...तो देवभूमि में नहीं आता जल प्रलय

इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने का साहस मानव ने जुटाया, दैवीय आपदा के रूप में उसे तबाही का सामना करना पड़ा। कुछ इसी तरह के मानवीय साहस का दुष्परिणाम देवभूमि के नाम से मशहूर उत्तराखंड के केदारनाथ धाम समेत कई इलाकों में 16 जून की शाम को आए जल प्रलय के रूप में पूरी दुनिया ने देखा।

प्रवीण कुमार
इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने का साहस मानव ने जुटाया, दैवीय आपदा के रूप में उसे तबाही का सामना करना पड़ा। कुछ इसी तरह के मानवीय साहस का परिणाम देवभूमि के नाम से मशहूर उत्तराखंड के केदारनाथ धाम समेत कई इलाकों में 16 जून की शाम को आए जल प्रलय के रूप में पूरी दुनिया ने देखा।
स्कंद-पुराण के अनुसार, जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय, भक्तों में नारद, गायों में कामधेनु और सभी पुरियों में कैलाश श्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है। और उस दिव्यधाम का परिसर लाशों से पट गया हो, गौरीकुंड व केदारनाथ के बीच यात्रा के प्रमुख पड़ाव रामबाड़ा का नामोनिशान मिट गया हो, शंकराचार्य का समाधि स्थल तक मलबे में दब गया हो तो फिर इसे ईश्वरीय सत्ता को चुनौती का दुष्परिणाम न कहें तो फिर क्या कहें।
किसी ने सच ही कहा है कि ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देना खुद के अस्तित्व को मिटाने जैसा है। स्थानीय लोगों का कहना है कि श्रीनगर में गंगा की धारा के बीच स्थापित धारी देवी की मूर्ति हटाए जाने से जल प्रलय आया। प्रकृति की हर गतिविधियों को विज्ञान के नजरिये से देखने वाले लोग भले ही इसे अंधविश्वास मान रहे हों, लेकिन भक्तों और संतों का तर्क मानें तो 16 जून को धारी देवी की मूर्ति को हटाया गया था और इसी वजह से जल प्रलय ने देवभूमि में तबाही मचाई। यह निश्चित रूप से धारी देवी का ही प्रकोप है। आस्थावान लोगों का यह भी मानना है कि अगर धारी देवी की मूर्ति को उनकी जगह से नहीं हटाया जाता तो जल प्रलय नहीं आता। इससे पूर्व 1882 में भी एक राजा ने मंदिर की छत को जब अपने तरीके से बनाने करने की कोशिश की थी तो उस समय भी इसी प्रकार की विनाशलीला देखी गई थी।
भाजपा नेता उमा भारती समेत साधु-संतों की बड़ी जमात और स्थानीय लोग हमेशा से धारी देवी की मूर्ति को स्थापित जगह से एक इंच भी इधर-उधर करने के खिलाफ थे। इस संबंध में पिछले वर्ष 7 जुलाई को वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी और उमा भारती ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी। यहां तक कि पिछले महीने 16 मई को लालकृष्ण आडवाणी के साथ जाकर उमा भारती ने राष्ट्रपति से भी धारी देवी को बचाने की गुहार लगाई थी। तो फिर धारी देवी की मूर्ति को स्थापित जगह से क्यों हटाया गया? इसपर चर्चा करने से पहले हमें यहां धारी देवी की महिमा को जानना जरूरी होगा।

दरअसल धारी देवी इस पूरे इलाके की कुलदेवी हैं जिन्हें गांव के लोग सदियों से पूजते आ रहे हैं। यह मंदिर श्रीनगर से 10 किलोमीटर दूर पौड़ी गांव में स्थित है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि पिछले 800 सालों से धारी देवी अलकनंदा नदी के बीच विराजमान होकर नदी की धारा को काबू में रखती आ रही हैं। मान्यता के अनुसार धारी देवी ही उत्तराखंड में चारों धाम की रक्षा करती हैं। इस देवी को पहाड़ों और तीर्थयात्रियों की रक्षक देवी भी माना जाता है। बीते 16 जून को स्थानीय लोगों के विरोध और हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ धारी देवी की मूर्ति को मंदिर से हटाकर ऊपर सुरक्षित जगह पर ले जाया गया और फिर उसी रात केदारनाथ धाम में बादल फटा और सैलाब में सब कुछ तबाह हो गया। पौराणिक धारणा है कि एक बार भयंकर बाढ़ में पूरा मंदिर बह गया था लेकिन धारी देवी की मूर्ति एक चट्टान से सटी धारो गांव में बची रह गई थी। गांव वालों को धारी देवी की ईश्वरीय आवाज सुनाई दी थी कि उनकी मूर्ति को वहीं स्थापित किया जाए। यही वजह है कि धारी देवी की मूर्ति को उनके मंदिर से हटाए जाने का हमेशा से विरोध किया जा रहा था।
13 साल पहले उत्तराखंड के रूप में नया राज्य बना था। साल 2004 के बाद हालात तेजी से बिगड़े हैं, जब केंद्र सरकार सहित उत्तराखंड सरकार ने करीब 800 विद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी है, जिसमें धारी देवी मंदिर का स्थान भी शामिल है। बेतहाशा विस्फोटों से जर्जर हो चुके पहाड़ों की भीतरी जलधाराएं रिसने लगी हैं। इससे पेड़ों को मिलने वाली नमी कम हो गई है, जो घटती हरियाली की बड़ी वजह बनी है। उत्तराखंड को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है यहां की जल विद्युत परियोजनाओं ने। एक बांध के लिए पांच से 25 किमी. की लंबी सुरंगें पहाड़ों के भीतर बेतहाशा विस्फोटों के जरिए खोदी गईं हैं। ये टनल आकार में इतनी बड़ी हैं कि इनमें एक साथ तीन ट्रेनों को गुजारा जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त करीब 125 स्थानों पर कहीं न कहीं सुरंग खोदी जा रही हैं। 427 बांध बनने हैं। इनमें से 100 बांधों पर काम चल रहा है। सन् 60 के दशक में पहाड़ों पर दिन-रात का तापमान समान था लेकिन पिछले 10 वर्षों में रात के मुकाबले दिन का तापमान तेजी से बढ़ा है और ये बादल फटने की बड़ी वजह बन रहे हैं। हमारी पर्यावरण, जलनीति दोषपूर्ण है और आपदा प्रबंधन लचर है। आपदा को अधिक विनाशकारी बनाने में समाज एवं सरकार की गलतियों एवं लापरवाही की भी बड़ी भूमिका है। प्रकृति बदला लेती है।
बहरहाल, धर्म और प्रकृति के प्रति सजग और जागरूक लोगों का मानना है कि पहाड़ों से छेड़छाड़ और मां धारी देवी की दैवीय सत्ता को चुनौती देने से देवभूमि में जल प्रलय आया। आखिर ऐसा क्या संयोग था कि धारी देवी की मूर्ति को जैसे ही उनकी जगह से हटाया गया, अचानक एक ग्लेशियर फटा और उसी दौरान गौरीकुंड और रामबाड़ा के बीच एक बादल भी फट गया? फिर केदारनाथ के आसपास का सब कुछ तबाह हो गया सिर्फ केदारनाथ मंदिर को छोड़कर। ये अवधारणाएं आस्था पर आधारित हैं और इसपर भरोसा रखना उसी प्रकार तर्कसंगत है जिस प्रकार से एक वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति के लिए ‘न्यूटन के नियम’। ऐसे में, शासन व्यवस्था की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि ‘विकास’ और ‘आस्था’ के बीच एक संतुलन बनाकर रखा जाए। पुरातत्व महत्व की दृष्टि से भी देखा जाए तो इस धारी देवी की मूर्ति के साथ छेड़छाड़ करना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। देवभूमि (उत्तराखंड) के लोगों में माता धारी देवी के प्रति आस्था इतनी प्रबल है कि इतिहास में जब भी इस तबाही के कारणों का जिक्र होगा लोग पर्यावरण के साथ हो रहे खिलवाड़ से पहले ‘मूर्ति’ का हटाए जाने की बात ही कहेंगे।
हिमालय की तराई से गंगा के निकलने के स्थान गंगोत्री और यमुना नदी के उद्गम यमुनोत्री के मार्ग में हिंदुओं के प्रमुख तीर्थ स्थल पड़ते हैं। पुराणों में कहा गया है कि ब्रह्मपुत्र सहित यदि इन नदियों को रोकने का किसी भी प्रकार का प्रयास किया गया तो प्रलय तय है। वराह, भागवत आदि पुराणों में रेवाखंड नाम के अध्याय में बताया गया है कि नर्मदा पाताल की नदी है और इसे रोकने का मतलब देश के अधिकांश हिस्सों में भूकंपों को आमंत्रित करना होगा। बहुत मेहनत और तपस्या के बल पर हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इन नदियों को बनाया। लेकिन मानव विकास के ठेकेदारों ने सरकार से मिलकर बड़े-बड़े विद्युत परियोजनाओं को मंजूरी देकर और बांध बनाकर इन सभी नदियों के स्वाभाविक बहाव को रोक दिया है।

हवा, मिट्टी, जंगल, पानी और ऐतिहासिक तीर्थस्थल को लेकर सरकारें गंभीर नहीं हैं। जबकि इनका हिसाब-किताब रखा जाना बेहद जरूरी है। इनके बिना जीवन नहीं चल सकता है। इसके उलट इन्हीं के साथ इन दिनों छेड़छाड़ हो रही है। पहाड़ों पर नदियों को प्रकृति के रूप से नहीं बहने दिया जा रहा है। उन पर बांध बन रहे हैं या उनका गैरकानूनी तरीके से दोहन हो रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार पहाड़ों के अस्तित्व को समझे और इस तरह की नीतियां बनाए जिससे पहाड़ों का विनाश न हो। निश्चित रूप से इसके लिए नई राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए जिसे राज्य सरकारें सख्ती से लागू करें।

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