DNA on Dr Bhimrao Ambedkar: सियासी दीवार में कैद हुए अंबेडकर के विचार
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DNA on Dr Bhimrao Ambedkar: सियासी दीवार में कैद हुए अंबेडकर के विचार

DNA on Dr Bhimrao Ambedkar: देश में 2 हजार 858 पार्टियां हैं, लेकिन किसी ने भी आप लोगों तक डॉक्टर भीम राव अंबेडकर के असली विचारों को नहीं आने दिया. आज हम उनके कुछ ऐसे विचारों के बारे में जानकारी देंगे जिन्हें सुनकर आप भी दंग रह जाएंगे. 

फोटो साभार: वीडियोग्रैब

DNA on Dr Bhimrao Ambedkar: आज हमारे देश में जिस चीज को सबसे ज्यादा खतरे में बताया जाता है, वो है भारत का संविधान और इसी संविधान की रचना करने वाले डॉक्टर भीम राव अंबेडकर की आज 131वीं जयंती है. वर्ष 1891 में आज ही के दिन डॉक्टर अंबेडकर का जन्म हुआ था. उन्हें भारत के संविधान का चीफ Architect भी कहा जाता हैं. हमारे देश में डॉक्टर अंबेडकर के नाम पर कई दशकों से राजनीति होती आई है. भारत में कुल मिला कर छोटी बड़ी 2 हजार 858 पार्टियां हैं, जिनमें से 212 पार्टियां ऐसी हैं, जो खुद को अंबेडकर के सिद्धांतों से प्रेरित बताती हैं. और इनके नेता अंबेडकर के नाम की ठेकादारी करके सत्ता हासिल करने की कोशिश करते हैं. लेकिन आज हम आपको ये बताएंगे कि इनमें से किसी ने भी आप लोगों तक उनके असली विचारों को नहीं आने दिया. आज हम डॉक्टर अंबेडकर के कुछ ऐसे विचार लेकर आए हैं, जिनको मानना तो दूर बल्कि भारत के लोगों ने ठीक उनके विपरीत काम किया है.

तोड़ी अंबेडकर की प्रतिमा

हालांकि आज ये बताते हुए हमें दुख हो रहा है कि आज जब पूरा देश डॉक्टर अंबेडकर को याद कर रहा है, तब देश की राजधानी दिल्ली के पास नोएडा के एक इलाके में अंबेडकर की प्रतिमा को तोड़ दिया गया. इस मामले में पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है और बताया जा रहा है कि ये घटना इस इलाके में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने की मंशा से की गई. यानी अंबेडकर ने जिस देश को एक धर्मनिरपेक्ष संविधान दिया, उसी देश में आज उनकी जयंती पर सांप्रदायिक तनाव फैलने की खबरें आ रही है.

नेताओं की मूर्तियों के खिलाफ थे अंबेडकर

असल में आजाद भारत को लेकर अंबेडकर के जितने भी विचार थे और वो जिस तरह के भारत का सपना देखते थे, उन विचारों का कभी पालन हुआ ही नहीं. अंबेडकर मानते थे कि कोई भी नेता, देश से बड़ा नहीं होता और इसीलिए किसी भी नेता की मूर्ति लगाकर उसकी पूजा करना इस देश के नागरिकों के लिए सही नहीं होगा. यानी अंबेडकर नेताओं की प्रतिमा लगा कर उन्हें स्मरण करने के खिलाफ थे. लेकिन भारत के नेताओं ने इसी देश में अंबेडकर की हजारों मूर्तियां बनवाईं और इनके नाम पर चुनावों में वोट मांगे. 

देश सबसे ज्यादा मूर्तियां आंबेडकर कीं!

कुछ मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक आज पूरे देश सबसे ज्यादा प्रतिमाएं अंबेडकर की ही हैं. ये स्थिति भी तब है, जब आज से लगभग 80 साल पहले 18 जनवरी 1943 को डॉक्टर अंबेडकर ने एक कार्यक्रम में कहा था कि वो मूर्तियों के उपासक नहीं हैं और वो उन्हें तोड़ने में विश्वास रखते हैं. इसी भाषण में वो ये भी बताते हैं कि उनके लिए ये कहा जाता है कि वो महात्मा गांधी और मोहम्मद अली जिन्नाह से नफरत करते हैं. जबकि ऐसा नहीं है. वो गांधी और जिन्नाह को नापसंद करते हैं क्योंकि वो किसी भी नेता के बजाय अपने देश से प्यार करना ज्यादा जरूरी समझते हैं. अंबेडकर ने अपने इस भाषण में ये बात भी कही थी कि उन्हें उम्मीद है कि भारत के लोग एक दिन ये बात जरूर सीखेंगे कि कोई भी नेता, देश से बड़ा नहीं होता. नायक और नायक पूजा का सच भारत में हमेशा कठोर और दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा. ये शब्द अंबेडकर के थे. लेकिन हमारे देश में इस पर जरा भी अमल नहीं हुआ. और हमारे देश के नेताओं ने उन्हीं की प्रतिमाएं भारत में बनवा दीं.

संविधान सभा में हुई थी आरक्षण पर बहस

इसी तरह डॉक्टर अंबेडकर ने खुद संविधान बनाते वक्त उसमें आरक्षण की स्थाई व्यवस्था नहीं की थी. 30 नवम्बर 1948 को जब संविधान सभा में आरक्षण व्यवस्था पर बहस हुई, तब अंबेडकर ने कहा था कि आरक्षण लागू होने के 10 साल में इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि जिन्हें आरक्षण दिया गया है, क्या उनकी स्थिति में कोई सुधार हुआ है या नहीं? उन्होंने ये भी कहा था कि अगर आरक्षण से किसी वर्ग का विकास हो जाता है, तो उसके आगे की पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहिए. इसके पीछे उन्होंने ये वजह बताई थी कि आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं है, जिसके सहारे पूरी जिंदगी काट दी जाए. ये विकसित होने का एक मात्र अधिकार है. लेकिन हमारे देश में वोटबैंक की राजनीतिक की वजह से अंबेडकर के इस विचार की गंभीरता को नहीं समझा गया. हमारे देश की राजनीति ने आरक्षण की व्यवस्था को स्थाई बना दिया.

आंदोलनों के खिलाफ थे अंबेडकर

अंबेडकर भारत बंद और सत्याग्रह जैसे पारंपरिक आंदोलनों के भी खिलाफ थे. लेकिन हमारे देश के लोगों ने उनके इस विचार को भी नहीं अपनाया. वर्ष 1949 में संविधान सभा में दिए अपने आखिरी भाषण में अंबेडकर ने कहा था कि भारत को अगर आगे बढ़ना है तो उसे प्रजातंत्र में विरोध जताने की उन परंपराओं को छोड़ना होगा, जिनमें सत्याग्रह और असहयोग जैसे आंदोलन किए जाते हैं. उन्होंने कहा था कि जब लोग संविधैनिक अधिकार और लोकतांत्रिक व्यवस्था होते हुए भी पारंपरिक आंदोलन को विरोध के तरीके के रूप में अपनाएंगे तो फिर आजादी को कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

डॉ. अंबेडकर चाहते थे एक देश, एक कानून 

इसी तरह अंबेडकर भारत में एक देश एक कानून की व्यवस्था चाहते थे. Uniform Civil Code लाने के पक्ष में थे. लेकिन हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कभी इस पर विचार करना तक जरूरी नहीं समझा. 23 नवंबर 1948 को संविधान में Uniform Civil Code पर जोरदार बहस हुई थी, जिसमें ये प्रस्ताव रखा गया था कि सिविल मामलों के निपटारे के लिए देश में एक समान कानून होना चाहिए या नहीं. लेकिन उस समय संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल साहिब, नजीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम ने एक मत से इसका विरोध किया. उस समय संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और तमाम बड़े कांग्रेसी नेता भी इसके खिलाफ थे. जबकि अंबेडकर इसका समर्थन कर रहे थे. उस दिन उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि रूढ़िवादी समाज में धर्म भले ही जीवन के हर पहलू को संचालित करता हो, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में धार्मिक क्षेत्र अधिकार को घटाये बगैर असमानता और भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता है. सोचिए डॉक्टर भीम राव अंबेडकर कितने दूरदर्शी थे. उन्होंने 74 वर्ष पहले ही कह दिया था कि अगर देश को एक समान कानून नहीं मिला, तो देश के सामने ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा होगी. अंबेडकर ने इसके लिए संविधान में अलग से व्यवस्था भी की थी. जिसके तहत भारत के संविधान का आर्टिकल 44 ये निर्देश देता है कि उचित समय पर सभी धर्मों के लिए पूरे देश में एक समान कानून लागू होना चाहिए.

जाति व्यवस्था का किया विरोध

अंबेडकर जब तक जीवित रहे, उन्होंने भारत की जाति व्यवस्था से जुड़ी कुरीतियों का विरोध किया. लेकिन उनके नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां आज भी चुनावों में जातियों की सोशल इंजीनियरिंग करती हैं. और आज भारत की राजनीति से जाति ऐसे चिपक गई है कि ये कहीं नहीं जा नहीं सकती.

टूल की तरह किया इस्तेमाल

अंबेडकर को भारत की राजनीति में हमेशा से एक Tool की तरह इस्तेमाल किया गया. उनके नाम पर कई पार्टियों ने चुनाव भी जीते और सरकारें भी बनाईं. लेकिन एक सच ये भी है कि खुद अंबेडकर आजाद भारत का अपना पहला चुनाव हार गए थे. 1951-1952 में हुए पहले लोक सभा चुनाव में डॉक्टर भीम राव अंबेडकर ने जवाहर लाल नेहरु की कांग्रेस पार्टी के खिलाफ Scheduled Caste Federation नाम से एक पार्टी बनाई थी.  जिसने देशभर के 10 राज्यों में 35 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उनकी पार्टी को केवल 2 सीटों पर ही जीत मिल पाई थी. खुद अंबेडकर भी बॉम्बे लोक सभा सीट से चुनाव हार गए थे और चौथे नंबर पर रहे थे. उन्होंने अपना पहला चुनाव कांग्रेस के एक ऐसे उम्मीदवार से हारा, जो बतौर सहायक उनके साथ काम कर चुके थे. कांग्रेस पार्टी के इस नेता का नाम था, काजरोलकर.

यानी इस देश के लोगों ने ही अंबेडकर को चुनावों में हरा दिया था. जिससे पता चलता है कि उस समय भी हमारे देश के बहुत सारे लोग अंबेडकर को एक नेता के तौर पर तो पसंद करते थे लेकिन वोट उन्हीं पार्टियों को देते थे, जो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करती थीं.

देश के पहले कानून मंत्री 

भीम राव अंबेडकर देश के पहले कानून मंत्री भी थे. लेकिन वर्ष 1951 में जब जवाहर लाल नेहरु ने हिंदू कोड बिल वापस लिया तो अंबेडकर ने अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और बाद में कांग्रेस भी छोड़ दी थी. ये बिल वर्ष 1951 में पेश हुआ था, जिसके तहत हिंदू धर्म में विवाह, सम्पत्ति के बंटवारे और महिलाओं को तलाक का अधिकार सुनिश्चित किया गया. उस समय बहस इस बात पर थी कि केवल हिंदू धर्म के लोगों पर ही इस तरह का कानून क्यों थोपा जा रहा है? जब देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए ऐसा कोई कानून या बिल क्यों नहीं लाया गया? ये सारी बहस पहले आम चुनाव के समय हो रही थी इसलिए नेहरु ने इस बिल को टाल दिया, जिससे नाराज होकर अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया.

मृत्यु के 34 साल बाद मिला भारत रत्न

नेहरु ने स्वयं प्रधानमंत्री रहते हुए खुद को भारत रत्न पुरस्कार दे दिया था. इंदिरा गांधी को भी प्रधानमंत्री रहते हुए वर्ष 1971 में भारत रत्न मिल गया था. और इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उनकी मृत्यु के दो वर्षों के बाद ही 1991 में मरणोपरांत ये पुरस्कार मिल गया था. लेकिन भीम राव अम्बेडर को उनकी मृत्यु के 34 वर्षों के बाद मरणोपरांत भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. और इसी तरह सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल को ये पुरस्कार भी तब मिला, जब पी.वी. नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने.

आज हम आपसे यही कहना चाहते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर को असली श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके असली विचारों का अनुसरण करें. क्योंकि अंबेडकर के विचारों को ना मानना और उनके विपरीत काम करना, उनका अपमान करने जैसा ही होगा.

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