केजरीवाल का ‘स्वराज’

विश्वासमत की कसौटी पर खरे उतरने के बाद अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम भले ही सुकून की सांस ले रही हो लेकिन उनके लिए असली इम्तिहान की घड़ी अब शुरू हुई है। देश की राजनीति में जिस बदलाव की लड़ाई केजरीवाल साहब लड़ने निकले हैं, उसमें अब विधानसभा के भीतर की मर्यादाएं भी हैं और राजनीति के वही पुराने दांव पेंच भी।

अतुल सिन्हा
विश्वासमत की कसौटी पर खरे उतरने के बाद अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम भले ही सुकून की सांस ले रही हो लेकिन उनके लिए असली इम्तिहान की घड़ी अब शुरू हुई है। देश की राजनीति में जिस बदलाव की लड़ाई केजरीवाल साहब लड़ने निकले हैं, उसमें अब विधानसभा के भीतर की मर्यादाएं भी हैं और राजनीति के वही पुराने दांव पेंच भी। जिस भ्रष्टाचार और कांग्रेस विरोध के नाम पर वो सत्ता तक पहुंचे अब वो उसी कांग्रेस की सियासी बिसात पर चित्त होते दिखाई दे रहे हैं। उनकी भाषा, उनका लहज़ा और उनका अंदाज़ किसी परंपरागत नेता से अलग नहीं लग रहा है।
ज़रा अरविन्दर सिंह लवली के भाषण पर गौर करें और फिर केजरीवाल साहब के भाषण पर नज़र डालें तो तस्वीर काफी कुछ साफ नज़र आती है। लवली पांच साल तक साथ निभाने का दावा करते हैं तो केजरीवाल बाकी पार्टी के नेताओं की तरह ‘किसी भी भ्रष्ट नेता या अफ़सर को बख्शा नहीं जाएगा’ जैसे घिसे पिटे जुमले इस्तेमाल कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह, शीला दीक्षित या मुलायम सिंह बोलते रहे हैं। कोई अपराधी बख्शा नहीं जाएगा या महिलाओं के साथ गलत व्यवहार करने वालों को तीन महीने में सज़ा मिलेगी या सरकारी स्कूलों, अस्पतालों की हालत सुधारी जाएगी वगैरह वगैरह, हर वो बात जो किसी भी सरकार का मुखिया या पार्टी का नेता करता आया है।

केजरीवाल साहब ने उसे खूबसूरती के साथ अपने 17 सूत्री एजेंडे में सजा दिया है। इंदिरा गांधी ने भी 20 सूत्री कार्यक्रम बनाया था लेकिन उन सूत्रों में कोई भी सूत्र कारगर तरीके से लागू नहीं हो सका। योजनाएं बेशक उस आधार पर बनाई गईं लेकिन उनमें से ज़मीन पर कितनी उतरीं, सब जानते हैं। केजरीवाल ने बेशक बेहद चतुराई के साथ पानी और बिजली को लेकर अपनी घोषणाएं अफ़रा तफ़री में कर डाली हों, बार बार वो जानबूझ कर ये भी कहते रहे हों कि उन्हें विश्वास मत मिले या न मिले, सदन में उन्हें हरा दिया जाए लेकिन 3-4 दिनों के वक्त में वो कुछ बड़े फैसले लेकर दिल्ली की जनता को राहत तो दे ही सकते हैं।
उन्हें पता है कि दिल्ली की जनता की कमज़ोर नब्ज़ क्या है, उन्हें ये भी पता है कि कांग्रेस उनकी सरकार गिराकर अपनी फ़जीहत नहीं कराएगी और सबसे बड़ी बात कि कुछ ही महीनों बाद लोकसभा चुनाव हैं ऐसे में कुछ बड़े और लोकप्रिय फ़ैसले लेकर वो आम जनता का भरोसा तो जीत ही सकते हैं और राष्ट्रीय स्तर पर आम आदमी पार्टी को स्थापित भी कर सकते हैं।

केजरीवाल की सबसे बड़ी ताकत उनकी वाकपटुता है और वो आत्मविश्वास भी जो उन्हें इतनी जल्दी शिखर पर ले आया है। लेकिन कई बार यही अति आत्मविश्वास आपको रसातल में भी ले जाता है। आम आदमी की शक्ल में एक मंजे हुए सियासी खिलाड़ी की तरह केजरीवाल के सामने अब एक साथ कई चुनौतियां हैं। सबसे अहम तो यही कि कांग्रेस और बीजेपी के जिस विरोध की वो उपज हैं, उसे अब वो अपनी आम जनता के सामने कैसे साबित कर पाएंगे। जिस स्वराज की बात वो कर रहे हैं, क्या वह कांग्रेस के सहारे मुमकिन है? क्या अपने समर्थन के एवज़ में कांग्रेस उन तमाम भ्रष्टाचार के मामलों को सामने आने देगी या उन नेताओं, मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होने देगी जिसके लिए शीला सरकार को केजरीवाल लगातार कटघरे में खड़ा करते आए थे? जाहिर सी बात है कि कांग्रेस के मास्टर स्ट्रोक के आगे केजरीवाल घुटने टेकते नज़र आ रहे हैं। उनके नरम तेवर, दोस्ताना अंदाज़ और दूर तक साथ चलने के भरोसे ने कई सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं।
जिन 17 सूत्री कामकाज की बात केजरीवाल साहब ने की, उनमें से ऐसी कौन सी है जो बाकी सरकारें नहीं करती आई हैं। हर सरकार जनता को पानी और बिजली देने का वादा करती है, एक हद तक देती भी है। हां, वो सौ फ़ीसदी पुख्ता तौर पर ज़मीन पर नहीं आ पाते तो उनके पीछे कई स्तर पर फैला भ्रष्टाचार या सरकारी तंत्र का ढीला ढाला रवैया है। केजरीवाल साहब इसकी जड़ें दुरूस्त करें, कामकाज की पूरी संस्कृति बदलें तभी कामयाब होंगे। घोषणाएं तो पहले भी होती रही हैं, लेकिन उसके अर्थशास्त्र की बारीकियों और व्यावहारिक अड़चनों के चक्रव्यूह में उलझ कर कभी पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकी हैं। कौन सी ऐसी सरकार या पार्टी है जिसने सरकारी स्कूलों या अस्पतालों को दुरूस्त करने, बिल्डिंग बनवाने, पढ़ाई का स्तर सुधारने की बात नहीं की है। ऐसी तमाम योजनाओं के ढेर हैं, असंख्य एनजीओ को इसका ज़िम्मा सौंपा गया, पूरा का पूरा मंत्रालय और महकमा है, अरबों का बजट है, लेकिन हालत वैसी की वैसी, बल्कि और बदतर। केजरीवाल साहब विधानसभा में कहते हैं कि हममे से किसी के बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते, पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं (जाहिर सी बात है कि वो अपने बच्चे की बात भी कह रहे थे)। तो क्या वो सबसे पहले अपने घर से ये पहल शुरू करेंगे कि उनके घर के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ें?
जिस स्वराज की बात वो कर रहे हैं क्या वो दिल्ली में सरकार बनाने और लोकसभा में अपनी मज़बूत दखल बनाने के बाद आ जाएगा? और क्या आम आदमी कांग्रेस के साथ मिलकर उनकी इस परिकल्पना को मंज़ूर कर लेगा? क्या इससे आने वाले वक्त में बीजेपी को राजनीतिक फ़ायदा नहीं होगा ? एक नई क्रांति, एक नए सामाजिक बदलाव और व्यवस्था परिवर्तन का जो खूबसूरत सपना केजरीवाल साहब दिखा रहे हैं, क्या वो महज टोपी और मफ़लर पहनने से सच हो जाएगा?
(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स में एक्जिीक्‍यूटीव प्रोड्यूसर हैं।)

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