क्या सच में लाल बहादुर शास्त्री को दिया गया था जहर? क्यों नहीं हुआ पोस्टमार्टम?
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क्या सच में लाल बहादुर शास्त्री को दिया गया था जहर? क्यों नहीं हुआ पोस्टमार्टम?

Time Machine on Zee News: ताशकंद समझौते के बाद 11 जनवरी 1966 की रात संदिग्ध हालात में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत हो गई थी. उनकी मौत कैसे हुई, ये 49 साल बाद भी राज है.

क्या सच में लाल बहादुर शास्त्री को दिया गया था जहर? क्यों नहीं हुआ पोस्टमार्टम?

Zee News Time Machine: ज़ी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में आज मंगलवार को हम आपको बताएंगे साल 1966 के उन किस्सों के बारे में जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे. ये वही साल था जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में अचानक मौत हो गई थी. यही वो साल था जब एक ही साल में देश को तीन प्रधानमंत्री मिले थे. इसी साल देश की पहली मिस वर्ल्ड के स्विम सूट पर सवाल भी उठे थे. इसी साल अभिनेता राजकुमार ने नकली गहनों के चक्कर में फिल्म की शूटिंग रूकवा दी थी. आइये आपको बताते हैं साल 1965 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.

नींद में किसने बनाया इंदिरा को पीएम

11 जनवरी 1966 को जब ताशकंद में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन की खबर आई, तब गुलजारी लाल नंदा, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम उनकी जगह पीएम पद के दावेदारों में थे. इसी बीच जवाहर लाल नेहरू के वफादारों ने इंदिरा गांधी का नाम भी आगे कर दिया. इंदिरा गांधी उस वक्त शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री थीं. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब "बियॉन्ड द लाइंसः ऐन ऑटोबायोग्राफी" के अनुसार लाल बहादुर शास्त्री के अचानक निधन के बाद नया प्रधानमंत्री चुनने की जिम्मेदारी कांग्रेस अध्यक्ष कामराज के कंधों पर आ गई थी. उस दिन जब वो चार्टर्ड विमान पर सवार हुए, तो यही सोच रहे थे कि किसके नाम पर मुहर लगाई जाए. अगले पीएम का नाम सोचते-सोचते उन्हें नींद आ गई. दिल्ली एयरपोर्ट पर लैंडिंग से 15 मिनट पहले जब उनकी आंखें खुलीं तो वो बोले- इंदिरा गांधी अगली पीएम होंगी. उस वक्त ऐसा लगा जैसे उन्होंने अपने सवाल का जवाब खोज लिया हो. जब वेंकटरमन ने उनसे पूछा कि वो इस फैसले पर कैसे पहुंचे तो कामराज ने कहा कि- उन्हें गुलजारी लाल नंदा और इंदिरा गांधी में किसी एक को चुनना था. कुछ ही दिन बाद कामराज के फैसले पर मुहर लग गई और 19 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं.

शास्त्री को दिया गया था जहर?

ताशकंद समझौते के बाद 11 जनवरी 1966 की रात संदिग्ध हालात में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत हो गई थी. उनकी मौत कैसे हुई, ये 49 साल बाद भी राज है. उस वक्त मेडिकल रिपोर्ट में कहा गया था कि लाल बहादुर शास्त्री की मौत हार्ट अटैक की वजह से हुई थी, लेकिन उनकी पत्नी का आरोप था कि उन्हें जहर दिया गया था. लाल बहादुर शास्त्री का पार्थिव शरीर जब भारत लौटा, तो कई लोगों ने शक जताया था कि उनकी मौत प्राकृतिक नहीं है, इसके बाद भी उनके शव का पोस्टमॉर्टम नहीं करवाया गया था. शास्त्री जी के परिवार का कहना था कि अगर उस समय पोस्टमॉर्टम करवाया जाता, तो उनके निधन का असली कारण पता चल सकता था. एक प्रधानमंत्री के अचानक निधन के बाद भी उनके शव का पोस्टमॉर्टम नहीं करवाना किसी बड़े संदेह का इशारा करता है. इससे भी चौंकाने वाली बात ये थी कि शास्त्री जी की मौत की वजहों की जांच के लिए कमिटी बनाए जाने के बाद उनके निजी डॉक्टर आरएन सिंह और निजी सहायक रामनाथ की मौत अलग-अलग हादसों में हो गई थी. ये दोनों ही लोग लाल बहादुर शास्त्री के साथ ताशकंद के दौरे पर गए थे. इन दोनों की मौत के साथ शास्त्री जी के अंतिम क्षणों का राज भी हमेशा के लिए राज बनकर रह गया.

कभी 11 तो कभी 13 दिन के PM बने गुलजारी लाल नंदा

पूरी जिन्दगी कांग्रेस पार्टी के लिए समर्पित रहे गुलजारी लाल नंदा अपने दौर के बड़े नेताओं में एक थे. दो बार उनको प्रधानमंत्री बनने का भी मौका मिला, लेकिन उनकी किस्मत कुछ ऐसी रही कि दोनों बार वो कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनकर ही रह गए. इसे किस्मत का फेर मानिए या सियासत का खेल, गुलजारी लाल नंदा पहली बार पीएम बने तो 11 दिन के लिए और दूसरी बार 13 दिन के लिए ही पीएम पद पर रह पाए. 1964 में जवाहर लाल नेहरु  के निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा 27 मई से 9 जून 1964 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाए गए. इसके बाद 11 से 24 जनवरी 1966 तक लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद फिर से कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने थे. बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुलजारी लाल नंदा 100 वर्षों तक जिए और उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत-रत्न और पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया. लेकिन पूर्णकालिक प्रधानमंत्री बनने की उनकी इच्छा अधूरी ही रह गई.

RSS और जमात-ए-इस्लामी से जुड़े लोगों को सरकारी नौकरी पर रोक!

साल 1966 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक ऐसा सर्कुलर जारी किया था, जिसे देख हिंदू और मुसलमान... दोनों हैरान रह गए थे. 1966 में गृह मंत्रालय ने एक सर्कुलर जारी किया था, जिसमें सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवार को एक घोषणापत्र भरने को कहा गया था. उस घोषणा पत्र में आवेदक को बताना होता था कि उसका संबंध आरएसएस या जमात-ए-इस्लामी से तो नहीं है. उस आदेश के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति इन दोनों संगठनों से जुड़ा पाया गया तो उसे सरकारी नौकरी नहीं दी जाएगी. हालांकि इस सर्कुलर का कभी सख्ती से पालन नहीं किया गया. कहा जाता है कि देश में धर्मनिरपेक्षता के माहौल को बनाए रखने के इरादे से ही इस सर्कुलर को जारी किया गया था.

बरेली के बाजार में गिरा तेजी बच्चन का झुमका

1966 में आई फिल्म का एक मशहूर गाना था- झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में... ये गाना उस वक्त की जानीमानी अभिनेत्री साधना पर फिल्माया गया था. लेकिन बहुत कम ही लोगों को ये मालूम होगा कि ये गाना सच्ची घटना पर आधारित था और फिल्म मेरा साया के गीतकार राजा मेहंदी अली खान ने जान बूझकर इसका इस्तेमाल गाने में किया था. किस्सा कुछ यूं है कि अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन और उनकी मां तेजी बच्चन शादी से पहले चोरी-छिपे मिलने के लिए बरेली पहुंचे थे. दोनों को वहां एक शादी में भी जाना था. उस शादी में गीतकार राजा मेहंदी अली खान भी पहुंचे थे. लोगों ने हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन को एक साथ देखा तो कहा कि आप दोनों एक साथ बरेली आ गए हैं, तो अब शादी भी कर ही लीजिए. ये सुनकर तेजी बच्चन झेंप गईं और बिना कुछ सोचे-समझे बोल पड़ीं कि- मेरा झुमका बरेली के बाजार में गिर गया था. तेजी जी का जवाब सुनकर वहां मौजूद लोग हंसने लगे. हालांकि बाद में तेजी जी ने बताया कि वाकई में उनका झुमका बरेली में घूमते वक्त कहीं गिर गया था. ये वाकया गीतकार राजा मेहंदी अली खान को याद रह गया और जब उन्होंने 1966 में फिल्म मेरा साया के गीत लिखे तो उन्होंने तेजी बच्चन की बोली लाइन को अपने गाने में इस्तेमाल कर लिया. इस तरह से बना- झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में.

इंदिरा ने भगत सिंह की मां को दिया 5 हजार का चेक

1966 में उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शहीद भगत सिंह की मां विद्यावती को पांच हजार रुपये का चेक दिया था. ये चेक 1965 में रिलीज हुई फिल्म शहीद के निर्माता केवल कश्यप ने फिल्म से हुई कमाई से दिया था. 1965 में प्रोड्यूसर केवल कश्यप ने भगत सिंह के जीवन पर फिल्म बनाई थी, जिसका नाम था शहीद. फिल्म के निर्देशक थे एस राम शर्मा. फिल्म में आजादी की लड़ाई में भगत सिंह की भूमिका, उनके विचार और उनके जीवन से जुड़ी अहम घटनाओं को दिखाया गया था. रिलीज होते ही फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कमाल कर दिया था. शहीद साल 1965 में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी. फिल्म की अच्छी कमाई देख निर्माता केवल कश्यप ने तय किया कि वो इसका एक हिस्सा शहीद भगत सिंह की मां को देंगे. जिसके बाद 1966 में एक समारोह में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अनुरोध किया कि वो शहीद भगत सिंह की मां को अपने हाथों से पांच हजार रुपये का चेक दें. निर्माता केवल कश्यप के इस अनुरोध को इंदिरा गांधी ने मान लिया और भगत सिंह का मां विद्यावती को अपने हाथों से पांच हजार रुपये का चेक देकर सम्मानित किया.

मिस वर्ल्ड बनी रीता फारिया

रीता फारिया... वो नाम, जिसने न सिर्फ भारत का बल्कि पूरे एशिया का नाम दुनिया भर में रोशन किया था. 1966 में जब रीता फारिया मिस वर्ल्ड बनीं तो पूरी दुनिया उन्हें देखती रह गई. मिस वर्ल्ड 1966 कॉन्टेस्ट के दौरान रीता फारिया ने 'बेस्ट इन स्विमिंग सूट' और 'बेस्ट इन इवनिंग वेयर' जैसे टाइटल भी अपने नाम किए थे. तब 51 देशों की सुंदरियों को पछाड़कर रीता मिस वर्ल्ड बनी थीं. रीता फारिया ने ये कमाल उस दौर में किया था, जब भारत में मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स जैसे ब्यूटी कॉन्टेस्ट को लेकर बहुत जागरूकता नहीं थी और ना ही ऐसे कॉन्टेस्ट के लिए कोई ट्रेनिंग या मदद दी जाती थी. मिस वर्ल्ड कॉन्टेस्ट के लिए ड्रेस से लेकर स्विमसूट तक सब कुछ रीता फारिया ने खुद ही मैनेज किया था. स्विमसूट राउंड के लिए फारिया ने बाथसूट अपनी एक दोस्त से मांगा था, लेकिन उनकी दोस्त का कद छोटा था इस वजह से वो उसकी दी हुई ड्रेस कॉन्टेस्ट में नहीं पहन सकीं. इसके बाद उन्होंने आनन-फानन में 3 पाउंड में एक स्विमसूट खरीदा. स्टेज पर एक भारतीय को स्विमसूट में देखकर दुनिया हैरान रह गई थी. लंडन के लाइसियम थिएटर में हुई प्रतियोगिता में रीता फारिया ने स्टेज पर गजब का आत्मविश्वास दिखाया था और आखिरकार मिस वर्ल्ड का ताज उनके सिर पर सजा.

20 पैसे में ताज महल देखो

ताज महल... मोहब्बत की अमर, अमिट निशानी. सफेद संगमरमर से बनी वो इमारत, जिसकी खूबसूरती की पूरी दुनिया दीवानी है. इसी खूबसूरती को निहारने के लिए देश-विदेश से लोग आगरा आते हैं. मुगल बादशाह शाहजहां ने 16वीं शताब्दी में अपनी बेगम नूरजहां की याद में ताज महल बनवाया था. 1966 से पहले ताज महल परिसर में एंट्री फ्री थी. जिसका दिल किया वो बेधड़क ताज महल के करीब जा सकता था. भारतीय और विदेशी पर्यटक बिना टिकट के ही ताज महल का दीदार किया करते थे. लेकिन 1966 में पहली बार ताज महल देखने के लिए टिकट लगाया गया. उस जमाने में ताज का दीदार करने के लिए 20 पैसे का टिकट लगता था. उस वक्त सरकार की ये दलील थी कि टिकट के जरिए ये पता लगाया जा सकेगा कि हर रोज कितने लोग ताज महल देखने आते हैं.

नकली गहनों के चक्कर में रुकवा दी शूटिंग

कुलभूषण पंडित... यानी बड़े पर्दे का वो कलाकार जिसे सारी दुनिया राजकुमार के नाम से जानती है. अपनी स्टाइल और डायलॉग बोलने के खास  अंदाज के लिए मशहूर राजकुमार का जन्म पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हुआ था. 1952 में फिल्म रंगीली से डेब्यू करने वाले राजकुमार अपनी ऐक्टिंग को लेकर हमेशा सजग रहते थे..और किसी भी तरह की कोई भी गलती बर्दाश्त नहीं करते थे. इसी चक्कर में राजकुमार ने 1966 में डायरेक्टर राम माहेश्वरी की फिल्म नीलकमल शूटिंग पहले ही दिन रुकवा दी थी. दरअसल फिल्म नीलकमल में राजकुमार एक 'मूर्तिकार' का रोल कर रहे थे. फिल्म की शूटिंग के लिए जब राजकुमार का मेकअप हो रहा था तो वो अपने आभूषणों को देखकर गुस्सा हो गए. क्योंकि उनके लिए नकली गहने मंगवाए गए थे. राजकुमार ने डायरेक्टर से कहा, 'अगर पहनूंगा तो असली जेवर, नहीं तो शूटिंग नहीं करूंगा.' काफी समझाने के बाद भी राजकुमार अपनी बात पर अड़े रहे और असली गहनों की मांग करते रहे. आखिरकार प्रोड्यूसर पन्ना लाल माहेश्वरी को राजकुमार के लिए असली गहने मंगवाने ही पड़े और उसके बाद ही फिल्म की शूटिंग शुरू हो पाई. हालांकि जब आप ये फिल्म देखेंगे तो पता नहीं चलेगा कि राजकुमार ने असली गहने पहने हैं या नकली. लेकिन राजकुमार ऐसे ही थे, जो ठान लिया वो करके ही मानते थे.

ससंद के बाहर गोरक्षकों की हत्या!

आजादी के बाद देश में कई मुद्दों पर आंदोलन हुए... कई बार लोगों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद की. कई बार सरकारों को अपने फैसले बदलने भी पड़े. ऐसा ही एक आंदोलन था गोसेवा और गोरक्षा से जुड़ा. 50 के दशक में स्वामी करपात्री महाराज लगातार गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक कानून बनाने की मांग कर रहे थे. लेकिन केंद्र सरकार ने उनकी मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया. आंदोलन लंबा खिंचा तो संतों का आक्रोश भी बढ़ने लगा. आखिरकार 7 नवंबर 1966 को देश भर के हजारों साधु-संतों ने गाय-बछड़ों के साथ संसद के बाहर धरना शुरू कर दिया. संतों को संसद परिसर में घुसने से रोकने के लिए बैरिकेडिंग कर दी गई. सूत्रों के मुताबिक इंदिरा गांधी सरकार को ये डर सताने लगा कि संतों की भीड़ बैरिकेड तोड़कर संसद पर हमला ना कर दे. कहा जाता है कि संतों के खतरे से निपटने के लिए पुलिस को उनपर गोली चलाने के आदेश दे दिए गए. पुलिस की फायरिंग में बड़ी तादाद में संत मारे गए थे. उस घटना पर कई वर्षों तक विवाद रहा था.

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