एक ऐसी जगह जहां भक्तों को दर्शन देने के लिए खड़े रहते हैं भगवान
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एक ऐसी जगह जहां भक्तों को दर्शन देने के लिए खड़े रहते हैं भगवान

भगवान के दर्शनों के लिए लोग वर्षों तक तपस्या करते हैं. इसके बाद भी उन्हें भगवान के दर्शन नहीं होते हैं. क्या आप जानते हैं कि एक ऐसी जगह भी है, जहां पर भगवान अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए खड़े रहते हैं.

फाइल फोटो

पंढरपुर (महाराष्ट्र): भगवान के दर्शनों के लिए लोग वर्षों तक तपस्या करते हैं. इसके बाद भी उन्हें भगवान के दर्शन नहीं होते हैं. क्या आप जानते हैं कि एक ऐसी जगह भी है, जहां पर भगवान अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए खड़े रहते हैं. जो भी भक्त यहां भगवान के दर्शनों के लिए आते हैं, भगवान उन्हें दर्शन देते हैं. 

  1. महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है विट्ठल मंदिर
  2. संत पुंडलिक ने दर्शन देने आए भगवान कृष्ण को नहीं देखा
  3. पिता की सेवा में तल्लीन थे संत पुंडलिक 

 महाराष्ट्र के पंढरपुर में स्थित विट्ठल रुक्मणी मंदिर पूरे विश्व में विख्यात है. यहां की मान्यता के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए कई युगों से यहां खड़े हैं और माना जाता है की ये ऐसे ही कई युगों तक खड़े रहेंगे

महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है विट्ठल मंदिर
यह मंदिर महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक माना जाता है. विट्ठल मंदिर 12वीं सदी की संरचना है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित करता है. यहां भगवान कमर पर हाथ रखकर खड़े हैं. उन्हें घेरे देवी रुक्मिणी, बलरामजी, सत्यभामा, जाम्बवती तथा श्रीराधा के मंदिर हैं. देवशयनी और देवोत्थान एकादशी को बारकरी संप्रदाय के लोग यात्रा करके भगवान विट्ठल और रुक्मिणी की महापूजा देखने के लिए एकत्रित होते हैं. इस यात्रा को वारीदेना कहते हैं. इस अवसर पर राज्यभर से लोग पैदल ही चलकर मंदिर नगरी पहुंचते हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार रुक्मणी श्रीकृष्ण से रूठकर यहां तपस्या करने आईं थीं. तब भगवान श्री कृष्ण उन्हें मनाने यहां आए तो उन्हें अपने भक्त पुंडलिक का भी स्मरण हो आया. कृष्ण उन्हें दर्शन देने रुक गए और दूसरी तरफ रुक्मणी प्रतीक्षा में खड़ी रह गईं. 

संत पुंडलिक ने दर्शन देने आए भगवान कृष्ण को नहीं देखा
भगवान विट्ठल, श्री हरि के अवतार थे. उन्होंने यह अवतार क्यों लिया इसके बारे में एक पौराणिक कहानी प्रचलित है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 6ठी सदी में संत पुंडलिक भगवान कृष्ण के परम भक्त थे. भगवान की भक्ति के अलावा पुंडलिक के लिए माता-पिता की सेवा ही परम धर्म था. एक दिन वो अपने माता-पिता की सेवा में लीन थे कि भगवान श्रीकृष्ण, देवी रुक्मिणी  के साथ उन्हें दर्शन देने वहां प्रकट हो गए . लेकिन संत पुंडलीक अपने माता-पिता के पैर दबाने में इतने व्यस्त थे कि अपने इष्टदेव की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया. तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकारकर कहा- पुंडलिक हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं. 

पिता की सेवा में तल्लीन थे संत पुंडलिक 
पुंडलिक ने बिना देखे भगवान की तरफ ईंट खिसकाते हुए कहा कि अभी मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए. ये कहकर वो पुन: पिता के  पैर दबाने लगे. पुंडलिक की सेवा देखकर भगवान कृष्ण मन ही मन प्रसन्न होते हुए ईंट पर  खड़े हो गए . इंतज़ार करते-करते भगवान ने थक कर अपनी कमर पर दोनों हाथ रख लिए. भगवान कृष्ण ने सोचा कि जब पुंडलिक ने बड़े प्रेम से उनकी इस प्रकार व्यवस्था की है, तो इस स्थान को क्यों त्यागा जाए? और उन्होंने वहां से न हटने का निश्चय किया. पुंडलिक माता-पिता के साथ उसी दिन भगवत् धाम चले गए, किंतु श्री विग्रह के रूप में ईंट पर खड़े होने के कारण भगवान 'विट्ठल' कहलाए.

आसाढ़ के महीने में पहुंचते हैं लाखों श्रद्धालु
आसाढ़ के महीने में करीब 5 लाख से ज्यादा श्रद्धालु प्रसिद्ध पंढरपुर यात्रा में भाग लेने पहुंचते हैं. भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से पताका-डिंडी लेकर इस तीर्थस्थल पर लोग पैदल चलकर पहुंचते हैं. इस यात्रा क्रम में कुछ लोग अलंडि में जमा होते हैं और पुणे तथा जजूरी होते हुए पंढरपुर पहुंचते हैं.
 
12वीं सदी में हुआ मंदिर का निर्माण
मुख्य मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में देवगिरि के यादव शासकों द्वारा कराया गया था. इस मंदिर में भगवान विट्ठल के साथ राधा नहीं बल्कि देवी रुक्मिणी भी मौजूद हैं.पंढरपुर  में वसंत पंचमी पर भगवान विठ्ठल और देवी रुक्मिणी का शादी समारोह मनाया जाता है.. इसके लिए पंढरपुर के विठ्ठल-रुक्मिणी मंदिर को फूलों से सजाया जाता है. रुक्मिणी स्वयंवर ग्रंथ में वर्णन के अनुसार माघ शुद्ध पंचमी कृष्ण-रुक्मिणी के विवाह की तिथि होती है . इसके अनुसार भगवान विठ्ठल और देवी रुक्मिणी की शादी हर साल पंढरपुर में संपन्न होती है.

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मराठी कवि संतों की भूमि है पंडरपुर
यह शहर भक्ति संप्रदाय को समर्पित मराठी कवि संतों की भूमि भी है. लगभग 1000 साल पुरानी पालखी परंपरा की शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ प्रसिद्ध संतों ने की थी. उनके अनुयायियों को वारकारी कहा जाता है जिन्होंने इस प्रथा को जीवित रखा. 'वारकरी' शब्द में 'वारी' शब्द अंतर्भूत है. वारी का अर्थ है यात्रा करना, फेरे लगाना.  हर वारकरी के जीवन की अभिलाषा यही होती है कि हर जनम में उसे विट्ठल भक्ति का लाभ मिले. पंढरपुर पहुंचने पर सिर्फ मंदिर के शिखर कलश के दर्शन कर चंद्रभागा में स्नान कर अगली आषाढ़ी की वारी में फिर विट्ठल के दर्शन की आस लिए वह अपने गांव लौट जाते हैं. कहा जाता है विट्ठल भगवान के दर्शन से भक्तों की हर मुराद पूरी हो जाती है. सच्चे मन से जो भी यहां आता है वह कभी खाली हाथ नहीं जाता.

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