ZEE जानकारी: 24 साल बाद एक मंच पर साथ आए मायावती-मुलायम
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ZEE जानकारी: 24 साल बाद एक मंच पर साथ आए मायावती-मुलायम

शुक्रवार को भारत की राजनीति ने एक ऐसा ही ऐतिहासिक दिन देखा है . 24 वर्ष के बाद राजनीति के दो सबसे कट्टर दुश्मन आज एक साथ एक मंच पर आए . 

ZEE जानकारी: 24 साल बाद एक मंच पर साथ आए मायावती-मुलायम

कोई व्यक्ति कभी भी अपने घोर अपमान और अत्याचार को भूल नहीं सकता. लेकिन राजनीति की बात ही कुछ और है.. यहां वोटों के लिए लोग अपमान का कड़वा घूंट पीने को भी तैयार हो जाते हैं . 

आज भारत की राजनीति ने एक ऐसा ही ऐतिहासिक दिन देखा है . 24 वर्ष के बाद राजनीति के दो सबसे कट्टर दुश्मन आज एक साथ एक मंच पर आए . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने आज मैनपुरी में एक संयुक्त रैली की . 

24 वर्ष पहले... 2 जून 1995 को मुलायम सिंह यादव के समर्थकों ने ही मायावती पर हमला किया था . उस घटना के बाद 24 वर्षों तक दोनों नेताओं के बीच खटास रही . लेकिन आज मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के मंच पर मायावती की मौजूदगी, अपने आप में एक बड़ा राजनीतिक संदेश थी. मायावती बीच में बैठी थीं . उनके एक तरफ मुलायम बैठे थे और दूसरी तरफ अखिलेश यादव . 

मायावती ने अपने भाषण में लोगों से अपील की कि मुलायम सिंह यादव को भारी मतों से जीत दिलाएं . और मुलायम सिंह यादव ने इसके लिए मायावती को धन्यवाद दिया .मायावती ने मुलायम को पिछड़े वर्ग का सबसे बड़ा नेता बताया और मुलायम ने कहा कि वो कभी भी मायावती का एहसान नहीं भूलेंगे . 

दोनों नेताओं ने एक दूसरे की खूब प्रशंसा की . लेकिन गेस्ट हाउस कांड की कड़वी यादें मायावती भूल नहीं पाई हैं . आज भी अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा कि जनहित के लिए उन्होंने कठिन फैसला लिया है . आप ये भी कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी की वापसी के डर ने दो पुराने दुश्मनों को हाथ मिलाने पर मजबूर कर दिया

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन क्या इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता और इनका वोट बैंक एक दूसरे का समर्थन कर रहा है ? इस सवाल पर अब भी बड़े बड़े राजनीतिक विद्वानों की बहस जारी है . अलग-अलग लोकसभा क्षेत्रों में अलग-अलग स्थिति हो सकती है . ज़ाहिर है दोनों के वोट एक दूसरे के वोटों वाले बैंक अकाउंट में पूरी तरह Transfer हों... ये चिंता तो मायावती और अखिलेश यादव को ज़रूर सता रही होगी . 

आज मुलायम सिंह यादव के परिवार और मायावती के करीबियों के बीच एक संवाद देखने को मिला . अखिलेश यादव के भतीजे और मैनपुरी के वर्तमान सांसद तेज प्रताप यादव ने आज मायावती के चरण स्पर्श किए. जब सभा खत्म हुई तो मायावती के भतीजे आकाश ने मुलायम सिंह यादव से आशीर्वाद लिया. पिछड़े वर्ग के लोग और अनुसूचित जाति के लोग मिलकर एक बड़ा वोटबैंक बनाएं . ये सपना सबसे पहले बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने देखा था .

कांशीराम ने अपनी पार्टी का नाम बहुजन समाज पार्टी रखा था. कांशीराम के इन बहुजनों में अनूसूचित जाति के लोगों के साथ-साथ पिछड़ा वर्ग यानी OBC भी शामिल था. लेकिन वर्ष 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद कांशीराम का ये सपना पूरा नहीं हो पाया था . OBC और अनूसूचित जाति और जनजाति के लोग मिलकर एक वोटबैंक नहीं बन पाए. अब मायावती और अखिलेश यादव एक बार फिर इस सपने को साकार करना चाहते हैं .

आज मायावती ने अपना भाषण खत्म करते हुए एक नारा लगाया... जय भीम... जय लोहिया . ये नारा दोनों पार्टियों के वैचारिक गठबंधन का भी प्रतीक है . हालांकि ये कहना भी गलत नहीं है कि इस गठबंधन के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक ताकत का डर भी है . 

मुलायम और मायावती की इस ऐतिहासिक रैली की चर्चा तो आज हो रही है लेकिन लोगों को 24 वर्ष पुरानी घटना भी याद आ रही है जब गेस्ट हाउस कांड में सिर्फ मायावती ही नहीं बल्कि अनूसूचित जातियों के राजनीतिक संघर्ष पर हमला किया गया था . हम आपको गेस्ट हाउस कांड के बारे में बताएंगे लेकिन आज अनूसूचित जातियों के राजनीतिक संघर्ष को याद करना भी बहुत जरूरी है . 

वर्ष 1947 से पहले संविधान निर्माता भीम राव अंबेडकर ने अनूसूचित जातियों के लिए राजनीतिक संघर्ष किया . 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तब भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने कैबिनेट में भीम राव अंबेडकर को भी जगह दी . लेकिन कश्मीर विवाद और हिंदू कोड Bill के मुद्दे पर भीम राव अंबेडकर के पंडित नेहरू से मतभेद हो गये. और उन्होंने मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया . 

वर्ष 1952 में जब आजाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव हुआ तो भीम राव अंबेडकर अपना चुनाव नहीं जीत पाए . ये अनूसूचित जाति की राजनीति के लिए बहुत बड़ा झटका था . यानी अनूसूचित जाति में राजनीतिक चेतना तो आई लेकिन वो राजनीतिक चेतना एक राजनीतिक ताकत नहीं बन पाई . 

वर्ष 1956 में भीम राव अंबेडकर की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी के नेता जगजीवन राम, भारत में अनुसूचित जाति के लोगों के नेता के रूप में उभरे . लेकिन वर्ष 1975 में आपात काल लागू होने के बाद जगजीवन राम ने कांग्रेस पार्टी का साथ छोड़ दिया . हालांकि इसके बाद भी अनुसूचित जाति का वोट कांग्रेस पार्टी को मिलता रहा . 

लेकिन कांशीराम इस बात से काफी दुखी थे कि राजनीतिक दल, अनूसूचित जाति के लोगों का वोट तो लेते हैं लेकिन उन्हें राजनीतिक सम्मान नहीं देते. अनूसूचित जाति के नेताओं की भूमिका राजनीतिक दलों में एक समर्थक से ज्यादा नहीं है. 

कांशीराम ने कांग्रेस और दूसरी पार्टियों में काम कर रहे अनुसूचित जाति के नेताओं को 'चमचा' कहा. इस विषय पर उन्होंने एक किताब भी लिखी जिसका नाम था... 
इस किताब के जरिए उन्होंने अपील की थी कि अनूसूचित जाति के नेता चमचागीरी छोड़ें और स्वाभिमान के साथ राजनीति करें . वर्ष 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की . भारत की राजनीति में कांशीराम का सबसे बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने अनुसूचित जाति के लोगों को उनके वोट की कीमत समझाई.

वर्ष 1984 में बहुजन समाज पार्टी ने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा था. 1984 चुनाव में बीएसपी को 10 लाख से ज्यादा वोट मिले लेकिन वो एक भी सीट नहीं जीत पाई . लेकिन धीरे-धीरे बीएसपी की राजनीतिक ताकत बढ़ती गई . वर्ष 1996 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी ने 11 सीटें और वर्ष 1999 के चुनाव में 14 सीटें जीतीं. लेकिन बीएसपी को सबसे ज्यादा राजनीतिक लाभ मिला, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में . 

वर्ष 1992 में विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद बीजेपी द्वारा पैदा की गई राजनीति की राम लहर को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन कर लिया था . इस गठबंधन को बहुजन राजनीति के विचारक कांशीराम का आशीर्वाद था. उत्तर प्रदेश में करीब 40 प्रतिशत OBC वोट हैं और अनुसूचित जाति के वोट करीब 20 प्रतिशत हैं . अगर इन दोनों को जोड़ दिया जाए तो उत्तर प्रदेश के कुल वोट का 60 प्रतिशत हो जाता है . यानी अनूसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के राजनीतिक गठबंधन को हराना असंभव है . 

वर्ष 1993 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 109 और बहुजन समाज पार्टी को 67 सीटें मिलीं . बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और मुलायम सिंह यादव, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने . लेकिन ये गठबंधन ज्यादा दिन तक साथ नहीं चला . 

मायावती ने कई बार मुलायम सिंह यादव पर राजनीतिक हमले किए . 2 जून 1995 को मायावती करीब 40 विधायकों के साथ लखनऊ के एक गेस्ट हाउस में बैठक कर रही थीं . कहा जाता है कि तभी इसकी बिजली और पानी की आपूर्ति अचानक काट दी गई . समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक गेस्ट हाउस के बाहर नारेबाजी करने लगे . और फिर माहौल हिंसक हो गया . 

समाजवादी पार्टी के लोग गेस्ट हाउस के अंदर घुसकर, बीएसपी के नेताओं से मारपीट करने लगे. इस हंगामे के बीच मायावती ने बचने के लिए खुद को एक कमरे में बंद कर लिया . ऐसा कहा जाता है कि समाजवादी पार्टी के लोग इस कमरे को भी खोलने की कोशिश कर रहे थे . बाद में मायावती ने ये आरोप लगाया कि उन्हें जान से मारने की साजिश रची गई थी . 

इस घटना के बाद गठबंधन टूट गया और बीजेपी ने मायावती को समर्थन दे दिया. अगली सुबह मायावती ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली . पहली बार एक बहुत सामान्य परिवार से आने वाली अनूसूचित जाति की महिला ने भारत के एक बड़े राज्य की मुख्यमंत्री का पद संभाला .

इस पूरे मामले में ध्यान देने वाली बात ये है कि 1993 में समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने, बीजेपी को रोकने के लिए हाथ मिलाया था और इतिहास एक बार फिर खुद को दोहरा रहा है. अब 2019 में दोनों पार्टियों ने नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए हाथ मिला लिया है

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