अगर गांधीगिरी है तब भी खत्‍म होना चाहिए शाहीन बाग का धरना
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अगर गांधीगिरी है तब भी खत्‍म होना चाहिए शाहीन बाग का धरना

जरूरत अब यह है कि शाहीन बाग के लोग ये सोचें कि विचारधारा की लड़ाई को आगे कैसे ले जाया जाए?

अगर गांधीगिरी है तब भी खत्‍म होना चाहिए शाहीन बाग का धरना

देशभर में CAA को लेकर धरना प्रदर्शन किया जा रहा है पर सबसे बढ़िया और अव्वल दर्जे का धरना प्रदर्शन शाहीन बाग में हुआ.  इसको देखकर देश भर में छोटे-छोटे शाहीन बाग बन गए. शाहीन बाग में हर धर्म और वर्ग के लोग शामिल थे. इसको अंजाम दिया यहां की महिलाओं ने जो एक शाम पार्क में जाकर बैठ गईं. उन्होंने शाहीन बाग के धरने का मतलब ही बदल दिया. यह लड़ाई गांधीवाद की तरफ बढ़ गई. इरादे मजबूत थे, आवाज बुलंद थी लेकिन धरना शांतिपूर्वक तरीके से हो रहा था.

कई बार ऐसा लगा कि शाहीन बाग का धरना मुस्लिम पहचान की लड़ाई बन कर रह जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वहां के लोगों ने इस धारणा को तोड़ दिया. उन्होंने इस लड़ाई को संविधान तक सीमित रखा. आप यहां के लोगों से CAA के मुद्दे पर दो राय रख सकते हैं, लेकिन यह नहीं कह सकते कि जामिया के लोगों की तरह तोड़-फोड़ की. बीजेपी और कांग्रेस ने यहां राजनीतिक रोटियां सेकने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हो पाए.

उल्टा यहां के लोगों ने इस प्रदर्शन को सत्याग्रह से जोड़ दिया यानी गांधी की भाषा से जोड़ दिया. लेकिन यहां एक सवाल उठता है, गांधी ने कई आंदोलन किये, देश में सत्याग्रह की नींव रखी. लेकिन उन्होंने जब चाहा और जहां चाहा इन आंदोलनों को खत्म कर दिया. उन्होंने इन आंदोलनों का इस्तेमाल लोगों को जोड़ने के लिए किया, हिंसक आंदोलनों के वो सख्त खिलाफ रहे. आंदोलन खत्म करने के बाद वो आश्रम चले जाते थे, इसमें एक संदेश था. आंदोलन की एक अपनी जिंदगी होती है और हर नेता और आंदोलनकारी को सोचने का वक़्त भी होना चाहिए. उन्होंने आंदोलन की सफलता लोगों के सजग होने में मानी चाहे उद्देश्य सफल हुआ हो या नहीं. इसलिए शाहीन बाग के धरने का मूल्यांकन केवल सरकार के रुख को देख कर नहीं करना चाहिए.

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धरना कानून बनाने के लिए नहीं है. यह धरना कानून के खिलाफ है, इस कानून को संसद ने पारित किया है और केवल कोर्ट रद्द कर सकता है. इसको सरकार वापिस नहीं लेगी. सरकार सर्वे भी करेगी और लोगों को यह भी बताएगी कि सर्वे करना गरीब लोगों के लिए बेहद जरूरी है. ये भी कहेगी की डाटा योजनाओं के लिए चाहिए.

इसलिए अच्छा यही होगा की इस धरने को एक अच्छे मोड़ पर लाकर छोड़ दिया जाए. गांधीवाद और लेफ्ट में यही फर्क है, लेफ्ट में आंदोलन की अटूट भाषा है. गांधी के आंदोलन में सबकी जगह है लेकिन लेफ्ट में आपको काम एक कॉमरेड की तरह ही करना होगा जहां धर्म पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं.

आप गांधीवाद कोई भी काम कर के कर सकते हैं यानी फूल बांट कर, खादी सूत कात कर, सच बोल कर इत्‍यादि. गांधी ने आजादी की लड़ाई में भी किसी पर बड़ी जिम्मेदारी नहीं डाली थी. जो जितना कर पाया वो गांधी के लिए उतना ठीक था. अगर यह सत्याग्रह है तो अब इसे खत्‍म हो जाना चाहिए. इसलिए नहीं कि लोगों को आने-जाने में दिक्कत हो रही है पर इसलिए भी कि इस प्रदर्शन ने एक मुकाम हासिल कर लिया है.

पूरी दुनिया में लोगों को बता दिया है कि एक तबका है जो नए कानून के खिलाफ है. इस आंदोलन के जरिए संविधान पर भी अच्छी-खासी चर्चा हुई है. जरूरत अब यह है कि शाहीन बाग के लोग ये सोचें कि विचारधारा की लड़ाई को आगे कैसे ले जाया जाए? अगर वो गांधीवाद को मानते हैं तो मैं कहूंगा कि शाहीन बाग के आंदोलन का उद्देश्य पूरा हुआ और वो यह कि सरकार संसद पर काबिज़ होने के बावजूद सड़क पर पूर्ण अधिकार नहीं रखती है.

(लेखक: कार्तिकेय शर्मा WION के राजनीतिक संपादक हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

 

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