Lok sabha elections 2019: आक्रामक ब्रांड मोदी बनाम दो दशक पुराने जातीय फार्मूले के बीच है जंग
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Lok sabha elections 2019: आक्रामक ब्रांड मोदी बनाम दो दशक पुराने जातीय फार्मूले के बीच है जंग

लोकसभा चुनाव 2019 (Lok sabha elections 2019 ) के लिए 19 मई को हुए अंतिम चरण के मतदान के बाद सामने आए एग्जिट पोट में 250 से 350 सीटों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व वाले एनडीए की सत्‍ता वापसी के संकेत दिए गए हैं. अब, ये एग्जिट पोल कितने सही और कितने गलत है, इसका फैसला चंद घंटों के बाद होना शुरू हो जाएगा.

Lok sabha elections 2019: आक्रामक ब्रांड मोदी बनाम दो दशक पुराने जातीय फार्मूले के बीच है जंग

नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव 2019 (Lok sabha elections 2019 )  अपने अखिरी पड़ाव पर पहुंच गया है. कुछ घंटों के अंतराल के बाद इस बात का फैसला होना शुरू हो जाएगा कि जीत आक्रामक ब्रांड मोदी की होती है या दो दशक पुराना जातीय फार्मूला एक बार फिर कारगर साबित होता है. फिलहाल, 19 मई को हुए अंतिम चरण के मतदान के बाद सामने आए एग्जिट पोट में 250 से 350 सीटों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व वाले एनडीए की सत्‍ता वापसी के संकेत दिए गए हैं. अब, ये एग्जिट पोल कितने सही और कितने गलत है, इसका फैसला चंद घंटों के बाद होना शुरू हो जाएगा.

  1. एग्जिट पोल में एनडीए को सत्‍ता मिलने के संकेत
  2. जातीय समीकरण पर बड़ी चोंट होगी बीजेपी की जीत
  3. चंद मिनट बाद शुरू होगा मोदी बनाम जाति की जंग का फैसला

लोकसभा चुनाव 2019 के अंतिम नतीजों के संकेत देने वाले इन एग्‍जिट पोट ने भले ही सत्‍तारूढ़ एनडीए को प्रफुल्लित कर दिया हो, लेकिन इस बीच विपक्ष ने उन्‍हें बार-बार यह याद दिलाता रहा कि कहीं स्थिति 2004 और 2009 वाली न जा जाए. दरअसल, 2004 और 2009 में सामने आए एग्जिट पोल और वास्‍तविक नतीजों के बीच खासा अंतर देखा गया था. वहीं, 2014 लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल ट्रेंड के तौर पर तो सही थे, लेकिन सही संख्‍या का आंकलन करने में एग्जिट पोल एक्‍सपर्ट कमजोर साबित हुए थे. 

हालांकि, इस बीच हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तेजी से विकसित होती तकनीक, नए तौर तरीके और पुरानी गलतियों में सुधार के जरिए एग्‍जिट पोल को वास्‍तविक नतीजों के करीब खड़ा करने की कोशिश लगातार जारी है. इन कोशिशों के परिणाम स्‍वरूप लोकसभा चुनाव 2019 को लेकर हुए एग्जिट पोल यदि वास्तविक नतीजों में बदल जाते हैं, तो विपक्ष को यह जरूर समझना होगा कि उन्‍होंने मुद्दों का चुनाव करने में ऐसी कौन सी भूल कर दी, जिसके चलते चुनाव परिणाम उनके पक्ष में नहीं आ सके. 

जहां तक बात चुनावी मुद्दों की है तो बीजेपी ने बालाकोट स्‍ट्राइक, प्रधानमंत्री आवास योजना, किसानों को 6 हजार रुपए की सहायता, स्‍वच्‍छता अभियान सहित अपनी अन्‍य योजनाओं को अपने चुनाव प्रचार के दौरान जनता के सामने रखा. जबकि कांग्रेस ने गरीब लोगों को 72 हजार रुपए सालाना देने का वादा कर मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने की कोशिश की. इस चुनाव में कांग्रेस ने अपना पूरा जोर राफेल जैसे मुद्दों के जरिए सत्‍ता पक्ष को घेरने लगाया. 

लोकसभा चुनाव 2019 के प्रचार के दौरान विपक्ष की पूरी कोशिश रही कि जिस तरह भ्रष्‍टाचार के आरोप के साथ 2014 में उन्‍हें सत्‍ता से बाहर किया गया था, उसी तरह प्रधानमंत्री मोदी पर राफेल डील में भ्रष्‍टाचार का आरोप लगाकर सत्‍ता से बेदखल किया जाए. लिहाजा, कांग्रेस ने प्रचार के दौरान अपनी भावी योजनाओं के प्रचार से ज्‍यादा ध्‍यान राफेल डील में भ्रष्‍टाचार पर लगाया. यदि इस बार के नतीजे, एग्जिट पोल की तरह रहते हैं तो कांग्रेस को सोचना होगा कि उसकी प्रचार नीति कितनी सही और कितनी गलत है. 

 2019 के इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी के सामने सिर्फ कांग्रेस की चुनौती नहीं थी. बल्कि अलग-अलग राज्‍यों में हुए गठबंधनों ने भी बीजेपी की मुश्किलों को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. एक तरफ, पश्चिम बंगाल में मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐसा कोई दाव नहीं छोड़ा, जिससे बीजेपी को सत्‍ता से दूर किया जा सके, वहीं दूसरी तरफ उत्‍तर प्रदेश में दशकों से दुश्‍मन रहीं समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में गठबंधन कर लिया. उत्‍तर प्रदेश में हुए यह गठबंधन पूरी तरह से जातीय समीकरण के आधार पर था. 

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उत्‍तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की जड़ें कुछ खास जाति वर्गों में फैली हुए हैं. इन जातियों में अपनी मजबूती के बावजूद बीते चुनावों में दोनों पार्टियां बीजेपी को हराने में नाकामयाब रही थी. वहीं, सपा और बसपा दोनों को इस बात का इल्‍म था कि बीते चुनावों में आपसी झगड़े के चलते अल्‍पसंख्‍यक वोटों का बंटवारा हुआ है. यदि अल्‍पसंख्‍यक समुदाय से जुड़े वोटों को एक जगह पर ले आया जाए तो बीजेपी को आसानी से चुनौती दी जा सकती है. ऐसे में सपा और बसपा ने आपस में गठबंधन कर बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती पेश कर दी. 

ममता, अखिलेश और मायावती के अलावा बीजेपी के सामने कुछ और भी चुनौतियां थीं. जिसमें, तमिलनाडु के एम के स्टालिन, महाराष्‍ट्र के राज ठाकरे और ओडिशा में नवीन पटनायक भी बेहद अहम हैं. इस सभी विपक्षी नेताओं ने स्‍थानीय मुद्दों और जातीय मुद्दों के आधार पर बीजेपी को सत्‍ता से दूर करने की कोशिश की. इन सभी विपक्षी दलों की कोशिश का फैसला अब चंद मिनटों के बाद शुरू हो जाएगा. इस बार के फैसले साफ कर देंगे कि इस चुनाव में आक्रामक मोदी ब्रांड हावी रहा या दशकों पुराना जातीय समीकरण का फार्मूला एक बार फिर सही साबित हुआ.

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