हमारे इलाके में एक लोकमान्यता है- दुश्मन की गाली उम्र को और बढ़ा देती है. किसी और संदर्भ में ये सच हो न हो, नरेंद्र मोदी के संदर्भ में तो ये सोलह आने सच है.
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हमारे इलाके में एक लोकमान्यता है- दुश्मन की गाली उम्र को और बढ़ा देती है. किसी और संदर्भ में ये सच हो न हो, नरेंद्र मोदी के संदर्भ में तो ये सोलह आने सच है. भारत के राजनीतिक इतिहास में यदि इस बात का आंकलन किया जाए कि अब तक किस राजनेता को कितने अपशब्द, उलाहना मिले हैं तो निःसंदेह एक तरफ अकेले पीएम नरेंद्र मोदी और दूसरी तरफ बाकी सब होंगे. उलाहने निःसंदेह सहानुभूति बढ़ाते हैं. शायद इसीलिए बुजुर्गों ने गाली से उम्र बढ़ने का ये आख्यान रचा होगा ताकि झगड़ा बढ़ाने से बेहतर उन्हें अनदेखा कर दिया जाए. अंग्रेजी में भी इसे- इग्नोरेंस इज द बेस्ट पॉलिसी कह सकते हैं.
हाल ही में संपन्न हुए कांग्रेस के महाधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के निशाने पर एक बार फिर नरेंद्र मोदी ही रहे. एक अखबार ने पहले पन्ने पर बाकायदा इसकी सांख्यकी पेश की. 53 मिनट के भाषण में राहुल गांधी ने 23 बार कांग्रेस का, 21 बार नरेंद्र मोदी का और 10 बार बीजेपी का नाम लिया. अब मोदी का नाम उनकी प्रशस्ति में तो लिया नहीं गया होगा. जाहिर है मैनईटर, ब्लडसकर, इदीअमीन, हिटलर, मुसोलिनी की पूर्व प्रचारित उपाधियों को छोड़कर जितना बन पड़ा उतना सब कहा. एक नई उपाधि दी गई 'क्रोनी कैप्टलिज्म के प्रतीक हैं मोदी, मोदी नाम ही अब भ्रष्टाचार का पर्यायवाची है. नीरवमोदी, ललितमोदी जैसे फ्राडियों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फेंटते हुए सभी को एक थाली के चट्टे-बट्टे करार दिया गया.
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21 बार नरेंद्र मोदी के स्मरण के साथ आठ से दस बार अमित शाह और उनके बेटे का भी नाम लिया गया. इस तरह देखें तो राहुल गांधी ने 53 मिनट में 41 बार मोदी-अमित शाह-भाजपा का नाम लिया. 2019 के लोकसभा चुनाव को धर्मयुद्ध बताते हुए भाजपा को कौरवों की उपाधि को उनके भाषण की सांख्यिकी में मिला दें तो राहुल को और कुछ कहने के लिए बचा ही नहीं होगा.
राहुल गांधी के इस भाषण को मोदी की अगली विजय का रोडमैप कह सकते हैं क्योंकि मोदी की अजस्त्र ताकत का रहस्य उनकी प्रशस्ति में नहीं, उनको दिए जाने वाले उलहानों और उनकी आलोचना में है.
याद करिए 2014 के पहले हुए गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-वामपंथी समेत भाजपा के विरोधी दलों ने जिस तरह नरेंद्र मोदी पर जघन्य आरोपों और उलहानों की वर्षा की थी और एक अकेले मोदी ने उसे झेला और जवाब दिया, उसी का परिणाम था कि मोदी राष्ट्रीय नेता बनकर उभरे और भाजपा ने लोकसभा चुनाव को उन्हीं पर केंद्रित कर दिया. विरोधियों की आलोचना की मार ने मोदी के व्यक्तित्व को अभेद्य कवच के रूप में गढ़ दिया.
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याद भी होगा जब कांग्रेस के नेता मोदी को रक्तपिपासु बताते हुए तानाशाह इदी अमीन से तुलना कर रहे थे. मीडिया और बौद्धिकों का एक वर्ग इसे बड़े फलक में फैलाकर पेश कर रहा था. सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस को तो सोनिया गांधी ने अपने भाषण में हर जगह खासतौर पर रेखांकित किया था. टीवी चैनलों में मोदी के जवाब का दृश्य आज तक स्मृतियों में ताजा है- सोहराबुद्दीन, सोहराबुद्दीन, सोहराबुद्दीन..! वो जनसभा में पूछते कि ये सोहराबुद्दीन कौन? भीड़ से आवाज आती- आतंकवादी.. फिर वे पूछते तो- इसका क्या किया जाना चाहिए? जनता से जवाब आता- उसे शूट कर देना चाहिए. तो ठीक हुआ कि गलत? जनता दोगुने स्वर से जवाब देती बहुत ठीक! मोदी समापन करते कि अब बस ज्यादा कुछ और नहीं कहना.
किसी भी जघन्य आरोप को नई दिशा की ओर उछाल देने का जो हुनर मोदी में है वह किसी और में नहीं. क्रिकेट में वह बैट्समैन बहुत ही धुरंधर माना जाता है जैसा कि हमारे दौर में गुंडप्पा विश्वनाथ थे, जो थामसन, लिली और एंडी राबर्टस की तूफानी गेंद को बिना किसी अतरिक्त श्रम के कलाइयों का कमाल दिखाते हुए बाउंडरी पार करा देते थे, बेचारा बालर माथा ठोकता रह जाता था. राजनीति के टेस्ट मैच में यह हुनर सिर्फ और सिर्फ मोदी के पास है जो खुद पर लगे आरोपों को अस्त्र बनाकर प्रहार करने में माहिर हैं.
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राहुल को कांग्रेस के अतीत से सबक लेना चाहिए. मोदी से पहले विपक्ष और अपने ही पार्टी के धुरंधरों की आलोचनाओं और लांछनों का सबसे ज्यादा सामना जिसे करना पड़ा वो उनकी दादी इंदिरा जी थीं. उन पर जितनी बौछार होती थी वे उतनी ही ताकत के साथ उभरकर सामने आती थीं क्योंकि जनता को ऐसा लगता था कि एक अकेले को सभी मिलकर घेर रहे हैं. विरोधियों ने आलोचना कर जिस तरह इंदिराजी का कद कांग्रेस से बड़ा बना दिया उसी तरह मोदी को भी आलोचनाओं ने भाजपा से बड़ा बना दिया. तब इंदिरा इज इंडिया था अब 'मोदी नाम केवलम् है'.
यह जान लेना चाहिए कि मोदी को जो ये हैसियत मिली है इसमें उनकी पार्टी से ज्यादा विरोधियों का योगदान है, इसलिए मैं कहता हूं कि मोदी की ताकत विरोधियों की आत्मा में ऊर्जान्वित होती है. राहुल का मोदी फोबिया मोदी को ही ताकतवर बनाएगा और मुकाबला मोदी बनाम सब में टिक जाएगा.
यह सही है कि भाजपा और मोदी ने समय बेसमय सोनिया और राहुल को अपने निशाने पर लिया है लेकिन मोदी सिर्फ ओपनिंग करते थे बाकी का काम दूसरी लाइन के नेता और उनका प्रचार तंत्र करता था. राहुल की विफलताओं, उनकी चालढाल, पहनावे और बोली भाषा तक का खूब मजाक बनाया गया. राहुल और उनकी मंडली इस फीडबैक पर यकीन करे या नहीं पर यह सही है कि राहुल के पक्ष में सहानुभूति का एक वातावरण बनना शुरू हो गया था. सड़क चौराहों पर आम आदमी भी राहुल के पक्ष में खड़ा होना शुरू हुआ था. लेकिन इस महाधिवेशन में राहुल ने अभियान की दिशा उसी ओर मोड़ दी जिधर मोदी के रणनीतिकार चाहते थे. यह जान लेना चाहिए कि अगले चुनाव में भी भाजपा मोदी की छाया में ही रहने वाली है और मोदी की जोड़ का पहलवान फिलहाल विपक्ष के पाले में नहीं दिख रहा है. मैन-टू-मैन मुकाबले में मोदी को फिर से चैम्पियन बनने से कौन रोक पाएगा ऐसी सूरत नजर नहीं आ रही. आने वाले दिनों में सोनिया-राहुल को लेकर मोदी को 'इग्नोरेंस इज द बेस्ट प्रिफरेंस' की नीति पर चलते हुए देख सकेंगे, यही मोदी की स्टाइल है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)