Chunavi Kissa: पश्चिमी यूपी का इटावा जिला मध्य प्रदेश की सीमा से लगा है. यहां पांच नदियों का संगम होता है और सियासत भी रंग बदलती रहती है. आज की पीढ़ी ने अखिलेश यादव और मायावती का गठबंधन तो देखा है लेकिन तीन दशक पहले अखिलेश यादव और कांशीराम ने एक बड़ा प्रयोग किया था.
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SP BSP Dalit OBC News: इटावा की हवा में ही कुछ जादू है. लहसुन के मंगोडे ही नहीं, यहां आपको आधा बिहारी और आधा राजस्थानी जायका भी मिल जाएगा. बाटी-चोखा भी लोग चाव से खाते हैं और राजनीतिक चर्चा दिन रात होती हैं. यहां यमुना का पानी आता है और चंबल का भी. वास्तव में सिंध, क्वारी और पहुज समेत कुल पांच नदियों का महासंगम होता है. मध्य प्रदेश के बॉर्डर पर बसा यूपी का यह जिला खुद में सियासी इतिहास समेटे हैं. यहां दलितों की अच्छी खासी आबादी है. इस चुनाव में ओबीसी की काफी चर्चा हुई है लेकिन तीन दशक पहले यहां दलित-ओबीसी का बड़ा प्रयोग हुआ था.
जी हां, एक दलित वोटर कहते हैं कि बसपा के संस्थापक कांशीराम कहते थे कि इन नदियों की तरह दलित अगर जुड़ जाएं तो उन्हें कोई नहीं हरा पाएगा. यहां मायावती की जाति जाटव समुदाय के भी लोग रहते हैं. TOI की रिपोर्ट के मुताबिक एक जाटव कहते हैं कि अब कांशीराम की विचारधारा को मानने वाले कम रह गए हैं. हमारा वोटिंग पैटर्न काफी बदल गया है. हम चुनाव को दिशा देने वाली भूमिका से दूर हो गए हैं.
चलिए 1991 के दौर में चलें
वो साल था 1991. राम मंदिर आंदोलन चल रहा था. हर तरफ जयश्री राम के नारे गूंज रहे थे. ऐसे में बसपा और सपा के बीच बेहद महत्वपूर्ण गठबंधन हो जाता है. समाजवादी जनता पार्टी के नेता और बाद में सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की मदद से कांशीराम इटावा से जीत गए. तब यह अनारक्षित सीट हुआ करती थी. भाजपा से राम सिंह वर्मा और जनता पार्टी से राम सिंह शाक्य हार गए थे. इसकी वजह सिर्फ एक थी, दलित और ओबीसी का मजबूत गठजोड़. इसी दोस्ती ने भगवा लहर को टिकने नहीं दिया और यूपी में एक नए समीकरण की शुरुआत हुई.
हवा में उड़ गए...
उसी दौर में यह नारा गूंजा- 'जुड़े मुलायम, कांशीराम, हवा में उड़ गए 'जय श्रीराम''. इटावा प्रयोग के बाद 1993 में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ. इसने भगवा लहर को पूरी ताकत से रोक दिया. हालांकि 1995 में एसपी-बीएसपी गठबंधन टूटा तो इसका परिणाम यह हुआ कि 1996 में सपा में गए शाक्य ने इटावा सीट जीत ली.
भाजपा को मिला मौका
तीन दशक बाद 2019 में इतिहास ने खुद को दोहराया और सपा-बसपा फिर एक साथ आए. अखिलेश यादव और मायावती एक मंच पर दिखे. हालांकि फायदा नहीं हुआ और धानुक समुदाय से आने वाले भाजपा उम्मीदवार और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष राम शंकर कठेरिया ने जीत दर्ज की.
गुम हो गई दलितों की वो 'ताकत'
स्थानीय लोगों का मानना है कि दलित वोटरों में दरारें बढ़ गई हैं. एक स्थानीय दलित वोटर कहते हैं कि हम सभी अब अपने-अपने तरीके से मतदान करते हैं, जिससे विभाजन होता है. अब हमारी वोट की कोई निर्णायक ताकत नहीं रही.
मुलायम भी उम्मीदवार
अब फिर से राजनीतिक उथल-पुथल के बीच कठेरिया मैदान में है. वह सीट को अपने पास रखना चाहेंगे. सपा ने 2020 में बसपा से छोड़कर आए जितेंद्र कुमार दोहरे को उतारा है. वह INDIA गठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार हैं. वहीं, बसपा ने 'इटावा की बेटी' सारिका सिंह बघेल को उम्मीदवार बनाया है. वह हाथरस से रालोद की सांसद रही हैं. यह जानकर आप शायद मुस्कुरा दें कि इटावा से मुलायम सिंह यादव भी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं.
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वोटर की बात करें तो दलित, यादव, लोध, ब्राह्मण और ठाकुर इटावा की सियासत को शिफ्ट करते रहे हैं. यहां कुछ गांव सपा के तो कुछ भाजपा के लिए वफादार दिखते हैं. समस्याएं भी हैं और नाराजगी भी. ऐसे में जनता का फैसला 4 जून को ही पता चल सकेगा.
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