हम 'ग्लोबल वार्मिंग' की तख्तियां लिए घूम रहे हैं, धरती की चिंता में घुले जा रहे हैं, लेकिन अपनी ही जड़ों से दूर होते जा रहे हैं.
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प्रेम और संतोष, भारतीय जीवनशैली की दो प्रमुख खासियतें रही हैं. कुछ हो न हो लेकिन आपस का प्रेम बना रहता था. प्रेम के घरौंदे में पहली दरार उदारीकरण के बाद आई. शहरों में ही सही लेकिन रोजगार बढ़े. नए अवसर आए. महिलाओं के लिए पहले से बेहतर वातावरण बना. उनकी शिक्षा के साथ रोजगार के अवसर भी बढ़े. इसके साथ ही संयुक्त परिवार की जगह छोटे परिवार बनने लगे.
धीरे-धीरे परिवार का अर्थ ही बदल गया. अब परिवार का नया अर्थ है, पति-पत्नी और बच्चे. अब परिवार में माता-पिता को संयुक्त परिवार/ एक्सटेंडेट फैमिली में गिना जाता है. यह सब ठीक है. क्योंकि बढ़ते अवसर और सिमटती नौकरियों के बीच इस बात की बहुत चिंता करना व्यवहारिक नहीं रह गया था. इसलिए जिसको जहां जगह मिली, लोग आगे बढ़ते गए. इस भागमभाग में प्रेम और संतोष दोनों ही स्टेशन पर छूट गए लगते हैं, जबकि सपनों की ट्रेन बहुत आगे निकल गई है.
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डालियों के आगे बढ़ने का अर्थ जड़ों का सिमटना नहीं है. तने का विस्तार जरूरी है, लेकिन यह जड़ों की कीमत पर होगा, तो पेड़ अधिक दिन सुरक्षित नहीं रह पाएगा. यह बात परिवार पर भी लागू होती है. नौकरी के बाद युवा जिस तरह से अपनी दुनिया में गुम होते जा रहे हैं, वह समाज के लिए खतरनाक संकेत है.
हम इन दिनों युवा आबादी का हल्ला मचाने में व्यस्त हैं. जबकि हमारा ध्यान इस बात पर अधिक होना चाहिए कि कैसे हमारे बुजुर्ग अकेले होते जा रहे हैं. अगले बीस बरसों में उनका ख्याल रखने का हमारे पास कोई प्रबंधन नहीं है. सरकार, समाज दोनों इस संवाद से दूर हैं.
बुजुर्गों के अकेले पड़ने में धन बड़ा मामला नहीं है. बल्कि इस मामले में आर्थिक पक्ष की भूमिका सीमित है. बुजुर्गों के अकेले पड़ने में अधिक भूमिका युवाओं का अपनी दुनिया में चले जाना अधिक है. उनकी जिम्मेदारियों में अपने बच्चे तो हैं, लेकिन जिनके वह बच्चे हैं, उनको अपने ही घर में दूसरे दर्जे की नागरिकता दे दी गई है.
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जीवन की खुशबू यहीं से रास्ता भटक गई है. अब परिवार की छोटी यूनिट के पास जड़ें कम होती जा रही हैं. जड़ों को खाद-पानी देने का काम भी हर दिन कम होता जा रहा है. माता-पिता को आर्थिक सुरक्षा देना भर हमारी जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए, उनके जीवन में सक्रियता, स्नेह, नियमित संवाद हमारी जीवनशैली का हिस्सा होना चाहिए.
अपने लिए हम जैसी दुनिया चाहते हैं, वैसी ही उन्हें भी तो देनी है, जो हमें अपनी जिंदगी से ज्यादा प्यार करते आए हैं. हम 'ग्लोबल वार्मिंग' की तख्तियां लिए घूम रहे हैं, धरती की चिंता में घुले जा रहे हैं, लेकिन अपनी ही जड़ों से दूर होते जा रहे हैं. बिना जड़ों के समाज में सुख की कल्पना नहीं की जा सकती, यह नियम मनुष्यों पर भी लागू होता है, यही हम भूल गए हैं.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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