वैज्ञानिकों ने खोज निकाला 25 करोड़ साल पुराना जीवाश्म, कहा जाता है 'समुद्री शैतान'
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वैज्ञानिकों ने खोज निकाला 25 करोड़ साल पुराना जीवाश्म, कहा जाता है 'समुद्री शैतान'

समुद्री बिच्छू (Sea Scorpion) की इस विशालकाय प्रजाति पर गहन शोथ की जा रही थी. यह अपने तरह की अकेली प्रजाति थी जो इसके बाद दुनिया से खत्म हो गई.

समुद्री शैतान कहा जाता है यह प्राणी (Photo: Alison Douglas)

नई दिल्ली: ऑस्ट्रेलिया में एक ऐसी प्रजाति के बिच्छू का जीवाश्म मिला है जो करीब 25 करोड़ साल पुराना बताया जा रहा है. वुडवार्डोप्टेरस फ्रीमैनोरम (Woodwardopterus Freemanorum) नाम के इस बिच्छू को 'समुद्री शैतान' भी कहा जाता है क्योंकि नदियों से लेकर समंदर और झीलों में इस विशालकाय बिच्छू का राज चलता था.

  1. 'समुद्र का शैतान' कहा जाता था बिच्छू
  2. 25 करोड़ साल पुराना जीवाश्म मिला
  3. इसके बाद खत्म हो गई थी यह प्रजाति

म्यूजियम में रखा गया जीवाश्म

'साइंस न्यूज' की खबर के मुताबिक इस बिच्छू की लंबाई एक मीटर थी और ताजा पानी को ही यह जीव अपना ठिकाना बनाता था. इसे लेकर काफी वक्त से स्टडी की जा रही थी और अब इसके जीवाश्म को क्वींसलैंड के म्यूजियम में रखा गया है. सबसे पहले यह जीवाश्म 1990 के दौरान सेंट्रल क्वींसडलैंड के ग्रामीण इलाके में मिला था और तब से इस पर शोध की जा रही थी.

इस जीवाश्म की तुलना बिच्छुओं की अन्य प्रजातियों से की जा रही थी और इनके बीच समाताओं पर भी गहन रिसर्च चल रही थी. कोरोना की वजह से लागू लॉकडाउन के दौरान रिसर्च का काम काफी तेजी से हुआ क्योंकि इस वक्त म्यूजियम आम लोगों के लिए बंद था. यह जीवाश्म किसी अन्य प्रजाति से करीब एक करोड़ साल नया बताया जा रहा है. 

फिर खत्म हो गई बिच्छू की ये प्रजाति

क्वींसलैंड म्यूजियम के अधिकारी एंड्रयू रोजेफेल्डस ने बताया कि यह समुद्री बिच्छू कोयले की बीच प्रिजर्व था और जीवाश्म करीब 25.2 करोड़ साल पुराना है. उन्होंने कहा कि जीवाश्म पर गहन शोध की गई जिसे वैज्ञानिक भाषा में यूरिप्टेरिडा कहा जाता है. रोजेफेल्डस ने कहा कि यह पूरी दुनिया में अपनी तरह का आखिरी यूरिप्टेरिडा था. 

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वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके बाद अनोखे जीव की प्रजाति की दुनिया से खत्म हो गई थी. इस जीवाश्म से प्रजाति की यात्रा के बारे में भी जानकारी जुटाई जाएगी और पता लगाया जाएगा कि ऑस्ट्रेलिया के अलावा आखिर किन देशों में इस तरह के बिच्छू मौजूद थे. इसे लेकर हिस्टोरिकल बायोलॉजी नाम के जर्नल में एक स्टडी भी प्रकाशित हुई है. 

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