बिहार से पलायन को कभी तो गंभीरता से सोचना पड़ेगा
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बिहार से पलायन को कभी तो गंभीरता से सोचना पड़ेगा

बिहार पिछले कई सालों से कई विकसित राज्यों को पछाड़कर विकास दर के मामले में पहले स्थान पर बना हुआ है. लेकिन वास्तव में यह लोगों के जीवन को कितना बेहतर कर पा रहा है. अभी भी बिहार में विकास का मतलब बेहतर सड़कें, बिजली और कुछ हद तक अपराध पर नियंत्रण तक ही सीमित हैं. इससे आगे बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, औद्योगीकरण, नौकरियां और बेहतर कामकाजी माहौल के बारे में कोई चर्चा ही नहीं होती है.

बिहार से पलायन को कभी तो गंभीरता से सोचना पड़ेगा

"बिहार के लोग अपनी इच्छा से पलायन करते हैं, मजबूरी में नहीं" जब बिहार के मुख्यमंत्री और राज्य में 'विकास के प्रतीक' बन चुके नीतीश कुमार ने एक टीवी इंटरव्यू में जब ये वाक्य कहे तो उनके दिमाग में क्या चल रहा था? क्या वह मान चुके हैं कि मजबूरी में पलायन करने वाले लोगों की संख्या बहुत कम हो गई है? या वह परोक्ष तौर पर राज्य के विकास की अपनी सीमाओं को समझने लग गए हैं? दोनों ही पहलू विकास को लेकर बिहार की आकांक्षाओं को धाराशायी करने वाला है. राजनीतिक इच्छाशक्ति के जरिए अपराध पर नियंत्रण करने वाले नीतीश कुमार न सिर्फ बेहतर सड़क और बिजली मुहैया कराने वाले मुख्यमंत्री के तौर पर जाने जाते हैं, बल्कि उन्होंने बिहार को बेहतर जीवन जीने का सपना भी दिखाया.

सवाल उठता है कि नीतीश कुमार पलायन करने वाले लोगों के चेहरे के दर्द को महसूस क्यों नहीं कर पा रहे हैं? हाल के दिनों में नीतीश कुमार कई मौकों पर विजन के अभाव में दिखाई पड़े हैं. राजनीतिक भाषा में कहा जाए तो उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति और इकबाल अब कमजोर पड़ रहा है और यह यदा-कदा उनकी बातों में दिखाई पड़ने लगा है. ऐसे समय में जब कुल पलायन का 64 फीसदी परिवार भरण-पोषण के लिए होता है और महज 29 फीसदी परिवार बेहतर वेतन और अच्छे रोजगार के लिए पलायन करते हैं, तब यह कहना कि पलायन मजबूरी नहीं है, तब वह अपनी जिम्मेवारी से मुंह चुरा रहे हैं. कभी नीतीश कहते थे कि पूरे देश का बोझ उठाने वाले बिहारी अब स्वाभिमान के साथ इसी राज्य में जिएंगे. क्या सचमुच ऐसा हो सका? 

बिहार पिछले कई सालों से कई विकसित राज्यों को पछाड़कर विकास दर के मामले में पहले स्थान पर बना हुआ है. लेकिन वास्तव में यह लोगों के जीवन को कितना बेहतर कर पा रहा है. अभी भी बिहार में विकास का मतलब बेहतर सड़कें, बिजली और कुछ हद तक अपराध पर नियंत्रण तक ही सीमित हैं. इससे आगे बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, औद्योगीकरण, नौकरियां और बेहतर कामकाजी माहौल के बारे में कोई चर्चा ही नहीं होती है.

राज्य में औद्योगिक विकास लगभग नगण्य ही हैं. पुराने उद्योग-धंधे दम तोड़ रहे हैं और झारखंड से अलग होने के बाद पिछले 20 वर्षों में इंडस्ट्री को आकर्षित करने में पिछली और विकास का दावा करने वाली मौजूदा सरकार पूरी तरह से विफल रही हैं. हालांकि, सीमेंट की एक-दो फैक्ट्रियां लगी हैं, लेकिन यह नाकाफी है. अभी देश के कुल उद्योग में बिहार की हिस्सेदारी 2 फीसदी से कम है, और कैपिटल के मामले में यह सिर्फ आधा फीसदी है, जबकि गुजरात जैसे राज्य की हिस्सेदारी 11 फीसदी से अधिक है. सरकार यह कह सकती है कि बिहार एक लैंड-लॉक्ड राज्य है और गुजरात सैकड़ों सालों से तटवर्ती राज्य होने का फायदा उठा रहा है. तब यह भी देखना होगा कि बिहार की आबादी का 21 फीसदी हिस्सा श्रमिक आबादी है. यह आबादी हमारे के लिए पूंजी का काम कर सकती है. अफसोस इस पूंजी का लाभ बिहार नहीं ले पा रहा है. 

लैंड लॉक्ड और पिछड़ा राज्य होने की वजह से बिहार को विशेष दर्जा दिलाने की राजनीतिक मांग हर चुनाव में होती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में करीब एक लाख करोड़ रुपये का विशेष पैकेज देने के लिए बोली लगाई थी. 2014 से 2016 के बीच नीतीश कुमार भी विशेष राज्य के दर्जे को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे. 2015 में मिले जनादेश के उलट अब नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार, दोनों ही केंद्र और राज्य सरकार में साथ हैं. लेकिन इसका फायदा बिहार को उस तरह से नहीं मिल रहा है, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. विशेष राज्य का दर्जा मिलने से स्थितियां शायद अलग होतीं.

बहरहाल, इस लैंड लॉक्ड राज्य के पास कच्चा माल के तौर पर कृषि उत्पाद ही हैं. हम कृषि आधारित इंडस्ट्री को भी अपनी ओर आकर्षित करने में असफल रहे हैं. देश की कुल आबादी का 69 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है, लकिन बिहार में यह 90 फीसदी है. सरकार भले ही कृषि में तरक्की का दावा करे, लेकिन सच्चाई यही है कि खेती-किसानी अब घाटे का सौदा बन चुका है. राज्य सरकार अभी तक पूरे राज्य में समुचित सिंचाई की व्यवस्था नहीं कर पाई है. हालांकि, कागजों पर 30,000 करोड़ रुपये से अधिक की सिंचाई योजनाओं के बहुत दावे होते हैं, लकिन धरातल पर यह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है. सिंचाई के मामले में पंजाब, मध्य प्रदेष, कर्नाटक और महाराष्ट्र बहुत आगे है. पर दुर्भाग्य से यहां बाढ़ और सुखाड़ राज्य के किसानों का अभिन्न अंग हो गया है. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक बिहार के श्रमिक अपना पेट पालने को मजबूर हैं. निश्चित तौर पर नीतीश कुमार स्वांत सुखाय वाली स्थिति में जी रहे हैं. 

पलायन का एक और पहलू है, वह है शिक्षा का क्षेत्र. तमाम दावों के बावजूद इस राज्य में प्राथमिक स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा, आईटी, इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा तक खस्ताहाल में हैं. बिहार में एक यूनिवर्सिटी (बीआरए बिहार यूनिवर्सिटी, मुजफ्फपुर) ऐसा भी जिसने 2017 में किसी भी सत्र की परीक्षा नहीं ली. पटना यूनिवर्सिटी को छोड़कर किसी भी यूनिवर्सिटी में सत्र रेगुलर नहीं है. नतीजतन इस राज्य के लाखों छात्र हर साल हजारों करोड़ रुपये दूसरे राज्यों में अपनी शिक्षा पर खर्च करने को मजबूर हैं. पिछले 30 साल के इतिहास में पहली बार शिक्षा को अपने आंदोलन का एजेंडा बनाने वाले रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा कई मंचों पर कह चुके हैं, एक व्यक्ति के पास देने के लिए 15 साल बहुत होता है. शायद नीतीश कुमार अपने वक्तव्यों से कुशवाहा के कहे शब्दों को स्वीकार कर रहे हैं.

(लेखक राहुल कुमार पत्रकारिता का स्थापित करियर छोड़ने के बाद बिहार में शिक्षा क्षेत्र में काम कर रहे हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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