डियर जिंदगी : हां, मैं तुम्‍हें याद ही कर रहा था...
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डियर जिंदगी : हां, मैं तुम्‍हें याद ही कर रहा था...

जब टेलीफोन, मोबाइल और फेसबुक जैसी चीजें नहीं थीं, तो क्‍या उस समय संवाद नहीं था. मेरे विचार में बस गति नहीं थी, संवाद तो भरपूर था. उसके बाद गति हमारे जीवन पर कुछ ज्‍यादा ही सवार हो गई और हम भूलते गए कि फेसबुक जैसी सुविधाएं हमारे जीवन में लोगों से संवाद को बढ़ाने का एक माध्‍यम थीं, मूल संवाद का विकल्‍प नहीं.

डियर जिंदगी : हां, मैं तुम्‍हें याद ही कर रहा था...

उनके लिए जिन्‍होंने अपनी जिंदगी में (अ)सल मीडिया के पनपने से पहले होश संभाला लिया था. सबसे मिलते-जुलते रहने, सबके संपर्क में रहना एक बुनियादी बात थी. इस पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल है कि जब हमारे पास संवाद के इतने साधन नहीं थे, तो हमारे बीच एक समाज के रूप में कहीं अधिक सजग संवाद था. यह कोई बहुत पुराने जमाने की बात नहीं है, जब टेलीफोन, मोबाइल और फेसबुक जैसी चीजें नहीं थीं, लेकिन क्‍या उस समय संवाद नहीं था. मेरे विचार में बस गति नहीं थी, संवाद तो भरपूर था. उसके बाद गति हमारे जीवन पर कुछ ज्‍यादा ही सवार हो गई. इतनी और ऐसे कि हमने गति से ही मित्रता कर ली. हमने वर्चुअल दुनिया के रिश्‍तेदार को अपने एहसास से जोड़ दिया. हम भूलते गए कि फेसबुक जैसी सुविधाएं हमारे जीवन में लोगों से संवाद को बढ़ाने का एक माध्‍यम थीं, मूल संवाद का विकल्‍प नहीं.

इसे एक छोटी सी मिसाल से समझिए. एक शहर में दो भाई रहते थे. बेसिक फोन नहीं था. फेसबुक और मोबाइल तो और दूर की कहानी थे. दोनों के परिवार महीने में कम से एक बार तो मिलते ही थे. उस समय इस तरह की बात नहीं होती थी कि 'हां, मैं तो तुम्‍हें याद ही कर रहा था.' इसकी जगह यह होता था कि तुमसे मिले बहुत वक्‍त हो गया था तो मैंने सोचा मिल ही लिया जाए. इसका मतलब यह है कि हमने रिश्‍तों को किसी दूसरे के भरोसे नहीं छोड़ा था. सुख-दुख, अवसर और जरूरत रिश्‍ते का आधार नहीं थे. रिश्‍तों का आधार स्‍नेह, प्रेम और आदर था. हम अपने बड़ों से दूसरों से प्रेम करना और उनका ख्‍याल रखना सीखते थे. यह प्रक्रिया में कुछ ऐसी थी कि हम दूसरों का ख्‍याल रखना धीरे-धीरे एक प्रक्रिया के तहत सीख जाते थे. सिखाना नहीं पड़ता था.

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दूसरों की मदद करना, जरूरत के वक्‍त काम आना और दूसरों के लिए खुद को हाजिर रखना जैसी चीजें बच्‍चों के दिल और दिमाग में अपने आप बसती चली जाती थीं. अब इसकी तुलना आज से कीजिए. आज बच्‍चों का अकेलापन बढ़ता ही जा रहा है. बच्‍चे खुद में खोते जा रहे हैं. उनमें चीजों को साझा करने की आदत और ख्‍वाहिश दोनों कम होती जा रही है.

इसका प्रभाव इस रूप में देखने को मिल रहा है कि अब रिश्‍तों की बात तो दूर की हुई. भाई-बहन के बीच में 'ईगो' के संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं. वहां साझा करने का विचार असहमति से होता हुआ मनभेद तक पहुंच रहा है. इसके सबसे बड़े कारणों में से एक उनका दूसरे हमउम्र बच्‍चों से संवाद और मेल-जोल कम होते जाना है.

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बच्‍चे अपनी किताबों, होमवर्क, ट्यूशन, असाइनमेंट और कार्टूनों के बीच एकदम अकेले पड़ते जा रहे हैं. यह अकेले पड़ते बच्‍चे बड़े होकर जो दुनिया बना रहे हैं, उसमें उतना ही अकेलापन, रिक्‍तता और शून्‍यता है, जितनी उनके बचपन में थी.

हम समस्‍या को बड़ों की दुनिया में उस समय देखते हैं, जब उसका आकार बड़ा हो चुका होता है, जबकि हमें उसे बचपन में ही समझना चाहिए. इसलिए जितना संभव हो हमें बच्‍चों को दूसरे और विविध पृष्ठिभूमि के बच्‍चों से संवाद के अवसर देने चाहिए. इससे उन्‍हें उस दुनिया का हिस्‍सा होने में आसानी होगी, जहां उन्‍हें पूरी उम्र गुजारनी है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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