अंतरिक्ष का इलाका LEO, जहां भारत ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए
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अंतरिक्ष का इलाका LEO, जहां भारत ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए

शक्ति मिशन के तहत भारत ने LEO  में भेजे गए जासूसी उपग्रहों को मारने की क्षमता हासिल कर ली है. 

LEO  सैटेलाइट इंटरनेट की रीढ़ हैं.  (प्रतीकात्मक फोटो)

नई दिल्ली: हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपन संदेश में घोषणा की है कि भारत ने एक लो ऑर्बिट सैटालाइट मार गिराया है. इसके साथ ही भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया है जो ऐसा कर सकते हैं. अब तक यह क्षमता अमेरिका, रूस और चीन के पास ही है. भारत ने मिशन शक्ति के तहत केवल 3 मिनट में ही ASAT  मिसाइल की मदद से इस जीवित सैटेलाइट को मार गिराया है. आइए जानते हैं कि वास्तव में लो अर्थ ऑर्बेट क्या है और क्या हैं उसकी खास बातें. 

क्या है लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) 
लो अर्थ ऑर्बिट अंतरिक्ष की वह कक्षा है जिसमें लो अर्थ ऑर्बिट सैटेलाइट  प्रक्षेपित किए जाते हैं. यह अंतरिक्ष में पृथ्वी की सतह से 2000 किलोमीटर (1200 मील) की ऊंचाई पर स्थित एक कक्षा हैं. इस कक्षा और पृथ्वी का केंद्र एक ही है.  लेकिन पृथ्वी का आकार पूरी तरह से गोल न होने की वजह से इस ऊंचाई में बदलाव आ जाते हैं. यानी इस कक्षा की ऊंचाई क्या होगी यह इस पर भी निर्भर कर जाता है कि हम पृथ्वी पर कहां से इसकी ऊंचाई आंकना चाहते हैं. 

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1.     इस कक्षा में यदि कोई सैटेलाइट भेजा जाता है तो वह एक दिन में पृथ्वी के 11 चक्कर लगा सकता है. उसका  एक चक्कर लगभग 128 मिनट या उससे भी कम समय का होता है.  हालांकि यह चक्कर पूरी तरह गोल न होकर दीर्घवृत्ताकार में होता है. इस वजह से सैटेलाइट की पृथ्वी से ऊंचाई कम ज्यादा होती रहती है. सैटेलाइट के प्रक्षेपण और उसे कक्षा में स्थापित करने के दौरान इस बाता का विशेष ध्यान रखना होता है.

2.      इस कक्षा में जो अंतरिक्षयान भेजे जाते हैं वे ज्यादातर मानव रहित यान ही होते हैं. ज्यादातर मानवनिर्मित अंतरिक्ष यान इसी कक्षा में भेजे जाते हैं.   इसके अलावा पहले GEO कक्षा में सैटेलाइट भेजने का चलन ज्यादा था, लेकिन हाल के ही कुछ वर्षों में दुनिया में LEO सैटेलाइट भेजने का रुझान बढ़ा है.
 
3.       इस कक्षा में प्रक्षेपित सैटेलाइट का उपयोग हाई बैंडविड्थ फ्रीक्वेंसी संचार के लिए उपयोग दिया जाता है. दुनिया भर में इंटरनेट के भेजे सभी सैटेलाइट इसी कक्षा में भेजे गए हैं. पिछले कुछ सालों में इस कक्षा में स्थापित सैटेलाइट्स में निजी कंपनियों के सैटेलाइट में भी खासा इजाफा हुआ है. स्थिति यह हो गई है कि इस कक्षा में सैटेलाइट संख्या की बढ़ती संख्याओं ने वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया है. वे अभी से सैटेलाइट्स के बीच टकरावों की आशंका और इस कक्षा में कचरे के बढ़ने को लेकर चिंता करने लगे हैं. 

4       इस कक्षा में ही सभी तरह के जासूसी सैटेलाइट का उपयोग किया जाता है. भारत ने इसी तरह के सैटेलाइट को मार गिराने की क्षमता हासिल कर ली है. इस तरह की क्षमता अब तक चीन, अमेरिका और रूस से पास ही थी. अब भारत के पास यह क्षमता होने से यह क्षेत्र में सैटेलाइट संबंधी अंतरराष्ट्रीय नियम बनाने और उन्हें  बदलने के लिए भारत की भी भूमिका होने की संभावना है. 

5      इस कक्षा में प्रक्षेपित अंतरिक्ष यानों को कम क्षमता वाले एम्प्लिफायर्स की जरूरत होती है, जिससे सूचनाएं सटीक तरह से प्रसारित की जा सकती हैं. उल्लेखनीय है कि हाल के कुछ वर्षों में दुनिया भर में संचार तकनीक में जो इजाफा और निर्भरता बढ़ी वह LEO सैटेलाइटों के अधिकता से भी बढ़ी है. तेज गति के सूचनाएं आदान प्रदान करने के साथ है दूरस्थ इलाकों को नेटवर्क से जोड़ने की जरूरत में वायरलेस नेटवर्क का महत्व बढ़ गया है. ऐसे में वैज्ञानिकों ने इस बात पर गौर करना शुरू कर दिया है कि अगर वायरलैस नेटवर्क परिहार्य होने लगा है तो LEO सैटेलाइट संचार तकनीकों का उपयोग क्यों ने बढ़ाया जाए. 

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