पर्यावरण और कौए वाली मानसिकता
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पर्यावरण और कौए वाली मानसिकता

आज भारत में 16 करोड़, 30 लाख लोग ऐसे हैं जो साफ पानी के लिए तरस रहे हैं, पिछले साल की तुलना में यह आंकड़ा इस साल बढ़ा है. ऐसा इसलिए क्योंकि वो लोग जिन्हें अपने घर तक पानी लाने में आधे घंटे का आना जाना करना पड़ता है, उन्हें उस श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता जिन तक पानी की पहुंच है. 

पर्यावरण और कौए वाली मानसिकता

हम सभी ने बचपन में एक कहानी ज़रूरी पढ़ी होगी. जिसमें एक कौए को प्यास लगती है और वो इधर –उधऱ भटकता रहता है. लेकिन उसे कहीं पानी नहीं मिलता है. फिर पानी खोजते हुए प्यास से बेहाल कौए को एक मटका दिखता है जिसमें झांकने पर पानी नज़र आता है. लेकिन उसकी चोंच पानी तक पहुंच नहीं पाती है क्योंकि पानी मटके के तले मे मौजूद है. फिर कौए को एक युक्ति सूझती है और वो कंकर डाल-डाल कर पानी को ऊपर ले आता है फिर उसकी प्यास बुझा लेता है.

दरअसल हमारे प्राकृतिक संसाधनों, पानी, हवा, पर्यावरण सभी को लेकर हमारी विचारधारा पीढ़ियों से यही रही है. यही मानसिकता हम हमारे बच्चों में स्थानान्तरित करते आ रहे हैं. हमने हमारे जल स्रोतों को पूर दिया है और तले पर पड़े हुए पानी को हम गाद भर भर के उपर उठाते जा रहे है और ये सोच रहे है कि हमारे सभी जलस्रोत लबालब भरे हुए हैं. कौए की एक ही आंख होती है जिसे वो जिस दिशा में देखना होता है उस दिशा की तरफ आंख के कोटर में ले जाता है और देख लेता है. हम इंसानों का भी प्रकृति को लेकर यही रवैया रहा है. हमने उसे हमेशा एक ही आंख से देखा है जो प्रकृति को देते हुए ही देख सकती है. यही वजह है कि थोड़ी सी भी बारिश हो जाने पर दिल्ली में बाढ़ के हालात पैदा हो जाते हैं, लोग सोचते है कि इस बार बाऱिश ठीक हुई जबकि हकीकत ये है कि यमुना को हमने दिल्ली में मार दिया है. वो गाद से पटी हुई है इसलिए थोड़ा सा भी पानी ज्यादा लगता है.

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हमारी मानसिकता उस राज्य की तरह हैं जहां पर पानी की कमी पड़ने पर राजा ने शिवलिंग की दूध से अभिषेक करने की घोषणा करते हुए राज्य की बावली में सभी को एक लोटा दूध डालने के लिए कहा गया औऱ अगले दिन वो बावली पानी से लबालब भरी हुई थी. हमने हमारे प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया और आज भी कर रहे हैं, हम लगातार पानी की बरबादी कर रहे हैं , ये सोचते हुए कि मेरे अकेले के करने से क्या होता है.

पिछले दिनों शिमला से खबर आई थी कि वहां पर पानी की किल्लत इस कदर ब़ढ़ गई है कि होटल इंडस्ट्री ने टूअर कैंसल करते हुए लोगों के पैसे लौटा दिये हैं. वहां लोगों के पास पीने के लिए तक पानी नहीं मिल पा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में दिल्ली मे गिरते हुए भूजल स्तर पर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि यह बहुत ही गंभीर हालात हैं. दो जजों की पीठ ने मई 2000 से मई 2017 के बीच दिल्ली मे भूजल स्तर की स्थिति पर केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट देखने के बाद कहा कि ये बहुत ही डराने वाली तस्वीर प्रस्तुत करती है.

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विकास के नाम पर प्राकृतिक जलस्रोतों के बेपनाह इस्तेमाल और इनकी देखभाल में कमी ने दुनिया को एक भयानक जल संकट के मुहाने पर ला खड़ा किया है. दक्षिण अफ्रीका के कैपटाउन शहर का अनुभव इस डर की एक बानगी दिखाता है. पानी की कमी से जूझ रहा कैपटाउन ‘डे ज़ीरो’ के लिए खुद को तैयार कर रहा है जब पानी के नलों को पूरी तरह बंद कर दिया जाएगा, यही नहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का 60 फीसदी हिस्सा पानी की कमी वाले इलाकों में रह रहा है . युगांडा, निजेर, मोज़ांबिक, भारत औऱ पाकिस्तान उन देशों में शुमार हैं जहां सबसे ज्यादा प्रतिशत या सबसे ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें आधे घंटे का आना जाना किए बगैर साफ पानी नसीब नहीं हो पाता है.

आज भारत में 16 करोड़, 30 लाख लोग ऐसे हैं जो साफ पानी के लिए तरस रहे हैं, पिछले साल की तुलना में यह आंकड़ा इस साल बढ़ा है. ऐसा इसलिए क्योंकि वो लोग जिन्हें अपने घर तक पानी लाने में आधे घंटे का आना जाना करना पड़ता है, उन्हें उस श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता जिन तक पानी की पहुंच है. एरेट्रिया, पपुआ न्यू गिनी और युगांडा वो तीन देश हैं जहां घर के करीब साफ पानी की उपलब्धता सबसे कम है. युगांडा को महज़ 38 फीसद लोगों तक पानी की पहुंच की वजह से इस साल लिस्ट में शामिल किया गया है.

मोज़ाम्बिक उन देशों की सूची में चौथे नंबर पर है जो पानी की व्यवस्था पर बेहतरीन काम कर रहे हैं लेकिन इसके बावजूद सबसे कम पानी की पहुंच के मामले में यह दुनिया के पहले दस देशों में शुमार है. इस देश की राजधानी मापुतो, इन दिनों भयंकर पानी की कमी से जूझ रहा है और अब यह पानी के वितरण को सीमित करने की तैयारी कर रहे हैं. कंबोडिया उन सर्वोच्च दस देशों में शामिल है जिन्होंने प्रतिशत के हिसाब से सबसे ज्यादा तरक्की की है. आज यहां 75 फीसद लोगों को घर के करीब ही साफ पानी उपलब्ध है जबकि 2000 में केवल 52% लोगों तक ही साफ पानी की पहुंच थी.

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वह सभी देश जो अपने नागरिकों तक साफ पानी पहुंचाने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं, लगभग उन सभी देशों में अमीर और गरीब के बीच पानी की उपलब्धता में एक विशाल अंतर भी देखने को मिलता है. मसलन, निजेर में महज़ 41 प्रतिशत गरीबों तक ही पानी पहुंच पा रहा है, जबकि वहां के संपन्न लोगों में यह आंकड़ा 72 फीसद है. वहीं पड़ोस के माली में 45% और 93% के साथ यह अंतर देखने को मिलता है.इस साल भारत विश्व पर्यावरण दिवस की मेजबानी कर रहा है. आज देश संयुक्त राष्ट्र संधारणीय स्थायी विकास गोल 6 की समीक्षा के लिए खुद को तैयार कर रहा है जो 2030 तक सब जगह, सबके लिए पानी की उपलब्धता औऱ स्वच्छता की बात करता है. जबकि हकीकत बताती है कि दुनिया भर में बगैर साफी पानी के गुज़ारा करने वाले 84 करोड़ 40 लाख लोगों में से 16 करोड़, 30 लाख अकेले भारत में मौजूद हैं.

एक तरफ देश विश्व का मेजबान बन रहा है दूसरी तरफ उत्तराखंड के जंगल धधक रहे हैं. सरकारी आंकड़ो के मुताबिक अब तक यहां आग लगने की 717 घटनाएं हो चुकी है जिसमें 1,117 हेक्टेयर जंगल जलकर खाक हो चुके हैं. इसके अलावा बेशकीमती जड़ी बूटिया खत्म हो गई हैं. खास बात ये है कि इन जंगलों में लगी आग कोई प्राकृतिक आग नहीं है बल्कि ये मानव निर्मित है. ठीक उसी तरह जिस तरह अमेजान के जगलों को रातों रात काट कर वहां घास के मैदान बना दिय जाते हैं जिससे जानवरों के लिए चारागाह बन सके. वहां मीट एक्सपोर्टर का लालच प्रकृति पर हावी हो रहा है यहां उत्तराखंड में टिंबर माफिया ये करने में लगे हुए हैं.

इसी तरह गंगा मंत्रालय के नाम पर मंत्री तो बदल गए हैं लेकिन न गंगा निर्मल हो पाई है औऱ न ही अविरल. हां अविरल होने की राह में बांधों के रोड़े बनाने में ज़रूर विकास नज़र आता है. वहीं यमुना तो अपना अस्तित्व ही खोने की कगार पर है. यही नहीं हमने हमने संचयन को भूल कर हर स्रोत का सिर्फ दोहन ही किया है. इसी का नतीजा है कि प्राचीन काल सामर्थ्यवान परिवार कुएँ, बावड़ियों, तालाबों का निर्माण करवाया करते थे. ये कुएँ,-बावड़ी न केवल बारिश के पानी को सहेज कर पूरे साल भर पानी की ज़रूरत को पूरा करते थे बल्कि भूजल स्तर को बनाए रखने में भी अहम भूमिका निभाते थे. अब सामर्थ्यवान उस तालाब, बावडियों को पूर कर उस जमीन को हड़पने में लगे हुए हैं.

मसलन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल जिसे तालों का शहर कहा जाता है जहां ले दे कर दो तालाब बचे हैं, बाकी तालाबों पर कब भूमाफियाओं का कब्जा हो गया किसी को भनक तक नहीं लगी. यही नहीं हर साल तालों के इस शहर में पानी की किल्लत की वजह से खूनी संघर्ष की खबरे आती हैं.

भारत में तालाब बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है. सन 1800 में मैसूर राज के दीवान ने वहां 39000 तालाब बनाए थे. देश की राजधानी दिल्ली में ही लगभग 350 तालाब हुआ करते थे. लेकिन आज आप ढूंढने जाएंगे तो एक तालाब भी बमुश्किल मिल पाएगा. इंटरस्टेलर फिल्म की शुरूआत में दिखाया गया है कि किस तरह धूल भरी आंधी ने जन-जीवन को नष्ट करके रख दिया है. फिल्म का ये दृश्य बीते दिनों हमें राजस्थान औऱ दूसरे राज्यों में देखने को मिला जब वहां धूलभरी आंधी ने तबाही मचाई थी. ये मौसम मेंहो रहे बदलावों की एक भयावह तस्वीर दिखाता है .

नेशनल ज्योग्राफिक चैनल पर प्रसारित डॉक्यूमेंट्री ‘इयर्स ऑफ लिंविंग डेंजरस्ली’ में बताया गया है कि किस तरह मौसम में हो रहा बदलाव हमारे जीवन पर प्रभाव डाल रहा है. तापमान में होती बढ़ोतरी ने दुनिया के कई देशों को सूखे की चपेट में ला दिया है. इंडोनेशिया में तो पाल्म ऑइल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रकृति को दोहरी मार मारा जा रहा है. पहले तो पेड़ काटे जा रहे हैं फिर उन्हें जलाया भी जाता है.अनाज उत्पादन का गढ़ माने जाने वाले टेक्सास में अब कुछ नहीं बचा है, वहां लगातार कई सालों तक सूखा पड़ता है और फिर भयानक बाढ आती है. यहां तक की सीरिया में होने वाला आंदोलन औऱ क्रांति की वजह भी यही ग्लोबल वार्मिंग है जिसकी वजह से वहां लगातार सूखा पड़ रहा है और लोगों के पास खाने को नहीं था जिसने यह नौबत ला दी कि लोग सड़कों पर उतर आए.

अल नीनो और सुपर स्टॉर्म सैंडी जैसे तूफान समुद्र के आने वाले वो तूफान हैं जो हैं तो प्राकृतिक लेकिन लगातार गहराते जा रहे हैं. इनसे होने वाली तबाही लगातार बढ़ती जा रही है .इंटरस्टेलर फिल्म जिसमें ये बताया गया है कि किस तरह धऱती अब रहने लायक जगह नहीं बची है इसलिए नायक स्पेस में दूसरी धरती को खोजने निकलता है. ये फिल्म स्टीफन हॉकिंग स्टीफन के विचारों को आगे बढ़ाती है. हॉकिंग का कहना था कि मनुष्यों को जल्दी ही स्पेस में अपने लिए कोई ठिकाना ढूंढ लेना चाहिए क्योंकि पृथ्वी का अस्तित्व ज्यादा समय के लिए नहीं रहने वाला है. महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है – ‘अति परिचयाद् अवज्ञा भवति’ यानि सतत सहजता से उपलब्ध होना भी आपके प्रति उपेक्षा का भाव बन जाता है.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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