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नई दिल्ली : 14 नवंबर को डायबिटीज डे (World Diabetes Day) है. इस मौके पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट जारी की है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, इंसुलिन की खोज के 100 साल बाद भी हर किसी को डायबिटीज के इलाज की ये दवा नसीब नहीं है. इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा इंसुलिन की कमी और ऊंची कीमतों की वजह से ये दवा अभी भी बहुत लोगों की पहुंच से बाहर है. जानिए ये रिपोर्ट और क्या कहती है.
इंसुलिन का अविष्कार 100 साल पहले 1921 में किया गया था. कनाडा के सर्जन Frederick Banting और मेडिकल स्टूडेंट Charles Best ने कुत्ते के Pancreas से इंसुलिन निकालने का तरीका खोजा था. उससे भी कई साल पहले 1889 में दो जर्मन वैज्ञानिकों Oskar Minkowski and Joseph von Mering ने पाया कि कुत्ते के शरीर से अगर पैंक्रियाज निकाल लिया जाए तो उन्हें डायबिटीज हो जाती है.
1910 में वैज्ञानिकों ने पैंक्रियाज में मौजूद उन सेल्स को पहचाना जो इंसुलिन बनाने के लिए ज़िम्मेदार थे. जिन लोगों को डायबिटीज होती थी उनके पैंक्रियाज में एक केमिकल नहीं बनता था. Sir Edward Albert Sharpey-Shafer ने ये खोज की थी. उन्होंने लैटिन शब्द insula के आधार पर इस केमिकल को इंसुलिन का नाम दिया. Insula का मतलब होता है Island.
1921 में कनाडा के सर्जन Frederick Banting कुत्ते के पैंक्रियाज से इंसुलिन को अलग कर लिया. ये एक गाढ़े भूरे रंग के कीचड़ जैसा पदार्थ था. इसकी मदद से उन्होंने डायबिटीज से ग्रस्त एक दूसरे डॉग को 70 दिन तक ज़िंदा रखने में कामयाबी पा ली.
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इस रिसर्च से ये समझ में आ गया था कि इंसुलिन चमत्कार कर सकती है. इसके बाद दो रिसर्चर J.B. Collip and John Macleod की मदद से पशुओं के पैंक्रियाज से इंसुलिन निकाला. जनवरी 1922 में 14 साल के Leonard Thompson नाम के लड़के को पहली बार इंसुलिन का इंजेक्शन दिया गया था. 24 घंटे में इस बच्चे का कंट्रोल से बाहर ब्लड प्रेशर काबू में आ गया.
1923 में इस खोज के लिए Frederick Banting और John Macleod को नोबेल पुरस्कार मिला. दोनों ने ये पुरस्कार Charles Best और J.B. Collip के साथ शेयर किया था.
इंसुलिन की खोज डायबिटीज के मरीजों के लिए वरदान साबित हुई. 1921 से पहले टाइप वन डायबिटीज के मरीज 1 या 2 साल से ज्यादा जी ही नहीं पाते थे.
ये अविष्कार आम लोगों के ज्यादा से ज्यादा काम आ सके, इसलिए वैज्ञानिकों ने इसके पेटेंट को केवल एक डॉलर में Toronto University को बेच दिया था. 1923 में एक डॉलर के मुकाबले रुपए की क्या कीमत थी इसके सही प्रमाण तो नहीं हैं लेकिन कुछ अपुष्ट रिसर्च के मुताबिक उस वक्त एक डॉलर 11 रुपए का होता था. आज भी डायबिटीज के रोगियों को ब्लड शुगर नॉर्मल रखने के लिए इंसुलिन दिया जाता है.
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आज इंसुलिन के लिए भारत में किसी मरीज को महीने का खर्च 500 से 1 हज़ार तक आता है तो कई मरीजों के लिए ये खर्च 20 हज़ार रुपए महीने तक है. ये जीवन भर रहने वाली बीमारी है और भारत जैसे देश में डायबिटीज के शिकार करोड़ों लोगों के लिए ये इलाज जेब से बाहर का है.
लेकिन आज इंसुलिन का बिलियन डॉलर बिजनेस है. दुनिया में डायबिटीज के 42 करोड़ मरीज़ों के लिए इंसुलिन वरदान है. ये बीमारी का इलाज तो नहीं है लेकिन डायबिटीज के साथ जीने में यही इंसुलिन काम आती है.
WHO के मुताबिक हर दो में से एक व्यक्ति को इंसुलिन नसीब नहीं है. ह्युमन इंसुलिन की जगह सिंथेटिक तरीके से इंसुलिन बनने की वजह से इसकी कीमतें तेज़ी से बढ़ी. दोनों की कीमतों में डेढ गुना से तीन गुना का फर्क है. Human Insulin E coli Bacteria से बनाई जाती है. जबकि Analogus यानी Synthtic insulin को दूसरी तकनीक से बनाया जाता है.
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WHO के मुताबिक इंसुलिन के बाज़ार पर तीन बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों का कब्ज़ा है. इसलिए इसकी कीमतों को कम करना आसान नहीं है. इन कपंनियों के जरिए जो रिसर्च की जाती है वो भी अमीर देशों को ध्यान में रखकर की जाती है जबकि डायबिटीज के 80 प्रतिशत मरीज गरीब देशों में हैं. हालांकि चीन और भारत में कुछ कंपनियां इंसुलिन बनाती हैं लेकिन उनका बाज़ार में योगदान बेहद कम है.
दुनिया में डायबिटीज के कुल 42 करोड़ से ज्यादा मरीज हैं जिसमें से 11 करोड़ चीन में और 8 करोड़ मरीज भारत में हैं. आशंका है कि 2045 में भारत में डायबिटीज के शिकार सबसे ज्यादा होंगे. बताते चलें, दुनिया में हर साल 15 लाख लोग डायबिटीज से मर जाते हैं.
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