बाल विवाह के पक्ष में होना यानी बच्चों के खिलाफ होना
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बाल विवाह के पक्ष में होना यानी बच्चों के खिलाफ होना

सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में साफ उल्लेख किया है कि वयस्क व्यक्ति को अपनी पसंद और हित का निर्णय लेने का अधिकार है, परन्तु समाज का वर्गवादी और नियंत्रणवादी चरित्र उस अवस्था तक व्यक्ति को पंहुचने देना ही नहीं चाहता है. 

बाल विवाह के पक्ष में होना यानी बच्चों के खिलाफ होना

27 मार्च 2018 को शक्तिवाहिनी बनाम भारत सरकार एवं अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि 'जब दो वयस्क अपनी मर्जी से विवाह करना चाहते हैं, अपना रास्ता चुनना चाहते हैं, अपना लक्ष्य तय करते हैं, तो उन्हें यह करने का अधिकार है. यदि कोई वयस्क प्रेम और विवाह के बारे में कोई निर्णय लेता है तो सम्मान के नाम पर उसके साथ की जाने वाली किसी भी तरह की यंत्रणा, यातना या दुर्भावनापूर्ण व्यवहार गैर-कानूनी है और इसे स्वीकार्यता नहीं दी जा सकती है.' 

यह इंतिखाब और पसंद के चुनाव के अधिकार को हानि पंहुचाने जैसा है. जब वर्ग सम्मान के नाम पर पसंद के विकल्प को चुनने के अधिकार को कुचला जाता है और व्यक्ति के भौतिक स्वरुप के साथ अपमानजनक व्यवहार होता है, तब समाज की दिमाग और हड्डियों पर इसका कंपकपा देने वाला प्रभाव पड़ता है. 

सवाल यह है कि क्या किसी जूनून या आवेश में वरिष्ठ परिजनों को ऐसे युवाओं के जीवन को खत्म कर देने का आदेश देने पर स्वीकृति है, जिन्होंने अपने बड़े बुजुर्गों या पारंपरिक तरीकों के विरुद्ध जाकर विवाह किया है. इसका जवाब है 'नहीं'! हमारा संविधान व्यक्ति को 'चयन और पसंद' का अधिकार देता है. स्वतंत्रता के स्वतंत्र निर्वहन का मार्ग बनाने के लिए सामंतवादी नज़रिए और व्यवहार को अब विस्मृत कर दिया जाना चाहिए.'

सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में साफ उल्लेख किया है कि वयस्क व्यक्ति को अपनी पसंद और हित का निर्णय लेने का अधिकार है, परन्तु समाज का वर्गवादी और नियंत्रणवादी चरित्र उस अवस्था तक व्यक्ति को पंहुचने देना ही नहीं चाहता है. समाज का एक तबका चाहता है कि विवाह का निर्णय और इस व्यवहार व्यक्ति के वयस्क होने से पहले ही कर दिया जाए ताकि 'परिवार, पुरुष और सत्ता संचालक' हर लड़के और लड़की के जीवन के बारे में निर्णय ले सकें. लेकिन समाज अब भी बच्चों और युवाओं को स्वतंत्रता के साथ परिपक्व होने देखने नहीं चाहता है, क्योंकि इससे वे सवाल करने और सही-गलत परम्पराओं का विश्लेषण करने में सक्षम हो जाते हैं.

पुरुष अपने पुरुषत्व बल की सत्ता में आ रहे उतार-चढ़ावों को देख बहुत घबराया हुआ है. इस समाज को बेहतर, सामान और न्यायमूलक बनाने के लिए हो रही कोशिशों से उसके अपराधों और निरंकुशता पर नियंत्रण लग रहा है, तो वह बहुत बेचैन है. उसकी पूंजीवादी, उपनिवेशवादी और मर्दवादी सत्ता को चुनौती मिल रही है. ऐसे में उसे कई बार नैतिक और अनैतिक, मानवीय और अमानवीय, कानूनों और गैरकानूनी पक्ष के बीच के अंतर का भान ही नहीं रह जाता है. 
मध्यप्रदेश की विधानसभा के सदस्य यानी चुने हुए विधायक गोपाल परमार (आगर मालवा) ने अपनी वाणी से इन बिन्दुओं को सच साबित किया है. 5 मई 2018 को आजीविका और कौशल विकास दिवस पर अपने विधानसभा क्षेत्र में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने भी अपने 'मन की बात' कह डाली. 

बहरहाल, इस बात का आयोजन की कथावस्तु से कोई सरोकार नहीं था, पर बैचेनी फुदक कर बाहर आ गयी. गोपाल परमार ने कहा कि 'गांव में पहले संबंध बन जाते थे, जिससे उनकी मानसिकता बन जाती थी कि मेरा संबंध हो चुका है या शादी हो चुकी है, इसलिए वे गलत कदम उठाने से बच जाते थे. पहले देखते थे कि समाज में शादी होती थी हमारे बड़े बूढ़े ही संबंध तय कर लेते थे. भले ही बचपन में कर लेते थे, लेकिन वह संबंध ज्यादा टिके रहते थे, ज्यादा मजबूत थे.

यह जबसे 18 साल की बीमारी सरकार ने चालू की है, इसमें बहुत सारी लड़कियां घर से भागने लग गई हैं. लव जेहाद का बुखार चालू हो गया है. हमें घर में ध्यान ही नहीं है कि हमारी छोरी क्या कर रही है, हमें कह कर जा रही है कि पढ़ने के लिए कोचिंग क्लास जा रही हूं, और वह किसी भी लड़के के साथ भाग गयी तो बहुत सारे शरारती लोग आते हैं. 

शातिर लोग आते हैं हमारी माता बहन लिहाज़ पालने वाली होती हैं, इनके साथ कोई उपकार कर देता है तो उनका बहुत सारा अहसान मानती हैं. अगर वह किसी लड़के के साथ भाग गयी तो आपकी इज्ज़त के साथ खिलवाड़ हो जाएगा, इसलिए आपकी जिम्मेदारी यह पता लगाने की बनती है कि लड़की गई तो कहाँ गयी है? मैंने कानूनी उम्र में पंहुचने से पहले ही अपने तीनों बच्चों का विवाह कर दिया था, अब वे खुश हैं. वे मानते हैं कि जैसे पशुओं को पता होता है कि शाम को लौटकर कहां जाना है, वैसे ही शादी के बाद बच्चों को पता होता है कि कहाँ लौटना है! 

मुसलमानों में कुछ गुंडा तत्व होते हैं, जो नाम और पहचान छिपा कर लड़कियों को प्रभावित कर लेते हैं. यदि कम उम्र में शादी कर दी जाए, तो लव जेहाद से उन्हें बचाया जा सकता है.” ये किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं बल्कि एक विभाजनकारी विचारधारा की प्रतीक वाक्य हैं. इस विचारधारा में स्त्रियों, बच्चों, क़ानून, समाज में बराबरी, सहिष्णुता और सुरक्षा के प्रति कोई सम्मान नहीं है. याद रखियेगा कि बाल विवाह केवल लड़कियों के जीवन को संकुचित और दुरूह नहीं बनता है; यह लड़कों के जीवन को भी उतना ही प्रताड़ित भी करता है.

भारत का संविधान समता, शोषण के मुक्ति, न्याय और जीवन जीने का मौलिक अधिकार हर व्यक्ति को देता है; बच्चों के संदर्भ में ये अधिकार ज्यादा व्यापक और गहरे होते हैं. बच्चों के सन्दर्भ में जरूरत होती है कि उन्हें पनपने, सोचने, परिपक्व होने और समग्रता में विकसित होने का अवसर दिया जाए. बाल विवाह इन सभी अवसरों की निर्मम हत्या कर देता है. बाल विवाह शिशु मृत्यु, मातृत्व मृत्यु, यौन हिंसा-उत्पीडन और गरीबी का कारण बनता है. जब कोई बाल विवाह का संस्कृति और परम्परा के नाम पर समर्थन करता है, तब एक बार फिर यह अहसास होता है कि समाज अब भी “बच्चों के बेहतर हित” में व्यवहार नहीं करता है.

सभ्य समाज में बाल विवाह को मानव विकास के लिए एक नकारात्मक सूचक और बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया है. इससे बच्चे पूरी शिक्षा हासिल करने से वंचित रह जाते हैं. उन्हें कौशल विकास के अवसर नहीं मिल पाते हैं. विवाह से उपजी जिम्मेदारियां उन्हें पनपने और अपने जीवन के बारे में सपने देखने से अधिकार से वंचित कर देती हैं. इन अवस्थाओं में बच्चों, ख़ास तौर पर लड़कियों का यौन शोषण भी होता है. कम उम्र के विवाह का परिणाम होता है कम उम्र में गर्भावस्था और कम उम्र में गर्भावस्था का परिणाम होता है लड़की के मरने की ज्यादा आशंकाएं, बच्चे के कुपोषित, विकलांग होने और शिशु मृत्यु की बहुत ज्यादा आशंकाएं. 

भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चार) के निष्कर्ष बताते हैं कि बिहार में 39.1 प्रतिशत विवाह कानूनी उम्र से पहले ही हो जाते हैं. आँध्रप्रदेश में 32.6 प्रतिशत, गुजरात में 24.9 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 30 प्रतिशत, राजस्थान में 35.4 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 40.7 प्रतिशत और समग्र भारत में 26.8 प्रतिशत विवाह बाल विवाह होते हैं. भारत में स्वतंत्रता के 59 साल बाद बाल विवाह को रोकने वाला क़ानून बन पाया यानी विकास में यह सबसे निचले क्रम का विषय रहा.

बच्चों पर नियंत्रण रखने वाले सिद्धांत को सामाजिक-राजनीतिक मान्यता भी मिली हुई है इस तरह का बयान देने और समुदाय को उकसाने के बादे भी सम्बंधित व्यक्ति पर प्रति कोई कार्यवाही नहीं हुई. आजकल सरकारें खुद दहेज़ देने की योजना चलती हैं और सामूहिक विवाह कार्यक्रमों का आयोजन करवाती हैं. विवाह आयोजनों का उपक्रम सामुदायिक और कट्टरपंथी धार्मिक राजनीति में बड़ा प्रभावशाली महत्व रखता है. यही कारण है कि सरकार समर्थित सामूहिक विवाह कार्यक्रमों में भी बाल विवाह भी होते हैं, सबको पता होता है, अखबारों में खबर छपती हैं और फिर भी सांसद, विधायक और मंत्री उनमें बाकायदा मौजूदा रह कर “बाल-विवाहितों” को आशीर्वाद देते हैं.

स्वतंत्रता के बाद से ही, ख़ासतौर पर जब से पूंजीवादी आर्थिक नीतियों की खाज़ (संक्रमित खुजली) के साथ साम्प्रदायिकता और लैंगिक-जातिवादी राजनीति का कोड़ (कुष्ठ रोग) का गठजोड़ हो गया है, तब से संकट चरम की तरफ बढ़ना शुरू हो गया है. इस व्यवस्था में दो युवा, अपनी समझ से एक निर्णय लेकर प्रेम करना और जीवन साथ गुजारना चाहें तो उन्हें कठोर सजा का पात्र माना जाता है. समाज चिंतित होता है कि हिन्दू लड़की मुसलमान लड़के से प्रेम करती है तो इससे उनका प्रभुत्व संकट में आ जाएगा. 

वस्तुतः प्रेम करने से धर्म पर संकट नहीं आता. इससे धर्म मज़बूत होता है, परन्तु धर्म का और धर्म के नाम पर व्यापार और शासन करने वाले समूह धर्म के मूल्यों को मज़बूत नहीं होने देना चाहते हैं. इस संकट से निपटने के लिए वे दो इंसानों की हत्या कर सकते हैं, किसी समुदाय को सबक सिखाने के लिए सामूहिक बलात्कार कर सकते हैं. जमीन लूट सकते हैं उनका सामाजिक बहिष्कार कर सकते हैं, पर उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि भारत में वर्ष 2008 से 2016 के बीच नौ सालों में 68 लाख बच्चे जन्म लेने के बाद 28 दिन भी नहीं जी पाए और मर गए. देश में अब भी हर साल 40 हज़ार महिलायें मातृत्व मृत्यु की शिकार हो जाती है. 

साढ़े छः करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. कारण – बाल विवाह, कम उम्र में गर्भावस्था, हिंसा-भेदभाव, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव और गरीबी का कुचक्र. इस पर इनके मुखारबिंद से बदलाव के लिए पहल करने और संघर्ष के लिए प्रतिबद्धता के फूल नहीं झड़ते हैं. वे संघर्ष के लिए सड़क पर नहीं आते हैं. क्योंकि उनकी सत्ता में ये विषय महत्व के नहीं है.

बाल विवाह मानव अधिकार का उल्लंघन है और इससे जीवन-समाज को बेहतर बनाने वाली बहुत सारी संभावनाएं और उम्मीदें मर जाती है. वर्ष 2008 से 2015 के बीच भारत में 26.30 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु इसलिए हुई, क्योंकि वे 37 सप्ताह की गर्भावस्था पूरी करने से पहले जन्में थे यानी समय पूर्व प्रसव हुआ था. 

आज की स्थिति में भी भारत में लगभग 35 लाख बच्चे समय-पूर्व प्रसव के जरिये जन्म लेते हैं. बाल विवाह और स्त्रियों के साथ शोषण इसका सबसे बड़ा कारण होता है. जब आप बाल विवाह का समर्थन करते हैं, तब आप यह भी साबित करते हैं कि लाखों नवजात शिशुओं की मौत आपके अंतस को कहीं झकझोरती नहीं है. भारत सरकार का ही अध्ययन बताता है कि हर दूसरा बच्चा हिंसा और उत्पीडन का शिकार है.

बाल विवाह में महान परंपरा का दर्शन करने वाले समाज के इस समूह को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि भारत में 50.3 प्रतिशत गर्भवती महिलायें खून की कमी की शिकार होती हैं. लगभग 70 प्रतिशत किशोरी बालिकाएं खून की कमी की शिकार हैं, उन्हें भोजन, पोषण, शिक्षा और सम्मान चाहिए, बाल विवाह नहीं.

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इस वक्तव्य में उन्होंने समाज और परिवार को उनकी जिम्मेदारी से अवगत करवाया है कि लड़की कहाँ जा रही है, इस पर नज़र रखे! कोचिंग जाने का कह कर जाती है और किसी लड़के के साथ भाग जाती है. उनके इस वक्तव्य से कट्टरपंथी साम्प्रदायिक राजनीतिक विचारधारा का स्त्रियों और लड़कियों के प्रति गहरे जमा बैठा नजरिया साफ़ झलकता है. यह नजरिया साबित करता है कि पितृसत्तात्मक समाज इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि लड़कियों या महिलाओं के जीवन से सम्बंधित निर्णय लेने का अधिकार उनके पास (मर्दवादी समाज) नहीं है.

वास्तव में यहां पता चलता है कि लिंगभेद (कि लड़की के बारे में निर्णय परिवार/बड़े-बुज़ुर्ग लेंगे; लड़की का कोई भी स्वतंत्र निर्णय अनैतिक और आपराधिक होगा) और साम्प्रदायिकता (कि यदि एक हिन्दू को मुस्लिम से प्रेम हो जाए तो वह हिंसा/टकराव का कारण बन जाएगा) का शासन वर्तमान समाज को बड़े स्तर पर झकझोर रहा है. वह लिंगभेद और साम्प्रदायिकता दोनों के ही त्यागने के लिए तैयार नहीं है; वह इस गठजोड़ के शासन को मजबूत बनाने के लिए हिंसा, दंगे, कत्लेआम, बलात्कार, आगजनी, क़ानून और संवैधानिक संस्थाओं के दुरूपयोग तक सबकुछ करने के लिए तत्पर है.

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वास्तव में समाज लड़कियों को केवल यौनिक उपनिवेश के नज़रिए से महसूस करता है, ताकि वह अपने मर्द्त्व को भोग सके. बहुत पुरानी बात नहीं है; वर्ष 2016 में आये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चार) से पता चला कि भारत में केवल 54 प्रतिशत महिलायें अकेले बाज़ार जा सकती हैं, 50 प्रतिशत अकेले स्वास्थ्य केंद्र जा सकती हैं, 48 प्रतिशत ही अकेले गाँव या समुदाय के बाहर जा सकती हैं. इन तीन स्थानों पर अकेले जाने का अधिकार केवल 41 प्रतिशत महिलाओं को दिया गया है. इससे साफ़ पता चलता है कि हम अभी भी दास-प्रथा में विश्वास रखने वाले समाज हैं, जिसमें स्त्रियों के चरित्र के निर्धारण, यौनिकता और जीवन व्यवहार पर “मर्द” का कब्ज़ा है.

आगे और जानिये. इसी सर्वेक्षण के मुताबिक 42 प्रतिशत पुरुष मानते हैं है कि यदि महिला बिना बताये कहीं भी जाए, बच्चों का ध्यान नहीं रखे, खाना ठीक से न बनाये, शारीरिक सम्बन्ध बनाने से इनकार करे, पुरुष को स्त्री पर किसी तरह की शंका हो, यदि वह बहस करे तो उसकी (महिला की) की पिटाई की जा सकती है. इसके उलट पुरुष को यह सब करने की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और धार्मिक आज़ादी है. आखिर किसने बनाए हैं हमारे समाज के ये मानक? यह सवाल हम क्यों नहीं पूछते हैं कि हमारे धर्म में क्यों हमारा एक भी ईश्वर स्त्री योनी का नहीं है?

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इसी सर्वेक्षण से पता चलता है कि 31 प्रतिशत महिलायें भावनात्मक, शारीरिक और/या योनिक हिंसा का सामना करती है. जो समाज यह तर्क देता है कि कम उम्र में विवाह से समाज के नैतिक मानक सुद्रढ़ होते हैं, उसे यह अच्छे से पता है कि कुछ सन्दर्भों में विवाह से पुरुषों को स्त्रियों से हिंसा करने का सामाजिक अधिकार भी मिल जाता है. वर्ष 2016 में स्थिति में 100 में से 29 महिलायें पति के द्वारा शारीरिक या योनिक हिंसा की शिकार होती हैं.

बाल विवाह इस हिंसा का बड़ा कारण इसलिए भी हैं क्योंकि यह बच्चों को शिक्षा से वंचित कर देता है. सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि जिन महिलाओं ने बिलकुल भी स्कूली शिक्षा हासिल नहीं की है, उनमें से 38 प्रतिशत हिंसा की शिकार होती हैं; जबकि 12 साल या इससे ज्यादा की शिक्षा हासिल करने वाली महिलाओं में 12 प्रतिशत ने हिंसा का सामना किया. यानी हिंसा से मुक्ति के लिए शिक्षा एक अनिवार्यता है और बाल विवाह बच्चों से शिक्षित होने का हक़ छीन लेता है. आज जिन्हें हम अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी सौंपते हैं, उन्हें इस बात में कतई विश्वास नहीं है कि स्त्रियों को हिंसा से मुक्त गरिमामय जीवन का अधिकार मिलना चाहिए.

अध्ययन से पता चलता है कि महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा की 83 प्रतिशत घटनाओं में हिंसा करने वाला पात्र उनका पति होता है. सदियों से घर के भीतर भी एक युद्ध चल रहा है; स्त्रियों और बच्चों के खिलाफ; बच्चों के खिलाफ इसलिए क्योंकि पुरुष बच्चों को पितृसत्ता के मुताबिक़ व्यवहार करने के लिए हर पल प्रशिक्षित करता है. यह युद्ध पितृसत्ता में विश्वास रखने वाला पुरुष अपने आनंद और सत्ता के लिए छेड़ता है. नियम है कि इसमें सदैव विजय पुरुष की ही होगी. विषय केवल बाल विवाह के सम्रथन में दिए गए एक वक्तव्य तक ही सीमित नहीं है; इस वक्तव्य में छिपे सामाजिक चरित्र के वीभत्स रूप और राजनीतिक गैर-जवाबदेयता के तत्व को भी समझना जरूरी है!

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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