बिमल कुमार
चारधाम की यात्रा पर पुण्य कमाने गए हजारों जिंदगियों ने कभी इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी कि उन्हें इस तरह की भीषण दैवीय आपदा का सामना करना पड़ेगा। कुछ ऐसा अप्रत्याशित घटा कि इस देवभूमि में आए जल प्रलय में हजारों लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी। यह त्रासदी ऐसी है जो कई सबक और संदेश दे गई। मानव और मानवता के कल्याण के लिए ऐसी गंभीर पहल करनी होगी, जिससे इस तरह की आपदा की घड़ी में जान-माल और संपत्ति का कम से कम नुकसान हो। इस बात में कोई संशय नहीं रहा कि इस त्रासदी के समय में ‘महाचूक’ हुई, जिसके लिए शासनिक व प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह जिम्मेवार है। हालांकि, सिर्फ उनकी जवाबदेही तय कर देने भर से जिंदगियां वापस लौट नहीं जाएंगी। पर इतना जरूर है कि ऐसे सभी जरूरी कदम उठाए जाएं जिससे भविष्य में इस तरह ‘जिंदगी’ के लिए संघर्ष न करना पड़े।
भूस्खलन और बाढ़ पहले भी पहाड़ों पर आते रहे हैं। बादल फटने की घटना आए दिन होती रहती है। भारी बारिश हिमालयी क्षेत्र में मौसम का सामान्य हिस्सा है। ये सब पहाड़ की प्रकृति में निरंतर चलने वाली प्रकिया है। फर्क केवल इतना रहा कि इस बार ये तबाही में बदल गई, मगर इसके पीछे कई प्रमुख कारण हैं। दुर्भाग्य यह है कि अब तक की सभी सरकारों ने पहाड़ और इसकी प्रकृति को समझने की कोशिश तक नहीं की और न ही कभी इस दिशा में गंभीरता से विचार ही किया। यहां जिंदगी को राम भरोसे छोड़ने की आदत भलीभांति डाल ली। जिसका भयावह दुष्परिणाम आज सबके सामने है। पहाडों के सीने पर विकास रूपी धारा में इसके मूल की अब तक घोर अनदेखी का क्रम जारी है।
नदियों की धारा को बांधने का दुस्साहस और जगह-जगह डैम बनाकर बिजली उत्पादन व सिंचाई समेत अन्य कार्यों में उपयोग लाने के लिए विध्वंसकारी विकास की जो पटकथा लिखी जा रही है, क्या वह सचमुच में विकास है या विनाश है? नदियों की धारा को बांधने का दुस्साहस ही है कि केदारघाटी समेत उत्राखंड के अधिकांश हिस्से में आज तबाही का मंजर पसरा है। उत्तराखंड में हुआ जल प्रलय मूलरूप से प्रकृति के प्रकोप का ही नतीजा है। इस हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ों का गिरना व भारी बारिश अथवा बादल फटने की घटना स्वाभाविक है। वैसे भी हिमालय के नवनिर्मित पहाड़ भूस्खलन के दृष्टिकोण से खासे संवेदनशील माने जाते हैं। घाटियों में बहने वाली नदी अपना रास्ता बदलते रहती है। इसके लिए कोई क्षेत्र सीमा या समय सीमा तय नहीं का जा सकती हैं।
यदि हम केदारनाथ की बात करें तो वहां मंदाकिनी की कभी दो धाराएं थी, हालांकि वह पूर्वी ओर की धारा में बह रही थी। बीते कुछ सालों में लोगों ने इसके दूसरी ओर की जगह पर अपने मकान आदि बना लिए थे। पानी की धारा जब दोनों दिशाओं से बहने लगी तो इसकी चपेट में वहां सबकुछ आ गया।
मौत और बड़े पैमाने पर हुए विनाश ने सभी झकझोर कर रख दिया। हजारों लोगों की अकाल मौत का कारण बनने वाली आपदा का कारण सिर्फ बादल फटना नहीं रहा। इसके पीछे भारी वर्षा बड़ी कारण रही। इस आपदा में भूस्खलन को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। मूसलाधार बारिश के चलते केदारनाथ के ऊपर गांधी सरोवर में पानी लबालब भर गया। पानी के दबाव के चलते सरोवर का एक हिस्सा फट गया। तीन दिशाओं से पानी की तेज धारा में मलबा और पत्थर भी बहकर आए। जो नीचे के क्षेत्रों में जाकर विनाश को और बढ़ाता चला गया। अचानक आई बाढ़ में कई गांव और छोटे शहर बह गए। पूरी की पूरी सड़क समाप्त हो गई। व्यापक स्तर पर बिजली की लाइनें छिन्न-भिन्न हो गईं। तीर्थस्थलों पर भी काफी बुरा असर हुआ है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि नदियां अपना पथ बदलते रहती है। नदी के फ्लड क्षेत्र में बसावट पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए, जबकि बीते कुछ सालों में इन क्षेत्रों में बसावट ज्यादा हो गई है। जिक्र योग्य है कि पहाड़ों में गांव की बसावट हमेशा ठोस व ऊपरी हिस्से में की जाती रही है। विकास की मौजूदा अंधी दौड़ में हमने नदी के रास्तों को भी नहीं बख्शा है। ऐसे में नदी आज विकराल रूप धारण करती है तो इसमें नदी का क्या कसूर है। यदि आपदा के कुछ क्षेत्रों में नजर डालें तो ज्यादातर नुकसान उन क्षेत्रों में ही हुआ है, जहां लोगों ने फ्लड एरिया में अपने ठिकाने बना लिए थे। ऐसे में यह जिम्मेवारी सरकार व प्रशासन की है वह इन क्षेत्रों में लोगों की बसावट पर पूरी तरह रोक लगाए। साथ ही तमाम तरह के आधुनिक विकास भी इसके लिए दोषी हैं, जो पहाड़ों में पर्यावरण के प्रतिकूल हैं।
वैसे भी विकास पर्यावरण के अनुकूल हो तो उत्तराखंड की तरह की भीषण मानवीय त्रासदी को टाला जा सकता है। पहाड़ों में पेड़ों को काटने की बजाय पौधरोपण को जमकर बढ़ावा देना चाहिए। नदियों के किनारे से कम से कम 100 मीटर की दूरी पर मकान बनाए जाने चाहिए। चारधाम जैसे तीर्थयात्रा पर जा रहे लोगों के लिए पूरा नियमन तैयार किया जाना चाहिए। यदि पहाड़ों में बारिश और बाढ़ के असर को कम नहीं किया जाता है तो फिर हमारे पास करने के लिए बिल्कुल सीमित विकल्प है। अधिक से अधिक हरियाली को बढ़ावा देना आज पहाड़ों की जरूरत है।
पर्यावरण अनुकूल विकास से प्राकृतिक त्रासदी टाली जा सकती है। पहाड़ों पर सड़क बनाते वक्त भी सावधानी बरती जानी चाहिए। पहाड़ के किनारे को काट कर सड़क बनाने से उसकी ढलान कमजोर हो जाती है। यदि उसकी बनावट का ध्यान नहीं रखा जाए, तो भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। पहाड़ों की बनावट के साथ छेड़छाड़ करने पर छोटे-बड़े भूस्खलन होते हैं। इस तरह के नियम बनाने चाहिए जिसमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि मकान नदियों के किनारे से 100 मीटर दूर स्थित होने चाहिए। इस त्रासदी पर नजर डालें तो केदारनाथ सहित उत्तराखंड में नदियों के किनारे बने सैकड़ों मकान बाढ़ में ढह गए। इससे सरकारी तंत्र को सबक लेने की जरूरत है।
इसके अलावा, तीर्थ यात्रा को भी नियमित करने के लिए दिशानिर्देश की जरूरत है। कुछ साल पहले गंगोत्री-गौमुख में हिमनद के पिघलने को लेकर चिंता जताई जा रही थी। उसके बाद सरकार ने तीर्थयात्रियों की संख्या को सीमित किया था। यदि यह वहां हो सकता है, तो अन्य तीर्थस्थलों पर क्यों नहीं हो सकता है। इस घटना से स्पष्ट है कि सरकार को कहीं न कहीं हर जरूरी पहलू पर विचार कर इससे संतुलन स्थापित करना होगा।
एक फौरी अनुमान के तौर पर राज्य को सामान्य स्थिति में लौटने में अभी तीन साल लगेंगे। आपदाओं से निपटने के लिए सभी कारगर कदम उठाने में अब यदि चूक हुई तो निश्चित तौर पर इसके और गंभीर परिणाम भविष्य में सामने आएंगे। इसलिए जरूरी है कि सभी जरूरी एजेंसियों को मिलाकर एक ऐसा एकीकृत सिस्टम बनाया जाए तो पहाड़ों में विकास को पर्यावरण हितैषी बनाए। प्राकृतिक आपदाओं को तभी कम किया जा सकता है जब पहाड़ी क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर गंभीरता से गौर किया जाएगा।