राजस्थान के विधानसभा चुनाव में एक नारा बहुत मशहूर हुआ था. वो नारा ये था कि 'मोदी से बैर नहीं, वसुंधरा की खैर नहीं.आज झारखंड के चुनाव नतीजे आ गए.
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राजस्थान के विधानसभा चुनाव में एक नारा बहुत मशहूर हुआ था. वो नारा ये था कि 'मोदी से बैर नहीं, वसुंधरा की खैर नहीं.आज झारखंड के चुनाव नतीजे आ गए. और झारखंड के लोगों ने भी कहा है कि मोदी से बैर नहीं बाकी किसी की खैर नहीं. इस बीच मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी चुनाव हुए और बीजेपी के मुख्यमंत्रियों को जाना पड़ा. यानी राज्यों की जनता प्रधानमंत्री कै तौर पर मोदी तो मंज़ूर हैं. लेकिन उनकी कोई Franchise काम नहीं कर रही है . तो क्या अब एक नया नारा तैयार करने का वक्त आ गया है कि...'मोदी से बैर नहीं, बाकी किसी की खैर नहीं '?
आज हम सबसे पहले झारखंड के चुनाव नतीजों का सरल और सटीक विश्लेषण करेंगे. और आपके इसके क्षेत्रीय और राष्ट्रीय असर के बारे में बताएंगे . 81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा के चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन को बहुमत मिल गया है. इस गठबंधन को 47 सीटें मिली हैं, जोकि बहुमत के आंकड़े 41 से 6 ज्यादा है. जबकि बीजेपी को वहां सिर्फ 25 सीटें मिली हैं . हालांकि बीजेपी को 33.4 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि 2014 के विधानसभा चुनाव पार्टी को 31.3 प्रतिशत वोट मिले थे . इस बार बीजेपी को करीब 2 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले हैं.
यानी वोट ज्यादा मिलने के बावजूद बीजेपी के हाथ से एक और राज्य निकल गया . आगे हम आपको विस्तार से दिखाएंगे कि कैसे बीजेपी का केसरिया रंग. देश के राजनीतिक नक्शे पर फीका पड़ता जा रहा है.
लेकिन पहला सवाल ये कि. बीजेपी क्यों हारी? इस सवाल का जवाब देने के लिए हम आपको 122 साल पीछे ले चलेंगे. तब बिरसा मुंडा...अंग्रेजों के खिलाफ झारखंड आंदोलन के जन-नायक थे . आदिवासियों की ज़मीन उनसे छीनी जा रही थी ...और ईसाई मिशनरी की तरफ से झूठा लालच देकर आदिवासियों का धर्मांतरण कराया जा रहा था . बिरसा मुंडा ने तब पहली बार आदिवासियों को इकट्ठा किया . उन्होंने आदिवासियों से एकता की अपील की...और नारा दिया कि 'महारानी का राज जाएगा और अबुआ राज...यानी हमारा राज आएगा'.
1898 में रांची के पास खूंटी में ...बिरसा के मुट्ठी भर सिपाहियों ने अंग्रेजों की सेना को हरा दिया था . जब तक आदिवासी एकजुट रहे अंग्रेजों का हौसला टूटता रहा . लेकिन, बिरसा को आखिर में उन्हीं के लोगों ने कमज़ोर किया ...और उनकी गिरफ्तारी भी अपने लोगों के धोखे की वजह से हुई ...यानी बिरसा के लोगों ने आपस में एकता नहीं दिखाई .
बीजेपी की हार के विश्लेषण को हमने 5 हिस्सों में बांटा है, जिन्हें हम एक-एक करके आपके सामने रखेंगे . हार की पहली वजह है पार्टी में एकता का अभाव, दूसरी वजह है- लड़ाई को रघुवर दास बनाम हेमंत सोरेन बनाने का नुकसान, तीसरी वजह है- अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं की अनदेखी, चौथी वजह- स्थानीय मुद्दों के आगे राष्ट्रीय मुद्दे नहीं चले....और पांचवीं वजह है- भीड़ की हिंसा जैसी घटनाओं से बीजेपी सरकार की छवि खराब हुई .
बीजेपी की हार की पहली वजह ये है कि पार्टी ने एकता नहीं दिखाई. और गठबंधन इसलिए जीता क्योंकि उसने आपस में ज़बरदस्त एकता दिखाई . कहा जा रहा कि झारखंड की लड़ाई बीजेपी Vs महागठबंधन नहीं... बल्कि बीजेपी Vs बीजेपी+महागठबंधन में थी और इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि खुद झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास इस बार हार की कगार पर हैं . जिस जमशेदपुर पूर्वी सीट से वो साल 1995 से लगातार जीत रहे थे, वहां... वो इस समय 15 हज़ार से ज्यादा वोट से पीछे चल रहे हैं ...और इसकी एकमात्र वजह ये बताई जा रही है कि रघुवर दास को...कभी उनकी ही सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे सरयू राय से मुकाबला करना पड़ा .
बीजेपी की हार की दूसरी वजह ये बताई जा रही है कि... मतदाताओं ने महागठबंधन के मुख्यमंत्री Candidate हेमंत सोरेन पर... बीजेपी के मुख्यमंत्री रघुवर दास से ज्यादा भरोसा किया . 2014 के झारखंड चुनाव में बीजेपी ने मुख्यमंत्री का कोई चेहरा पेश नहीं किया था . उस समय पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा था . लेकिन, इस बार मुख्यमंत्री रघुवर दास पार्टी का चेहरा थे.
रघुवर दास के मुकाबले महागठबंधन ने JMM के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन को अपना उम्मीदवार बनाया था. हेमंत सोरेन को आदिवासी होने का फायदा मिला . कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी अपनी रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ ज्यादा नहीं बोला, ताकि चुनाव के मैदान में मोदी का चेहरा...प्रभावी ना हो सके.
जबतक बीजेपी को इस बात का अहसास हुआ कि....चुनावी लड़ाई 'रघुवर दास बनाम हेमंत सोरेन' हो चुकी है...तबतक देर हो गई थी . आखिर में 45 साल के हेमंत सोरेन बीजेपी पर भारी पड़े . लेकिन बीजेपी ये कहते हुए संतोष कर रही है कि उसे anti incumbency के बावजूद इतनी सीटें मिली हैं .
बीजेपी की हार का तीसरा कारण ...टिकट बंटवारे में बीजेपी कार्यकर्ताओं की अनदेखी...को बताया जा रहा है . कहा जा रहा है की टिकट बंटवारे में झारखंड के नेताओं की राय नहीं ली गई . अपने नेताओं की जगह बाहर की पार्टियों से आए नेताओं को अहमियत दी गई . इसकी वजह से पार्टी के कार्यकर्ताओं में असंतोष था ...और BOOTH LEVEL के जो कार्यकर्ता पार्टी की जीत में सबसे मज़बूत भूमिका निभाते थे, इस बार उन्होंने ज्यादा कोशिश नहीं की . करीब 3 दर्जन से ज्यादा सीटों पर बीजेपी के बागी चुनावी मैदान में थे, जहां बीजेपी के उम्मीदवारों को स्थानीय कार्यकर्ताओं का समर्थन नहीं मिला . यही वजह है कि दूसरी पार्टियों से बीजेपी में आए कई उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा .
झारखंड में बीजेपी की हार का चौथा कारण ये है कि...स्थानीय मुद्दों के मुकाबले राष्ट्रीय मुद्दे नहीं चले . मतदाताओं ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अंतर को समझा...और उसके मुताबिक वोट किया .
अनुच्छेद 370, पाकिस्तान की कूटनीतिक घेरेबंदी और राम मंदिर जैसे मुद्दों पर बीजेपी को वोट नहीं मिले . वैसे ये कहा जा रहा है कि नागरिकता संशोधन कानून का बीजेपी को नुकसान भी हुआ है . संथाल परगना में 18 में से 10 सीटों पर JMM को जो बढ़त मिली है, इसी वजह से मिली है .
दूसरी ओर स्थानीय मुद्दे बीजेपी के खिलाफ गए . आदिवासी मतदाताओं ने ज़मीन से जुड़े मुद्दों पर अपनी नाराज़गी दिखाई . बीजेपी सरकार ने Chotanagpur Tenancy Act में संशोधन का जो प्रस्ताव तैयार किया था, उसे विपक्ष ने भुना लिया . ये कानून 1908 में अंग्रेजों के ज़माने में बनाया गया था, जिसके तहत कोई गैर आदिवासी...आदिवासियों की जमीन नहीं खरीद सकता है . बीजेपी सरकार ...सड़क, रेलवे और अस्पताल के लिए आदिवासियों की ज़मीन का मालिकाना हक ट्रांसफर करने का प्रस्ताव पास करना चाहती थी . हेमंत सोरेन ने आदिवासियों की ज़मीन को मुद्दा बनाकर अपनी राजनीतिक ज़मीन मज़बूत कर ली .
इसी तरह भीड़ की हिंसा से जुड़ी घटनाओं के चलते भी...रघुवर दास की सरकार की छवि खराब हुई, जिसका असर चुनावों पर दिखा . पिछले 5 साल में झारखंड में Mob Lynching की कम से कम 10 घटनाएं हुईं, इनमें 18 लोग मारे गए . इन सारी घटनाओं से झारखंड में बीजेपी सरकार के खिलाफ माहौल बना .
यानी आप कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार, जातिवाद, परिवारवाद, अनुशासन और राष्ट्रवाद ...विधान सभा चुनावों में कोई मुद्दा नहीं हैं . सुविधा के गठबंधन... राज्यों के चुनाव में मतदाता को परेशान नहीं करते . महत्वपूर्ण ये है कि चुनाव के वक्त विरोधी दल खुद को कितना एकजुट रख पाते हैं.