मण बचे थे उन्होंने यह निर्णय लिया कि वह अपनी कर्मभूमि पाली को छोड़कर चले जाएंगे परंतु मुगल शासन के अधीन नहीं रहेंगे.

एक ही रात में सारे ब्राह्मण पाली छोड़कर जैसलमेर चले गए और कुछ ब्राह्मण गुजरात ,आगरा, दिल्ली, आदि जगहों पर जाकर निवास करने लगे.
13 वीं सदी में पालीवाल लोग पाली छोड़कर जैसलमेर के कुलधारा गांव में निवास करने लगे.

यहां की चीजों और घरों को देख कर यह कहा जा सकता है की पालीवाल ब्राह्मण बहुत ही समृद्ध थे. परंतु यह गांव 19 वीं सदी में एक श्रापित और भूतिया गाँव बन गया था. इसका असल कारण तो किसी को नहीं पता.
कुछ लोग कहते है कि भूकंप की वजह से ऐसा हुआ तो कुछ लोग कहते है कि पालीवालों ने इसे श्राप दिया था.

पालीवाल ब्राह्मणों का पिंडदान
वैसे तो आसनाथ जी शाही और वीरगति को प्राप्त हुए पालीवाल ब्राह्मणों की वीरता और कुर्बानी को याद करते हुए “धौला चौतरा” का निर्माण किया गया था परंतु उनका पिंडदान नहीं हुआ था. इसीलिए 825 वर्ष बाद रक्षाबंधन के पावन अवसर पर पालीवाल ब्राह्मणों ने मिलकर अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए उन सबका पिंडदान किया ‌.

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