नई दिल्लीः पूरे देश में इस समय मकर संक्रांति की धूम है. हर प्रदेश में अपनी परंपरा के अनुसार सूर्य की आराधना की जा रही है और नवचेतना का पर्व को मनाने की तैयारी है. राज्यों की श्रृंखला में जब केरल का नाम लेते हैं तब एक बार फिर केरल का सबरीमला मंदिर और भगवान अयप्पन जेहन में आ जाते हैं.
पिछले कुछ सालों में केरल के इस प्रसिद्ध मंदिर का नाम सुप्रीम कोर्ट के साथ सनाई देता रहा. लेकिन आज इस मंदिर की बात इसके आध्यात्मिक महत्व के कारण है. मंदिर के साथ मकर संक्रांति की परंपराएं जुड़ी हुई हैं. भगवान अयप्पन के भक्त उनके दर्शन की ओर बढ़ रहे हैं. उनके शरीर पर काले-नीले वस्त्र हैं, हाथ में एक गठरी है. मन में एक ही नाम है, भगवान अयप्पन.
शैव और वैष्णव संप्रदायों को जोड़ने वाले अयप्पन
कहा जाता है कि भगवना अयप्पन प्राचीन काल में आस्था के दो धुरों शैव और वैष्णव के बीच मतभेदों को खत्म करने वाले हुए. शैव शिव के उपासक थे और वैष्णव विष्णु भगवान के. पूजा-पद्धतियों और मान्यताएं आस्था पर ऐसी हावी हुईं कि समय के चक्र में उलझी दोनों ही धाराएं एक होते हुए भी खुद को भिन्न मानने लगीं.
जरूरत थी किसी ऐसे प्राकट्य की जो इन मतों के मतभेद को दूर कर सके. भगवान अयप्पा यही कड़ी बनकर आए. दरअसल उनका जन्म महादेव शिव और विष्णु के मोहिनी अवतार के प्रेम से हुआ था. इसलिए उनकी मान्यता दोनों ही ओर थी. इस तरह शैव और वैष्णव दोनों ही मत एक बार फिर से एक हुए.
यहां है मंदिर, ऐसे करते हैं दर्शन
केरल के पठनामथिट्टा में बना सबरीमाला मंदिर तकरीबन 800 साल पुराना है. भगवान अयप्पा को समर्पित यह मंदिर दक्षिण भारत का प्रसिद्ध तीर्थ है. भगवान अयप्पा को हरिहरन नाम से भी जाना जाता है. इसके अलावा इन्हें अयप्पन या मणिकांत प्रभु भी कहते हैं. इस मंदिर में दर्शन का विधान काफी कठिन है. यहां जाने के लिए श्रद्धालु को हर तरह से शुद्ध होना होता है. इस शुद्धिकरण के लिए 41 दिन पहले से तैयारी करनी होती है. 41 दिनों का यह पूरा विधान मंडलव्रतम कहलाता है.
इसमें श्रद्धालुओं को प्रतिदिन दो बार नहाना होता है, यौन संपर्क से बचना होता है, तामसी भोजन (मांस-मछली) नहीं करना होता है. बाल-दाढ़ी-नाखून नहीं कटाने होते, अपशब्द नहीं बोलने होते हैं, काले-नीले कपड़े पहनने होते हैं, किसी समारोह शादी आदि में नहीं जा सकते है. मंदिर जाते समय सिर पर एक गठरी होनी अनिवार्य है, जिसमें गुड़, नारियल व चावल आदि होते हैं. इस गठरी को पल्लिकेट्ट कहते हैं.
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18 पावन सीढ़ियां जो अलग अर्थ को परिभाषित करती हैं
केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 175 किलोमीटर दूर की पहाड़ियों पर स्थित हैं भगवान अयप्पा. मंदिर तक जाने के लिए 18 सीढ़ियां हैं जो अलग-अलग अर्थ भी रखते हैं. यह सीढ़ियां पांच इंन्द्रियों और मानव की भावनाओं, त्रिगुण और ज्ञान-अज्ञान का प्रतीक हैं.
यहां के प्रमुख उत्सव हैं मंडलम और विलक्कू. इन दोनों का अपना-अपना महत्व है. कहते हैं कि पंडालम के राजा राजशेखर ने अय्यप्पा को पुत्र के रूप में गोद लिया. लेकिन भगवान अय्यप्पा ने महल का त्याग कर दिया था.
मकर संक्रांति से ऐसे है जुड़ाव
कहते हैं कि जिस पहाड़ी की कांतामाला चोटी पर भगवान अयप्पा का मंदिर है, उसके आसपास और असाधारण चमक वाली ज्योति दिखलाई देती है. यह मकर संक्रांति का दिन ही होता है. इसी ज्योति के दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते हैं. हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर पंडालम राजमहल से अय्यप्पा के आभूषणों को संदूकों में रखकर एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. जो नब्बे किलोमीटर की यात्रा तय करके तीन दिन में सबरीमाला पहुंचती है. इसे ही मकर विलक्कू कहा जाता है.
यहां दिव्य रौशनी में ही भगवान के दर्शन होते हैं. संक्राममं पर्व को यहां धूमधाम से मनाते हैं.
सबरीमाला में साल के हर मौसम में आना संभव नहीं क्योंकि यहां आने का एक खास मौसम और समय होता है. जो लोग यहां तीर्थयात्रा के उद्देश्य से आते हैं उन्हें 41 दिनों का कठिन वृहताम का पालन करना होता है, जिसके तहत उन्हें सुबह शाम की कठिन प्रार्थना से होकर गुजरना पड़ता है. सरनामविली और भगवान अय्यप्पा की शरण में मस्तक झुकाना पूजा का मुख्य हिस्सा है.
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