नई दिल्लीः महाभारत काल की एक कथा है. द्वापरयुग में एक महान ऋषि थे आयोदधौम. ऋषि को ब्रह्मज्ञान था और वह योग्य शिष्यों को इसका ज्ञान जरूर दिया करते थे. पांचाल देश का आरुणि भी उनका शिष्य था.
गुरु का परम शिष्य
आरुणि गुरु का परम आज्ञाकारी शिष्य था. गुरु की आज्ञा-पालन के अतिरिक्त उसकी प्राथमिकता में और कुछ नहीं था. वर्षा काल समाप्ति की ओर था और शरद ऋतु आने ही वाली थी. उस दिन दोपहर बाद ही बादल घिरने लगा. वर्षा का अनुमान करते हुए ऋषि ने आरुणि को आश्रम के एक खेत की मेड़ बाँधने के लिए भेजा.
खेत पर मेड़ बांधने गया आरुणि
गुरु की आज्ञा से आरुणि खेत पर गया और प्रयत्न करते-करते हार गया तो भी उससे बांध न बंधा. वह वर्षा अपना तेज होती जा रही थी और आरुणि अपने हर प्रयास में विफल होता जा रहा था.
अंत में जब वह हर प्रयास करके हार गया तो टूटी हुई मेड़ वाली जगह वह खुद ही मिट्टी में धंसकर लेट गया. इससे पानी का बहना तो बंद हो गया, लेकिन आरुणि के प्राण संकट में पड़ गए.
शिष्य ने लिया साहसिक निर्णय
कुछ समय बाद ठंड की वजह से आरुणि अचेत हो गया. पूरी रात बीत गयी लेकिन आरुणि नहीं लौटा. महर्षि आयोदधौम्य को आरुणि की चिंता हुई. पूरी रात उन्होंने टहलते हुए गुजारी . सुबह होने पर उन्होंने अपने शिष्यों से पूछा कि, ‘आरुणि नहीं आया ?’ शिष्यों ने कहा, ‘आपने ही तो उसे खेत की मेड़ बांधने के लिये भेजा था.’यह सुनकर आचार्य शिष्यों के साथ वहीं पहुंचे.
गुरु ने दिया वरदान
खेतों में खोजते हुए मेड़ के पास पहुंचे तो ठंड में अकड़े और मूर्छित आरुणि को पाया. वह उसे ले आए और उसका उपचार किया. सामने सकुशल आरुणि को देखकर महर्षि आयोदधौम्य की आँखों में आंसू थे.
आचार्य ने कहा, ‘बेटा ! तुम मेड़ के बाँध को उद्दलन (तोड़-ताड़) करके आए हो और गुरु आदेश के लिए जीवन की भी परवाह नहीं की. इसलिये तुम्हारा नाम ‘उद्दालक’ होगा.’ उन्होंने वरदान दिया कि सारे वेद और धर्मशास्त्र तुम्हें स्वतः ज्ञात हो जाएंगे.’ गुरुकृपा से महर्षि उद्दालक भी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि बने और संसार में विख्यात हो गए.
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