US Senate: यह तस्वीर बताती है कि अमेरिका से बर्बर युग कभी गया ही नहीं

7 जनवरी की सुबह इस तस्वीर पर नजर पड़ती है तो अपने आप ही वह बर्बर इतिहास आंखों में शक्ल बना लेता है. जहां बच्चों के पांवों में जंजीरे पड़ी हैं और उन्हें बेचा जा रहा है. अश्वेत लोगों को जानवरों से भी बदतर जिंदगी नसीब हो रही है. उनके बहते खून का मोल नहीं है.  

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Jan 7, 2021, 10:50 AM IST
  • अलबामा के मॉन्टगोमेरी में ‘द नेशनल मेमोरियल फॉर पीस एंड जस्टिस’ स्मारक का 2018 में हुआ था उद्घाटन
  • महाशक्ति कहलाने वाला अमेरिका अपने अश्वेत उत्पीड़न के इतिहास को कबूल करने से बचता रहा है
US Senate: यह तस्वीर बताती है कि अमेरिका से बर्बर युग कभी गया ही नहीं

नई दिल्लीः  इस तस्वीर को गौर से देखिए. सिर पर बड़े-बड़े सींग वाला मुकुट, उत्तेजना में चिल्लाती हुई मुखाकृति और बंद हो रही आंखों में सिर्फ उन्माद. 7 जनवरी की सुबह जब धरती के विषुवत रेखा के ऊपरी वासी लोग( खासकर भारतीय) सर्द मौसम की मीठी नींद ले रहे थे. जब वे रजाई में दुबके हुए थे.

ठीक इसी दौरान धरती के दूसरे छोर पर बसे महाद्वीप पर विध्वंस और हिंसा का इतिहास लिखा जा रहा था. यह स्थान था अमेरिका की संसद यानी US Senate जहां नवनिर्वाचित राष्ट्रपति Joe Biden की चुनावी प्रक्रिया द्वारा जीत दर्ज करने की औपचारिक घोषणा होनी थी.  अचानक ही Senate में एक उन्मादी भीड़ घुस आई. वह तोड़फोड़ करने लगी. सब उथल-पुथल कर दिया और जोर से चीखने लगे कि हमारा राष्ट्रपति ट्रंप है. 

इस तस्वीर में बर्बर युग की झलक
यह तस्वीर इसी चीख और उन्माद के दौरान की है. अमेरिका और पूरी दुनिया इस घटना को हिंसक बताते हुए राजद्रोह करार दे रही हैं, लेकिन यह तस्वीर अपने आप में इस बात की चुगली कर रही है कि अमेरिका से इतिहास का वह बर्बर युग कभी गया ही नहीं है. वह अभी भी मौजूद है, कहीं किन्हीं लोगो में.

यह बाकी है उन लोगों के रूप में जो केवल व्यक्ति विशेष का समर्थन करते हैं, लोकतंत्र का नहीं. यह तस्वीर बताती है कि कई सौ सालों का, खून से सना हुआ बर्बर युग का इतिहास कभी भी वापसी कर सकता है और वर्तमान बन सकता है. यह तस्वीर उसकी एक मात्र झलक है. 

अमेरिका का अश्वेत स्मारक
अमेरिका के इस बर्बर इतिहास को और करीब से समझना है तो दो साल पहले के समय में चलते हैं.  यह April 2018 का समय है, जब अलबामा के मॉन्टगोमेरी में ‘द नेशनल मेमोरियल फॉर पीस एंड जस्टिस’ नाम के स्मारक का उद्घाटन हो रहा है. यह देश में अश्वेत उत्पीड़न और नस्लीय हिंसा के शिकार हज़ारों अश्वेत पीड़ितों की याद में बना पहला स्मारक है. 

यह स्मारक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि महाशक्ति कहलाने वाला अमेरिका कभी इतना साहस नहीं दिखा सका था कि वह अपने अश्वेत उत्पीड़न वाले इतिहास को कबूल करे. यह प्रवृत्ति बताती है कि आप बदले नहीं हैं, बस मौके की नजाकत को देखकर थोड़ी देर के लिए शांत हो गए हैं. आप हवा का रुख देख रहे हैं. इस फिराक में हैं कि जब भी मौका मिले तब आप अपने अंदर आराम फरमा रहे उस दानव को जगाएं जो कि मानवता के लिए केवल शाप है. 

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अमेरिका ने कभी स्पष्ट स्वीकार नहीं की अपनी ऐतिहासिक खामियां
दुनिया के कई देशों ने अपने यहां बीते शर्मनाक इतिहास को स्वीकार किया है और कहा है कि वह शर्मिंदा हैं कि उनके यहां ऐसा रहा था. उन्होंने अपने यहां कि स्थिति को बदला और सुदृढ़ लोकतंत्र की कोशिश में आगे की ओर बढ़े. दक्षिण अफ्रीका ने रंगभेद को कुबूला. जर्मनी ने होलोकॉस्ट का स्मारक बनवाया.

कनाडा ने भी शोषण से पीड़ित अपने मूलनिवासियों से अपील की थी कि वे माफ कर दें. बजाय अमेरिका के इन देशों को लोकतंत्र कि विरासत को जिंदा रखने का गौरव देना चाहिए. लेकिन इसके बावजूद अमेरिका एक तरफ खुद को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है और आए दिन इसके मूल्यों को रौंद डालता है. अमेरिका ने सदियों से अश्वेतों के खिलाफ हुई हिंसा को अब तक कभी स्पष्ट और सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं किया. 

लोकतंत्र का देश कहलाने वाले अमेरिका में इतनी घृणा
पिथले चार सालों के दौर को ही देख लें. Trump प्रशासन के दौरान इस तरह की गतिविधियों को लगातार बढ़ावा मिला है. बीते ही साल जब चुनावों की गहमा-गहमी जोरों पर थी, मिनीयापॉलिस शहर में एक श्वेत पुलिस अधिकारी के बर्ताव से 46 वर्षीय एक काले अफ्रीकी व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की मौत हो गई थी.

इसके बाद 25 मई को अनेक शहरों में विरोध प्रदर्शन भड़क उठे थे. सड़कों पर लोग I can't Breathe कहते हुए रेंग रहे थे. दरअसल अमेरिका में काले समुदाय वाले लोग  अमेरिका की समृद्धि में हिस्सेदारी नहीं रखते हैं. उन्हें गोरों के मुकाबले कम पैसे मिलते हैं.

उनके बच्चे सिर्फ इसलिए निम्न स्तरीय स्कूलों में पढ़ते हैं क्योकि वे काले हैं.  जेल जाना, लंबी सजाएं वह भी बिना गुनाह,  ये उनकी जिंदगी में शामिल रहा. यह सब तब है जब इसी देश ने एक बार पहले अश्वेत शख्सियत को ही अपना राष्ट्रपति चुना था. लेकिन दुर्भाग्य है कि अब भी बदला बहुत कुछ नहीं हैं. 

तस्वीर में बर्बरता की वापसी?
इसलिए जब 7 जनवरी की सुबह इस तस्वीर पर नजर पड़ती है तो अपने आप ही वह बर्बर इतिहास आंखों में शक्ल बना लेता है. जहां बच्चों के पांवों में जंजीरे पड़ी हैं और उन्हें बेचा जा रहा है. अश्वेत लोगों को जानवरों से भी बदतर जिंदगी नसीब हो रही है. उनके बहते खून का मोल नहीं है. 

तस्वीर आगाह कर रही है, जानवर जाग गया है. इसे रोक लो. यह संसद की ओर दौड़ रहा है ताकि लोकतंत्र को कुचल सके. क्या आप ऐसा करने देंगें? 

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